लिव-इन-रिलेशनशिप पर हाई कोर्ट की बड़ी टिप्पणी, मुस्लिम पिता को बच्चे की कस्टडी देने से भी किया इनकार
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने हाल ही लिव-इन-रिलेशनशिप से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान यह माना कि लोग आजकल शादी के बजाय लिव-इन-रिलेशन को ज्यादा तरजीह देना पसंद करते हैं क्योंकि जब हालात बिगड़ते हैं तो यह आराम से संबंधों से निकलने का मौका प्रदान करती हैं।
दरअसल छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट एक मुस्लिम व्यक्ति दायर की गई हेबियस कॉर्पस पेटिशन पर सुनवाई कर रहा था। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, यह याचिका लोअर कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें उसे एक महिला के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में जन्मे बच्चे की कस्टडी देने से इनकार कर दिया था।
याचिका का एक अनुसार, एक मुस्लिम युवक एक हिंदू महिला के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में रहता था। इस कपल को 31 अगस्त 2021 को बच्चा हुआ लेकिन इसके बाद सालभर में दोनों का रिश्ता खराब होने लगा और 10 अगस्त 2023 को महिला याचिकार्ता के घर से अपने बच्चे को लेकर चली गई।
इस वजह से युवक को अपने बच्चे की कस्टडी के लिए फैमिली कोर्ट का रुख करना पड़ा। युवक ने दावा किया कि वो अपने बच्चे का भरण पोषण करने में सक्षम है क्योंकि उसकी कमाई ठीक है। हालांकि कोर्ट ने उसकी याचिका को नामंजूर करते हुए उसे बच्चे की कस्टडी देने से इनकार कर दिया। इसके बाद उसने हाईकोर्ट का रुख किया, जहां सुनवाई के बाद कोर्ट ने कहा कि भारतीय संस्कृति में लिव-इन रिलेशनशिप को अभी भी एक कलंक माना जाता है। हाईकोर्ट ने भी उसकी याचिका खारिज कर दी।
'सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्टेबिलिटी लिव-इन रिलेनशिप में नहीं मिलती'
बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस अग्रवाल की डिविजन बेंच के कहा कि जो सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्टेबिलिटी शादी के जरिए एक व्यक्ति को मिलती है, वो लिव-इन-रिलेशनशिप में कभी नहीं मिलती है।
30 अप्रैल के जजमेंट में बेंच ने ऑब्जर्व किया कि लिव-इन-रिलेशनशिप को शादी के ऊपर इसलिए तवज्जो दी जाती है क्योंकि यह पार्टर्नर्स के बीच स्थिति बिगड़ने पर आसानी से संबंधों से निकलने का मौका प्रदान करती है। अगर कपल ब्रेकअप करना चाहे तो वो दूसरे पक्ष की सहमति और अदालत की लंबी कानूनी औपचारिकताओं को पूरा किए बिना आसानी से अलग हो जाते हैं।
'शादी रूपी रिश्ते का न निभाना सामाजिक कलंक माना जाता है'
कोर्ट ने कहा कि हमारे देश में शादी रूपी रिश्ते का न निभाना सामाजिक कलंक माना जाता है क्योंकि सामाजिक मूल्यों, रीति-रिवाजों, परंपराओं और यहां तक कि कानून ने भी विवाह की स्थिरता सुनिश्चित करने का प्रयास किया है। हालांकि कोर्ट ने यह भी माना कि शादियों में भी समस्याएं आती हैं और शादियों के टूटने पर महिलाओं को ज्यादा समस्याएं होती हैं।
कोर्ट ने यह भी कहा कि शादीशुदा आदमियों के लिए लिव-इन-रिलेशनशिप से निकलना काफी आसान होता है और ऐसे मामलों में कोर्ट ऐसे लिव-इन रिलेशनशिप से निकले लोगों की कमजोर स्थिति और ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चों के लिए अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता।
इस दौरान बेंच ने कहा कि समाज के बारीक निरीक्षण से पता चलता है कि पश्चिमी देशों के कल्चर के प्रभाव की वजह से विवाह रूपी संस्था अब लोगों को पहले की तरह कंट्रोल नहीं करते। इस महत्वपूर्ण बदलाव और वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता ने संभवतः लिव-इन की अवधारणा को जन्म दिया है।