पी. चिदंबरम का कॉलम दूसरी नजर: लगता नहीं कुछ बदला, प्रधानमंत्री मोदी के लिए तीसरे कार्यकाल की शुरुआत ही अनपेक्षित
माननीय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपानीत सरकार ने 9 जून, 2024 को शपथ ली। इसकी शुरुआत अच्छी नहीं रही। मोदी को तेदेपा और जद (एकी) नेताओं के साथ मुख्य मंच साझा करना पड़ा और उन्हें तथा अन्य सहयोगियों को विभाग आबंटित करने पड़े। लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में उन्हें पंचायत की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। सरकार के मुखिया के रूप में अपने बाईस वर्षों में मोदी के लिए ये दोनों ही अनुभव असामान्य थे।
कई झटके
सरकार बनने के बाद बीस दिनों के भीतर उसे कई झटके लगे हैं। राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी (एनटीए) ध्वस्त हो गई और इसकी आग ने लाखों छात्रों की आकांक्षाओं को जलाकर राख कर दिया। जलपाईगुड़ी में एक भयानक रेल हादसा हुआ। जम्मू और कश्मीर में आतंकवादी हमले होते रहे। टमाटर, आलू और प्याज की कीमतों में वर्ष-दर-वर्ष क्रमश: 39, 41 और 43 फीसद की वृद्धि हुई। सेंसेक्स और निफ्टी ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गए, जबकि डालर-रुपया विनिमय दर ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गई। राजमार्गों पर टोल टैक्स में 15 फीसद की वृद्धि की गई। आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से भर्त्सना करते हुए उन लोगों को फटकार लगाई जिन्होंने ‘अहंकार’ प्रदर्शित किया; भाजपा के नेतृत्व ने घबराहट में फैसला किया कि दिलेरी ही बेहतर अक्लमंदी है।
भाजपा की कई राज्य इकाइयों में स्थानीय विद्रोह भड़क उठे। संसद के पहले सत्र में, लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव और राष्ट्रपति के अभिभाषण को छोड़कर, कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं हुआ। मगर नियमित कामकाज में भी विवादों ने पीछा नहीं छोड़ा। परंपरा के अनुसार, निर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह की अध्यक्षता करने के लिए ऐसे संसद सदस्य को ‘प्रोटेम स्पीकर’ नामित किया जाता है, जो सबसे अधिक बार लोकसभा के लिए चुना गया हो। वह व्यक्ति, निर्विवाद रूप से, कांग्रेस के केरल से निर्वाचित के. सुरेश हो सकते थे, जो एक बार के व्यवधान को छोड़ कर आठवीं बार सांसद चुने गए हैं। मगर, सरकार ने ओड़ीशा से भाजपा के निर्वाचित सदस्य बी महताब को इस पद के लिए नामित किया, जबकि वे केवल सात बार निर्वाचित हुए हैं (छह बार बीजद के टिकट पर और, पार्टी छोड़ने के बाद, सातवीं बार भाजपा के टिकट पर)।
भाजपा ने इस अनावश्यक विवाद को क्यों जन्म दिया? इसके संभावित उत्तर हैं : भाजपा यह संकेत देना चाहती थी कि लोकसभा चुनाव के नतीजों से उसके सर्वोच्च नेता के कामकाज के तरीके पर कोई असर नहीं पड़ा है, यानी, ‘यही मेरा मार्ग या राजमार्ग है’। इसका एक दूसरा उत्तर यह हो सकता है कि विवादों में घिरे संसदीय मामलों के नए मंत्री के रिजीजू अपने आगमन का संकेत देना चाहते थे। सबसे उचित उत्तर यह है कि महताब का नामांकन उनके बीजद से भाजपा में शामिल होने और ज्यादा से ज्यादा सांसदों को भाजपा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए एक पुरस्कार था।
बासी आश्वासन
