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जनसंख्या विस्फोट: बढ़ती आबादी पर सकारात्मक चिंतन जरूरी, आंकड़ों के खेल में उलझना होगा घातक

जनसंख्या आज के दिन कितनी है, इसे प्रामाणिकता के साथ कहना कठिन है। 2011 की जनगणना को आधार मानकर हम 140 करोड़ की आबादी वाला देश बन चुके हैं। पढ़ें राकेश सिन्हा के विचार।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: June 16, 2024 09:44 IST
जनसंख्या विस्फोट  बढ़ती आबादी पर सकारात्मक चिंतन जरूरी  आंकड़ों के खेल में उलझना होगा घातक
जिस गंभीरता और सकारात्मक नीयत से बीसवीं शताब्दी में जनसंख्या असंतुलन पर बहस हुई, वह आज समाप्त हो चुकी है।
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एक अजीब विरोधाभास जनसंख्या के संदर्भ में है। आम लोग इसकी बढ़ती रफ्तार का नकारात्मक नतीजा महसूस कर रहे हैं। पर विशेषज्ञों की एक टोली बढ़ी और बढ़ती हुई जनसंख्या को समृद्धि का कारक और भविष्य बताती है। वे आंकड़ों से ऐसा खेलते हैं कि भय पैदा हो जाता है कि जनसंख्या नियंत्रण से कहीं भविष्य में श्रमशक्ति कम न हो जाए। एक दूसरा पक्ष भी जनसंख्या विमर्श को ऐतिहासिक रूप से प्रभावित करता रहा है, वह है सांप्रदायिक हस्तक्षेप। जब भी इसके विस्फोट की बात की जाती है, एक दूसरे प्रकार के विशेषज्ञ कूद पड़ते हैं और इसे अल्पसंख्यकों से जोड़कर पूरे विमर्श को सांप्रदायिक रूप दे देते हैं। यानी मोमबत्ती दोनों सिरों से जला दी जाती है। अंतत: समस्या पर बिना ठंडे दिमाग से विचार विनिमय किए, इसे बीच में ही छोड़ दिया जाता है। कभी भी इस पर निरंतरता और विवेक के साथ चिंतन नहीं हुआ। राज्यसभा में 2023 में दो दिनों की बहस जरूर हुई, पर नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा।

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जनसंख्या को लेकर कोई सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है

जनसंख्या आज के दिन कितनी है, इसे प्रामाणिकता के साथ कहना कठिन है। 2011 की जनगणना को आधार मानकर हम 140 करोड़ की आबादी वाला देश बन चुके हैं। जो दो तर्क इसके पक्ष में दिए जाते हैं, वे भ्रमित अधिक करते हैं। पहला, यह देश को युवा-शक्ति वाला बनाता है। यह देश की विकास प्रक्रिया में सबसे बड़ा योगदान है। दूसरा, जनसंख्या वृद्धि अब ‘हम दो हमारे दो’ के स्तर यानी विस्थापन दर पर पहुंच गई है, इसलिए इसे विस्फोट कहना अनुचित है। दोनों ही तर्क अर्द्धसत्य पर आधारित हैं। दुनिया के अनेक देशों, विशेषकर विकसित देशों में भारतीय श्रम की मांग है। उन्नीसवीं शताब्दी में तीस हजार भारतीय श्रमिक केनिया भेजे गए थे। तब और अब हम उसी परंपरा को अपनी बढ़ी जनसंख्या का लाभकारी पक्ष देख रहे हैं। कोई भी सभ्य समाज अपने लोगों को श्रमिक बनाकर दूसरी राष्ट्रीयताओं की शरण में नहीं भेजता है। यह लाचारी की स्थिति होती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हमेशा एक शर्त रहती है, वह है सस्ते श्रम की उपलब्धता। यानी जहां जनसंख्या अधिक होगी, श्रमिक मोल-तोल की स्थिति में नहीं रहता है। वह दूसरों की शर्तों पर श्रम देता है। भारत और बांग्लादेश इन बड़े आर्थिक प्रतिष्ठानों के लिए अनुकूल माने जाते हैं।

