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Blog: अभिव्यक्ति की आजादी और भारत का समृद्ध लोकतंत्र, भौतिक उपलब्धियां और जीवन दर्शन में अंतर

जब भारत की ज्ञान परंपरा पर काम राष्ट्रवादी उपक्रम माना जा रहा है। ऐसा इसलिए कि इस पर रुकावट के विरुद्ध राजनीतिक अभियान चला, लेकिन वर्तमान परिवेश में कथित दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी छपी-छपाई बातों की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। इसमें खतरा सतही लेखन का है, जो भारत की ज्ञान परंपरा को पहले हुए दमन से कहीं अधिक नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है। पढ़ें राकेश सिन्हा का विचार।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: June 02, 2024 10:36 IST
स्वतंत्रता ही रचनात्मकता और विविधता को जीवित रखती है।
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हाल के कुछ वर्षों से भारत की ज्ञान परंपरा विषय के रूप में लोकप्रिय हो रही है। इसकी महत्ता और उपयोगिता स्वीकार की जा रही है। यह स्वाभाविक प्रश्न है कि ज्ञान को भूगोल विशेष से जोड़ना कितना उचित है। यह समझना जरूरी है कि भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने और जीवन दर्शन का प्रवाह अर्जित करने, दोनों में बुनियादी अंतर है। पहली श्रेणी मानव जीवन के स्वार्थ का पक्ष है। भौतिक विज्ञान इसमें काम आता है। दूसरा पक्ष मानव जीवन के निस्वार्थ पक्ष को सबल करता है, जिसमें वह मनुष्य होने के औचित्य को ढूंढ़ता है। भारत में ज्ञान को मुक्ति का साधन माना गया है, जबकि भारत के बाहर की दुनिया में यह मनुष्य को ताकतवर बनाता है। वह इससे भौतिक संपन्नता प्राप्त करता है। भारत की रचनाएं वेद, उपनिषद, महाभारत, बौद्ध-जैन ग्रंथ, गुरुग्रंथ साहिब आदि मनुष्य को व्यापकता, विविधता, आलोचनात्मकता और विवेकवाद की ओर ले जाती है। इसीलिए भारत की ज्ञान परंपरा कहना उचित है।

आजादी के बाद ही ज्ञान परंपरा पर चर्चा हो जानी चाहिए थी

ज्ञान परंपरा पर चर्चा और इसकी उन्नति तो स्वतंत्रता के बाद ही हो जानी चाहिए थी, पर ऐसा हुआ नहीं। दरअसल, तब शासक भारतीय थे, पर यूरोप के दर्शन को ही वे मानसिक-सांस्कृतिक प्रगति का आधार मानते थे। ऐसा नहीं था कि कांग्रेस में भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा को समझने और उसे बढ़ाने वाले लोग नहीं थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी आदि प्रमुख नाम थे। पर वे सत्ता के केंद्र नहीं थे। राजसत्ता ने जिस बौद्धिक धारा को आगे बढ़ाया, उसमें भारत की विरासत, इतिहास, सांस्कृतिक योगदान की बात करना दक्षिणपंथ, पुराणपंथ और यहां तक कि सांप्रदायिक और संकीर्ण माना जाने लगा। बुद्धिजीवियों की फौज ने अध्ययन, चिंतन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पहरेदारी शुरू कर दी। कठोरता के बावजूद शत्रुता की ताकत और प्रकृति प्रतिरोध के सामने देर-सबेर घुटने टेक देती है, पर अपने बीच में ही ज्ञान को परिभाषित कर उसकी धारा निर्धारित कर देना अभिव्यक्ति की आजादी पर सबसे घातक चोट होती है।

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राजनीति को रेगिस्तान बनने नहीं देती है संस्कृति

संस्कृति और राजनीति के बीच आंख-मिचौली चलती रहती है। संस्कृति राजनीति को रेगिस्तान बनने नहीं देती है। आजादी से पूर्व साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन जब अधिकार और अर्थ तक सीमित था, तब राजनीतिक प्रतिभाओं ने संस्कृति का सहारा लिया। महर्षि अरविंद, विपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक जैसे सैकड़ों लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन की जड़ में संस्कृति और विरासत का खाद-पानी दिया। सांस्कृतिक चेतना से राष्ट्रवाद को समृद्ध किया गया। भारत की ज्ञान परंपरा ने कुछ साम्राज्यवादी शासकों को भी प्रभावित किया और उन्होंने भी इसे प्रोत्साहित करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी माना था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

