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Lok Sabha Chunav: 303 के बहुमत के साथ बनी थी पहली NDA सरकार, समझिए क्या थे जीत के बड़े फैक्टर

26 जुलाई 1999 को कारगिल का युद्ध खत्म हुआ और लोकसभा के चुनाव कराने में भी काफी देर हो चुकी थी। 5 सितंबर से 3 अक्टूबर तक चुनाव करवाए गए।
Written by: श्‍यामलाल यादव
नई दिल्ली | Updated: May 28, 2024 23:30 IST
पूर्व पीएम अटल बिहार वाजेपेयी और नरेंद्र मोदी। (इमेज- एक्सप्रेस आर्काइव)
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Lok Sabha Chunav 2024: यह कोई हैरानी वाली बात नहीं थी कि पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए ने कारगिल युद्ध के बाद 5 सितंबर से 3 अक्टूबर 1999 के बीच हुए लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल की थी। उस समय एनडीए गठबंधन केवल 20 ही दलों का अलायंस था।

17 अप्रैल 1999 को लोकसभा चुनाव में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान एक वोट की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी के गठबंधन वाली सरकार गिर गई थी। 1999 के चुनावों से पहले कांग्रेस गठबंधन बनाने के बारे में सोचती रही, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 339 सीटों पर चुनाव लड़ा और अन्य सीटें अपने 20 गठबंधन के लोगों को दे दी थी। 13 अक्टूबर 1999 को जब वाजपेयी ने तीसरी बार पीएम के रूप में शपथ ली थी, तब तक बीजेपी नेताओं की अगली पीढ़ी ने लाइमलाइट के लिए अपने पंख बदल लिए थे।

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इसके बाद जुलाई 2002 में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ और बीजेपी ने मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम के रूप में एक तुरुप का इक्का निकाला। कलाम की उम्मीदवार की वजह से बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। इससे पहले शरद पवार सोनिया गांधी पर उंगली उठाने की वजह से 20 मई 1999 को दो अन्य नेताओं के साथ कांग्रेस पार्टी से निकाले गए। उन्होंने बाद में नई पार्टी एनसीपी बनाई। 1998 के चुनावों में सोनिया गांधी की भूमिका केवल प्रचार अभियान करने तक ही सिमट कर रह गई थी। कांग्रेस पार्टी ने उस समय 1999 के इलेक्शन में 543 सीटों में से 453 सीटों पर चुनाव लड़ा। हालांकि, पार्टी की सीटें काफी कम आईं, लेकिन कांग्रेस ने धीरे-धीरे अपने आप को काफी मजबूत किया और 2004 में भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर दी।

वोटिंग और काउंटिग

26 जुलाई 1999 को कारगिल का युद्ध खत्म हुआ और लोकसभा के चुनाव कराने में भी काफी देर हो चुकी थी। 5 सितंबर से 3 अक्टूबर तक चुनाव करवाए गए। देश के आजाद होने के बाद पहली बार साल 1998 में आठ फेज में चुनाव का कार्यक्रम घोषित किया गया। इनमें से केवल तीन फेज में कुल मिलाकर चार ही सीटों पर वोटिंग थी। इसको पांच फेज का चुनाव कहना ज्यादा मुनासिफ रहेगा। वोटों की गिनती 6 अक्टूबर 1999 को शुरु हुई और अगले कुछ दिनों में नतीजे घोषित किए गए।

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इस इलेक्शन में करीब 61.95 करोड़ वोटर्स थे और करीब 37.16 करोड़ लोगों ने वोटिंग की। इनमें से 27.57 करोड़ महिलाएं थी। चुनाव में करीब 4,648 उम्मीदवार मैदान में थे और सबसे ज्यादा प्रत्याशी उत्तर प्रदेश के गोंडा से मैदान में थे। भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर गोंडा से जीत दर्ज की। 284 महिला उम्मीदवारों में से 49 ने बाजी मारी।