देश में जनसंख्या का असंतुलन अनेक जटिलताएं पैदा करता है

जनसंख्या वृद्धि सिर्फ संसाधनों पर बोझ नहीं है। पूरी दुनिया में 1996 से संसाधनों और जनसंख्या का अनुपात निकाला जाता है। इसे ‘इकोलोजिकल पर-फुटप्रिंट’ कहते हैं। यानी एक देश के लोगों को जीवन शैली में कितना संसाधन चाहिए। यह अनुपात भारत में नकारात्मक है। यह क्रम बना रहा, तो पीढ़ियों के हक के संसाधन को हम कुछ दशकों में उपभोग कर उन्हें अस्तित्व संघर्ष के लिए छोड़ देंगे। दूसरा पक्ष कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। निश्चित तौर पर जनसंख्या वृद्धि औसत रूप में विस्थापन दर के पास है। मगर वृद्धि दर क्षेत्र और समुदायों के बीच एक समान नहीं है। किसी भी राष्ट्र में जनसंख्या का असंतुलन अनेक जटिलताएं पैदा करता है। इसका ऐतिहासिक पक्ष हमारे सामने है। 1901 और 1911 की जनगणना में यह उभर कर आया था। बंगाल की जनसंख्या में हिंदुओं और मुसलिमों में दोगुने के अंतर के बावजूद 1891 से 1901 में कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान बराबर था।

हिंदुओं और मुसलिमों की संख्या क्रमश: अठारह लाख छियासी हजार और सत्रह लाख पैंतीस हजार थी। 1901 के जनगणना आयुक्त रिज्ले ने इस वृद्धि पर टिप्पणी की कि यह प्रांत में संतुलन बिगाड़ देगा। फिर विमर्श शुरू होना स्वाभाविक था। इस दौरान कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सुरेंद्रनाथ बनर्जी द्वारा संपादित अखबार ‘बंगाली’ में कर्नल यूएन मुखर्जी का लेख इस विषय पर छपा, जो बाद में ‘डाइंग रेस’ (मृतप्राय जाति) के नाम से प्रकाशित हुआ। इसने रचनात्मक प्रभाव डाला। इसका प्रभाव इतना पड़ा कि स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस की राजनीति से 1913 में अवकाश लेकर इस विषय पर अध्ययन शुरू कर दिया।

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फिर उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदू आर्गनाइजेशन : सेवियर आफ डाइंग रेस’ 1926 में प्रकाशित हुई। मुखर्जी से हिंदू जातियों के कुलीनों को असंवेदनशील और सरोकार विहीन बताते हुए सामाजिक-आर्थिक विषमता पर चोट की। जिस प्रश्न को उन्होंने उठाया, वही 1911 की जनगणना में प्रमुखता से उभरा। तब जनगणना आयुक्त ईए गेट थे। उन्होंने हिंदुओं के विरोधाभास के आधार पर एक प्रश्नावली तैयार की, जिसे गेट सर्कुलर कहा गया। इसके आधार पर जनगणना होती। पर मुखर्जी की पुस्तक ‘हिंदुज्म आफ्टर कमिंग सेन्सस’ ने सरकार को सर्कुलर वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया।

जिस गंभीरता और सकारात्मक नीयत से बीसवीं शताब्दी में जनसंख्या असंतुलन पर बहस हुई, वह आज समाप्त हो चुकी है। तब औपनिवेशिक शासन था, जिसका अपना स्वार्थ था। 1911 की जनगणना में गर्व के साथ बताया गया था कि पंजाब में चालीस हजार हिंदुओं का इस्लाम में और एक लाख बीस हजार का ईसाई में धर्मांतरण हुआ। स्वतंत्र भारत में विमर्श का आधार सामाजिक क्षेत्रीय संतुलन और पीढ़ियों का पेट भरने के लिए संसाधन की उपलब्धता होनी चाहिए। कानून बने या न बने, स्वस्थ और भागीदारी पर आधारित बहस से भी आधी समस्या का समाधान हो सकता है।

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