भारत की ज्ञान परंपरा पर काम राष्ट्रवादी उपक्रम है

अब भारत की ज्ञान परंपरा पर काम राष्ट्रवादी उपक्रम माना जा रहा है। ऐसा इसलिए कि इस पर रुकावट के विरुद्ध राजनीतिक अभियान चला, लेकिन वर्तमान परिवेश में कथित दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी छपी-छपाई बातों की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। इसमें खतरा सतही लेखन का है, जो भारत की ज्ञान परंपरा को पहले हुए दमन से कहीं अधिक नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है। विरासत और वर्तमान के बीच पुल बनाने के लिए करिअरवादी मानसिकता से मुक्त विद्वानों की आवश्यकता होती है। यह आसान काम नहीं है। बदली परिस्थिति में अपने अकादमिक व्यवसाय को लोग बढ़ाने के लिए छद्म विद्वानों की फौज विकसित हो जाती है। वे स्वभाव से सतही होते हैं। परिणाम उसी के अनुकूल होता है।

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भारत के समृद्ध लोकतंत्र को 20वीं सदी के आरंभ में कोई मानता नहीं था

भारत में समृद्ध लोकतंत्र था। इसे बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कोई मानने के लिए तैयार नहीं था। तब केपी जायसवाल, जो व्यवसाय से वकील थे, ने यह बीड़ा उठाया। गहन शोध का। पहला लेख कोलकाता से प्रकाशित ‘माडर्न रिव्यू’ में 1913 में प्रकाशित हुआ। इसमे हिंदू राजनीति के विकसित स्वरूप को तथ्यात्मक रूप से दर्शाया गया। उस वक्त रामानंद चटर्जी इस स्तरीय पत्रिका को प्रकाशित करते थे। उन्हें इसके व्यावसायिक लाभ या प्रसार की चिंता नहीं थी। अद्भुत योगदान था। यूरोपीय विद्वान विंसेट स्मिथ ने जायसवाल से इस विषय पर पुस्तक लिखने की सलाह दी। 1924 में पुस्तक प्रकाशित हुई। जायसवाल को क्या मिला? इसका उत्तर वे स्वयं उसकी प्रस्तावना में देते हैं, ‘विषय लोकप्रिय हो गया। इसे स्वीकृति प्राप्त हुई और अपनाया गया।’ उन्हें संतुष्टि मिली कि उनका कार्य ‘उनके नाम को संदर्भ बनाकर या बिना उल्लेख किए उद्धृत किया जा रहा है।’

आठवीं शताब्दी में बौद्ध के महायान परंपरा से जुड़े शांतिदेव की रचना लोकप्रिय हुई। उन्होंने प्राक्कथन में लिखा था, ‘मैं कुछ नया नहीं लिख रहा हूं। जो कुछ भी लिख रहा हूं, वह अपनी संतुष्टि के लिए लिख रहा हूं।’ शांतिदेव और जायसवाल, भारतीय ज्ञान परंपरा, जिसे हम फिर लोकप्रिय करने, स्वीकृति प्राप्त करने और अपनाने के लिए अभी सपने देख रहे हैं, उसके प्रतिनिधि स्वरूप में हैं।

स्वतंत्रता ही रचनात्मकता और विविधता को जीवित रखती है। इसमें तर्क की ताकत उपजती है जो शैक्षणिक परिसर की आत्मा होती है। इसकी उपेक्षा से ताकत का तर्क अपनी जगह बनाना शुरू कर देता है। भारत की ज्ञान परंपरा साध्य न होकर भविष्य के लिए साधन है। इसकी सार्थकता विरासत के महिमामंडन में न होकर उसे संदर्भित करने और नव-रचना को नए संदर्भ में प्रोत्साहित करने में है, जो भौतिकता के कारण बदलती परिस्थितियों में मानव मन को अशांति और उपद्रवी मानसिकता से बचा सके।

जब भारत की ज्ञान परंपरा पर काम राष्ट्रवादी उपक्रम माना जा रहा है। ऐसा इसलिए कि इस पर रुकावट के विरुद्ध राजनीतिक अभियान चला, लेकिन वर्तमान परिवेश में कथित दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी छपी-छपाई बातों की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। इसमें खतरा सतही लेखन का है, जो भारत की ज्ञान परंपरा को पहले हुए दमन से कहीं अधिक नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है।

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