पी. चिदंबरम का कॉलम दूसरी नजर: देश में परिवर्तन की जरूरत और इसकी चुनौती, बदलाव नहीं होने का खतरा
पिछले सप्ताह के स्तंभ का समापन मैंने इन शब्दों के साथ किया था, ‘जैसे-जैसे चुनाव सात चरणों में पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है, लड़ाई यथास्थिति बनाए रखने के लिए दृढ़ संकल्पित लोगों और यथास्थिति को भंग करने के लिए दृढ़ संकल्पित लोगों के बीच बढ़ती गई है।’ वोटों की गिनती में अभी दो दिन बाकी हैं, फिर हम जान जाएंगे कि बहुसंख्य लोग (या बहुमत) परिवर्तन चाहते हैं या यथास्थिति को बनाए रखने में खुश हैं।
यथास्थिति में सुख
निश्चित रूप से बहुत सारे लोगों में बदलाव की ख्वाहिश है, मगर मुझे लगता है कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो बदलाव नहीं चाहते। मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि बदलाव न चाहने वालों को डर है कि बदलाव उनके जीवन को बदतर बना सकता है; या फिर अज्ञात, ज्ञात से अधिक भयावह लगता है; या उन्हें डर है कि एक पक्ष का परिवर्तन जीवन के अन्य पक्षों को प्रभावित करेगा। जैसे, रीति-रिवाजों को तोड़ना, समुदाय की नाराजगी मोल लेना हो सकता है। यथास्थिति में एक निश्चित सुख है।
भारत के पिछले तीस वर्षों में कुछ ऐसे दौर रहे हैं, जब प्रेरक शक्ति परिवर्तन थी। कुछ विशेष कालखंडों में यथास्थिति की रक्षा का प्रयास किया गया। अन्य समयों में इसे अतीतवाद के रूप में देखा गया, जिसे शब्दकोश में ‘पश्चगामी प्रवृत्ति’ के रूप में परिभाषित किया गया है। (अतीतवादी लोग अपने खोए हुए और गौरवशाली अतीत में ही सब कुछ देखते हैं।)
मेरा मानना है कि भारत में बदलाव की जरूरत है और वह इसका हकदार भी है। दस वर्ष पहले, बदलाव की मांग उठी थी और सरकार यूपीए से एनडीए में बदल गई थी। मुझे लगता है कि भारत फिर से ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। पिछले दस वर्षों में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसे बदला जाना चाहिए या सुधारात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके कुछ उदाहरण हैं :
भुक्तभोगी
2016 में किया गया विमुद्रीकरण एक बहुत बड़ी गलती थी। नकदी में भारी कमी ने लोगों के जीवन के साथ-साथ सैकड़ों-हजारों सूक्ष्म और लघु इकाइयों के कामकाज में उथल-पुथल मचा दी। कई इकाइयां उससे उबर नहीं पार्इं और बंद हो गर्इं।
महामारी के वर्षों (2020 और 2021) में की गई अनियोजित पूर्णबंदी ने स्थिति को और खराब कर दिया। वित्तीय पैकेज और ऋण की अनुपलब्धता के चलते सूक्ष्म और लघु इकाइयों की दशा और खराब हो गई। बहुत सारी इकाइयां बंद हो गईं और दोहरे झटके के परिणामस्वरूप, सैकड़ों-हजारों नौकरियां चली गईं। इस विकट स्थिति को बदलने के लिए एक साहसिक योजना की आवश्यकता है, जिसमें कर्ज माफी, बड़े पैमाने पर ऋण, सरकारी खरीद, निर्यात प्रोत्साहन और कर रियायतें शामिल हों। मुझे इनमें से किसी से भी जुड़ी कोई योजना नजर नहीं आती।
आरक्षण पर मौन प्रहारों ने एससी, एसटी और ओबीसी से किए गए संवैधानिक वादों को खत्म कर दिया है। सरकार और सरकारी क्षेत्र में तीस लाख पदों को खाली छोड़ना आपराधिक उपेक्षा और आरक्षण विरोधी रवैये का एक उदाहरण है। आरक्षण पर पचास फीसद की सीमा की कसम खाते हुए, यथास्थितिवादियों ने चुपचाप आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए पचास फीसद के अलावा दस फीसद कोटा जोड़ दिया, लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी के बीच ईडब्ल्यूएस को बाहर