हालांकि लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव एक खटास भरे नोट पर संपन्न हुआ, लेकिन शेष सत्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मगर माननीय अध्यक्ष ने उस समय और कड़वाहट बढ़ा दी, जब उन्होंने उनचास वर्ष पहले (हां, उनचास वर्ष, पचास नहीं) आपातकाल लगाने के लिए कांग्रेस की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया! इसके बाद, संसद 1947 में कश्मीर पर आक्रमण के लिए पाकिस्तान, 1962 में युद्ध के लिए चीन और 1971 में भारत को डराने के वास्ते विमानवाहक पोत भेजने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की निंदा करके इतिहास के अन्य पाठ पढ़ा सकती है। प्रस्ताव एक अनुचित उकसावे वाला था।
दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति का अभिभाषण गलत शुरुआत के बाद शिष्टाचार बहाल करने का एक अवसर हो सकता था, लेकिन वह अवसर भी चूक गया। अभिभाषण में लोकसभा की बदली हुई संरचना को रेखांकित किया जाना चाहिए था, यह तथ्य स्पष्ट किया जाना चाहिए था कि अग्रणी पार्टी (भाजपा) बहुमत से 32 सीट से पीछे है, कि प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार के प्रमुख हैं और दस साल बाद, लोकसभा में विपक्ष का नेता होगा। मगर अफसोस कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में बदली परिस्थितियों का कोई संदर्भ नहीं था।
यह अभिभाषण भाजपा द्वारा चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान किए गए दावों की विरुदावली भर था। इन दावों को अधिकांश लोग खारिज कर चुके हैं। नई सरकार भाजपा की नहीं, बल्कि गठबंधन की सरकार है। भाजपा ने इस कड़वे-मीठे तथ्य को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है और राष्ट्रपति ने भी उसी दृष्टिकोण को दोहराया। ‘गठबंधन’ शब्द अभिभाषण में नहीं आया। इसके अलावा अन्य शब्द, जो इस अभिभाषण में गायब रहे, पर उनकी गूंज स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती रही, उनमें ‘आम सहमति’, ‘मुद्रास्फीति’ और ‘संसदीय समिति’ जैसे शब्द शामिल थे। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों का संदर्भ तो था, मगर अन्य सभी- विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदायों- को ‘सामाजिक और धार्मिक समूहों’ के दायरे में रखा गया था। मणिपुर की त्रासदी का कोई जिक्र नहीं था। एक छोटी-सी दया के रूप में भी ‘अग्निवीर’ या ‘समान नागरिक संहिता’ का कोई संदर्भ नहीं था। अंत में, भारत अब ‘विश्व गुरु’ नहीं रहा, वह ‘विश्व बंधु’ बनकर संतुष्ट है!
एकरूपता का आधिक्य
जाहिर है, भाजपा के विचार में, कुछ भी नहीं बदला है, यहां तक कि लोगों का मिजाज भी नहीं। इसलिए, यह वही मंत्रिमंडल है, इसमें वही मंत्री हैं, वही-वही मंत्रालय संभाल रहे प्रमुख मंत्री हैं, वही अध्यक्ष हैं, प्रधानमंत्री के वही प्रधान सचिव हैं, वही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, खुफिया ब्यूरो के वही प्रमुख हैं, इसमें वही सरकारी विधि अधिकारी और बाकी बहुत सारे लोग हैं।
इसके अलावा, मुझे बताया गया है कि सोशल मीडिया उन्हीं ‘भाड़े के ट्रोल’ से भरा पड़ा है, जो अर्ध-शिक्षित, ध्यान भटकाने वाले, गंदगी के विज्ञान में पारंगत और स्पष्ट रूप से हारे हुए हैं। मुझे डर है कि यह इस बात का निर्णायक सबूत है कि लोगों के फैसले के बावजूद कुछ भी नहीं बदला है!
बजट की भागमभाग में, सबसे अधिक बेरोजगारी और मुद्रास्फीति को लेकर लोगों की चिंताएं बनी हुई हैं। ‘सीएसडीएस’ के मतदान बाद सर्वेक्षण (25 जून, 2024, द हिंदू) के अनुसार, ‘मूल्य वृद्धि/ मुद्रास्फीति’ और ‘बढ़ती बेरोजगारी’ को भाजपा सरकार के सबसे ‘अलोकप्रिय’ कार्यों के रूप में क्रमश: 29 फीसद और 27 फीसद लोगों ने चिह्नित किया। इन दो प्रमुख चिंताओं के संदर्भ में देखें तो, मंत्रिमंडल के गठन और राष्ट्रपति के अभिभाषण ने लोगों को निराश किया है। क्या जुलाई में आने वाला 2024-25 का बजट मोदी सरकार को कुछ जगाएगा? संसदीय शिष्टाचार का तकाजा है कि फिलहाल हम अपना दिल थाम कर बैठें।