होमताजा खबरराष्ट्रीयमनोरंजन
राज्य | उत्तर प्रदेशउत्तराखंडझारखंडछत्तीसगढ़मध्य प्रदेशमहाराष्ट्रपंजाबनई दिल्लीराजस्थानबिहारहिमाचल प्रदेशहरियाणामणिपुरपश्चिम बंगालत्रिपुरातेलंगानाजम्मू-कश्मीरगुजरातकर्नाटकओडिशाआंध्र प्रदेशतमिलनाडु
वेब स्टोरीवीडियोआस्थालाइफस्टाइलहेल्थटेक्नोलॉजीएजुकेशनपॉडकास्टई-पेपर

Blog: विविधता की राजनीतिक संस्कृति और सामाजिक जीवन में योद्धा की छवि, चुनौतियों के बीच आलोचना में समाधान तलाशने की कोशिश

भारतीय जनतंत्र की स्थिति दुनिया के अन्य हिस्सों, चाहे यूरोप हो या अफ्रीका, भिन्न है। इसका कारण विविधता आधारित जीवन मूल्य और दर्शन है। सामाजिक-सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चेतना का परिणाम राजनीति में स्वाभाविक रूप से प्रतिबिंबित होता है। उस चेतना की बहुलता और सामाजिक वर्गों की विपुलता को कैसे जनतांत्रिक धारा में परिवर्तित किया जाए, यह कठिन चुनौती होती है।। पढ़ें राकेश सिन्हा का विचार।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | June 30, 2024 11:26 IST
आचार्य जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और संपूर्णानंद एक मंच पर नहीं थे, पर इनकी सार्वजनिक जीवन के योद्धा की छवि थी। (Illustration by C R Sasikumar)
Advertisement

चुनावी सरगर्मी में विश्लेषण मत विभाजन और सामाजिक समीकरणों तक सिमट कर रह जाता है। तब के लिए यह यथेष्ट है। पर जिस समाज में जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर उठापटक चल रही हो और परिपक्व जनतंत्र तक पहुंचने में अनेक बाधाएं साफ-साफ दिखाई पड़ रही हों, उसमें चिंतन का विस्तार होना जरूरी है। चुनाव के बाद यह सबसे उपयुक्त समय है। इसमें अल्पता या न्यूनता का कारण भारत के बुद्धिजीवियों और उनके मंचों पर राजनीतिक-वैचारिक ध्रुवीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव है, जिससे चिंतन-विश्लेषण की सीमा तय हो जाती है। एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच की अवधि बिना किसी निर्णायक योगदान के बीत जाती है। राजनीतिक दल अपना काम बखूबी करते हैं। यह वोटों की संख्या पर केंद्रित होता है। यही रचनात्मक और विध्वंसात्मक कार्यों के लिए उत्प्रेरक की तरह होता है। पर ‘थिंक टैंक’ और अकादमिक जगत से जुड़े लोग ‘न तीन के न तेरह के’ बनकर रह जाते हैं। आलोचना स्वयं में निदान नहीं होती है, पर उसमें समाधान की जमीन अवश्य तलाशी जा सकती है।

भारतीय जनतंत्र की स्थिति दुनिया के अन्य हिस्सों, चाहे यूरोप हो या अफ्रीका, भिन्न है। इसका कारण विविधता आधारित जीवन मूल्य और दर्शन है। जिस आयाम को देखें, वहीं अनेक परत और प्रवृत्तियां मिल जाती हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चेतना का परिणाम राजनीति में स्वाभाविक रूप से प्रतिबिंबित होता है। उस चेतना की बहुलता और सामाजिक वर्गों की विपुलता को कैसे जनतांत्रिक धारा में परिवर्तित किया जाए, यह कठिन चुनौती होती है। इसमें उन ताकतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो राजनीतिक प्रक्रिया में होते हैं, पर चुनावी राजनीति से दूर रहते हैं। इसका उदाहरण जयप्रकाश-विनोबा के व्यक्तित्व से समझा जा सकता है।

Advertisement

देश की नीतियों, राजनीतिक गतिविधियों आदि से ये विरक्त नहीं थे, पर चुनावी अंकगणित और समीकरणों से दूर थे। उनकी वैचारिक भूमि भी तटस्थ या उदासीन नहीं थी, पर वह उनकी निष्पक्ष भूमिका और राजनीतिक चेतना को सुदृढ़ करने में व्यवधान नहीं बनता था। समाज में उनकी विश्वसनीयता थी। राज्य के संसाधनों पर उनकी निर्भरता नहीं थी। यह आसान नहीं होता है। उन जैसे लोगों ने समाज के स्रोतों से अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ाया। इसलिए उनकी आंखों में पानी भी था और व्यक्तित्व में फौलादी संघर्ष की क्षमता भी। इसीलिए सुदूर गांवों को चुनकर वे जनतांत्रिक प्रतिमानों को स्थापित करते रहे। प्रयोगशाला हमेशा छोटी होती है, प्रयोग का असर बड़ा और व्यापक होता है।