रखा, क्यों? सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में नौकरियों में शुद्ध कमी, आरक्षण पर शर्तों के बिना निजीकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में सरकारी की तुलना में निजी क्षेत्र को वरीयता, प्रश्नपत्रों के लीक का हवाला देकर सार्वजनिक परीक्षाओं को रद्द करना, पदोन्नति न करना और नौकरियों में ठेकेदारी और अस्थायीकरण से आरक्षण की नीति गंभीर रूप से कमजोर हो गई है। बदलाव केवल उन लोगों के कहने पर आएगा, जो यथास्थिति को चुनौती देते हैं।
नुकसान की भरपाई
कानूनों के शस्त्रीकरण को पलटा जाना चाहिए। पिछले दस वर्षों में पारित किए गए नए विधेयकों या संशोधन विधेयकों को पलटने वाले लोगों के वर्चस्व वाली संसद कैसे पलटेगी? जांच एजंसियों पर लगाम कौन लगाएगा और उन्हें संसद/ विधानसभा समितियों की निगरानी में कौन लाएगा? संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 22 के अर्थ और विषय-वस्तु को कौन बहाल करेगा और कानून का शासन फिर से स्थापित करेगा? ‘बुलडोजर न्याय’ और ‘परीक्षण-पूर्व कारावास’ को कौन समाप्त करेगा? लोगों में कानून के प्रति भय को कौन दूर करेगा और उसकी जगह कानून के प्रति सम्मान को कौन स्थापित करेगा? ‘उचित प्रक्रिया’ को आपराधिक कानून का अपरिवर्तनीय सिद्धांत कौन बनाएगा और कानून में यह सिद्धांत शामिल करेगा कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद है’? ये बदलाव केवल निडर सांसदों के एक समूह द्वारा ही किए जा सकते हैं, जो बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान के मौलिक मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
उदारीकरण, खुली अर्थव्यवस्था, प्रतिस्पर्धा और विश्व व्यापार के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था में काफी सुधार आया है, लेकिन ये तभी प्रासंगिक रहेंगे जब आर्थिक नीतियों को पुनर्निर्धारित किया जाएगा। धीरे-धीरे बढ़ते नियंत्रण, प्रच्छन्न लाइसेंसिंग, बढ़ते एकाधिकार, संरक्षणवाद और द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के डर के कारण विकास दर में गिरावट आई है, जैसा कि होना ही था। श्रम की कीमत पर पूंजी के प्रति पूर्वाग्रह (हमारे पास पीएलआइ है, लेकिन ईएलआइ नहीं है) ने रोजगार और मजदूरी को दबा दिया है- जो बढ़ती असमानता के कारणों में से एक है। विश्व असमानता प्रयोगशाला के अनुसार, भारत की असमानता 1922 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर है।
कई लोग औसत आय में वृद्धि से धोखा खा जाते हैं। याद रखें, औसत से नीचे पचास फीसद भारतीय (71 करोड़) हैं और एक अन्य डेटा पर गौर करें: भारत की वयस्क आबादी (15-64 वर्ष) 92 करोड़ है, लेकिन केवल 60 करोड़ श्रमबल में हैं। श्रमबल भागीदारी दर (एलएफपीआर) का सबसे उदार अनुमान 74 फीसद (पुरुष) और 49 फीसद (महिलाएं) हैं। असंतोषजनक एलएफपीआर, उच्च बेरोजगारी दर और उम्रदराज आबादी को मिलाएं, तो अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि हम तेजी से जनसांख्यिकी के फायदे गवां रहे हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों को चुनौती देने और उन्हें फिर से स्थापित करने की हिम्मत कौन करेगा? यथास्थितिवादी तो कतई नहीं।
केवल व्यवधान ही बदलाव लाएगा। व्यवधान और बदलाव, कई लाभ और कुछ नुकसान लाएंगे, जिन्हें ठीक किया जा सकता है। 1991 का प्रमुख सबक यह है कि जो हिम्मत करता है, वह जीतता है। यथास्थितिवादियों ने- जो कोई बदलाव नहीं चाहते- वह सबक नहीं सीखा है और न ही सीखेंगे।