पचास-साठ के दशक में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जो पीढ़ी आई, उनमें आदर्श के सपने और व्यक्तिगत जीवन में शुद्धता बनाए रखने की आकांक्षा पर्याप्त मात्रा में थी। आज शहर केंद्रित बुद्धिजीवी स्वयं चौहद्दी लांघने की स्थिति में नहीं हैं। फिर तो ‘चलता है’ संस्कृति ही राजनीति की राह बनाती रहेगी।

Advertisement

प्रथम आमचुनाव मार्गदर्शिका है। तिरपन दल चुनाव मैदान में थे। अधिकांश वैचारिक पृष्ठभूमि वाले थे। इसमें जमींदार पार्टी से लेकर हिस्टोरिकल रिसर्च (ऐतिहासिक शोध) जैसी पार्टियां भी थी। अगले चुनाव (1962) में सत्ताईस दल थे तो तीसरे आम चुनाव (1967) में संख्या पंद्रह रह गई। भारत में वैचारिक बुनियाद के आधार पर विमर्श और राजनीति का यह स्वर्णिम काल था। भारतीय जनसंघ उस दौर में कांग्रेस, कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट समूहों के समांतर एक वैचारिक-राजनीतिक ताकत के रूप में विकसित हुआ। उनके नेता जितने राजनीति में डूबे थे, उतने ही सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर सजग थे। वैचारिक विरोधों में पल रहे वे व्यक्तित्वों में समानार्थक स्वरूप प्रस्तुत करते थे। आचार्य जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और संपूर्णानंद एक मंच पर नहीं थे, पर इनकी सार्वजनिक जीवन के योद्धा की छवि थी। भारतीय समाज कैसा हो, इसे ये संबोधित करते थे। इसने सामाजिक विभाजन को आर्थिक-सांस्कृतिक धारा में मिलाने का काम किया।

भारत की विरासत से जो बात उभरकर आती है, वह है परिवर्तन, बौद्धिकता और चेतना सृजन का केंद्र कभी भी शहर या महानगर नहीं रहा है, न ही बड़े नाम वाले लोग रहे हैं। इसका केंद्र अनाम स्थान रहा जो अपने सामाजिक-राजनीतिक या बौद्धिक योगदान के बाद ऐतिहासिक बन गया। नालंदा, नादिया, वर्धा, पवनार, कौआकोल कुछ ऐसे ही नाम हैं।

क्या हमारी विविधता जनतंत्र पर बोझ बन जाएगी? यह प्रश्न लाजिमी है। राजनीति विचारों, व्यक्तित्वों और व्यवहारों से पहचानी जाती है। जितनी समग्रता और सर्वसमावेशी क्षमता उसमें होती है वह विविधताओं को पिरो लेती है, कटुता या प्रतिस्पर्धी नहीं बनने देती है। जब बड़ी क्षमता और अवसर वाले लोग, जिन्हें ‘छोटी जगह’ और ‘छोटे लोग’ कहा जाता है, के साथ संवाद और सत्संग करते हैं, तो वही ‘छोटे लोग’ और ‘छोटे स्थान’ विचारों और राजनीति की मरुभूमि से हरितभूमि बन जाते है। वे ही परिवर्तन के सारथी बनते हैं। भारतीय जनतंत्र ने अपनी प्रयोगधर्मिता से यही सिखाया और दिखाया है। पश्चिम मे बैठे कोई धनपति भले सोचते हों कि धन जनतंत्र की नियति तय करता है, पर भारत इसे सदैव नकारता रहा है। वर्तमान पीढ़ी को निष्क्रियता से निकलकर सामाजिक-आर्थिक जमीन को समृद्ध करना होगा। अन्यथा जनतंत्र बेलगाम, बेआकार और व्यथित बना रहेगा।

Advertisement
Tags :
Democracyjansatta epaperravivarithink tank
विजुअल स्टोरीज
Advertisement
Jansatta.com पर पढ़े ताज़ा एजुकेशन समाचार (Education News), लेटेस्ट हिंदी समाचार (Hindi News), बॉलीवुड, खेल, क्रिकेट, राजनीति, धर्म और शिक्षा से जुड़ी हर ख़बर। समय पर अपडेट और हिंदी ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए जनसत्ता की हिंदी समाचार ऐप डाउनलोड करके अपने समाचार अनुभव को बेहतर बनाएं ।
Advertisement