12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन को गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट से कांग्रेस पार्टी ने टिकट दिया और यहां पर उनका मुकाबला लालकृष्ण आडवाणी से था। हालांकि, पूर्व नौकरशाह को करारी हार का सामना करना पड़ा। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी बलिया से बाजी मारी। यहां पर एसपी ने उनके खिलाफ कोई भी उम्मीदवार नहीं उतारा था। वाजपेयी अपनी लखनऊ की लोकसभा सीट बरकरार रखने में कामयाब रहे और मुरली मनोहर जोशी इलाहाबाद से जीते।

1998 के चुनाव स्वतंत्र भारत में नेहरू-गांधी परिवार से किसी भी बड़े उम्मीदवार के बिना होने वाले पहले चुनाव थे, सिवाय मेनका को छोड़कर क्योंकि वह यूपी के पीलीभीत से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीतीं। 1999 के चुनावों में राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश के अमेठी से चुनावी शुरुआत की और जीत हासिल की।

कांग्रेस पार्टी की घटी सीटें

भाजपा ने इस बार भी 182 सीटें जीतकर 1998 का ​​अपना आंकड़ा दोहराया। वहीं, कांग्रेस पार्टी की हिस्सेदारी 1998 में घटकर 141 में से कुल 114 तक ही सिमट कर रह गईं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 33 सीटें, तेलुगु देशम पार्टी (TDP) ने 29, सपा ने 26, जनता दल (United) ने 21, शिवसेना ने 15, बहुजन समाज पार्टी ने 14, डीएमके ने 12, एनसीपी ने 8 सीटें और ममता बनर्जी की टीएमसी ने भी आठ सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं राष्ट्रीय जनता दल और सीपीआई के खाते में चार-चार सीटें आईं।

उत्तर प्रदेश के नतीजे भाजपा के लिए चौंकाने वाले रहे, जहां वाजपेयी और मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बीच अहंकार के टकराव ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया। राज्य की 85 सीटों में से पार्टी का हिस्सा पिछले चुनाव के 58 के मुकाबले इस चुनाव में घटकर 29 रह गया। इसके बावजूद वाजपेयी अपने गठबंधन के लिए 303 सीटें जुटाने में काफी हद तक कामयाब रहे।

युद्ध के बाद की चमक तब फीकी पड़ गई जब बीजेपी को कई शर्मनाक घटनाओं का सामना करना पड़ा। 2001 में अंडरकवर पत्रकारों ने एक स्टिंग ऑपरेशन करने का फैसला किया। इसका समापन उस समय हुआ जब एससी कैटेगरी से भाजपा के पहले प्रमुख बंगारू लक्ष्मण को पार्टी मुख्यालय में अपने चैंबर में फर्जी रक्षा सौदे में मदद के बदले में कथित तौर पर 1 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए कैमरे में देखा गया। हंगामा तब जाकर खत्म हुआ जब उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह जेना कृष्णमूर्ति को नियुक्त किया गया। उससे पहले देश में तीन नए राज्य भी बनाए गए थे। इनमें उत्तरांचल से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड बने और बिहार से झारखंड बना और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ का गठन हुआ।

इस बीच कुछ राजनयिकों के साथ एक मीटिंग के दौरान आरएसएस द्वारा नियुक्त भाजपा के महासचिव केएन गोविंदाचार्य ने कथित तौर पर वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा कहा और कहा कि असली नेता पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी हैं। वाजपेयी की आलोचना करने की वजह से उनको पार्टी से निकाल दिया गया। हालांकि, गोविंदाचार्य ने शुरू में दावा किया कि वह आम आदमी पर ग्लोबेलाइजेशन के हुए असर की स्टडी करने के लिए छुट्टी ले रहे हैं, लेकिन वे कभी भी बीजेपी में वापस नहीं आए। उनका बचाव आडवाणी और आरएसएस ने भी नहीं किया। वाजपेयी के साथ इसी तरह के टकराव की वजह से कल्याण सिंह को भी हटा दिया गया। उनकी जगह पर राम प्रकाश गुप्ता को लाया गया। बाद में राजनाथ सिंह ने गुप्ता की जगह ले ली और अक्टूबर 2001 से मार्च 2002 तक यूपी के सीएम रहे।

नरेंद्र मोदी के लिए सीएम की कुर्सी खाली करने के लिए कहा गया

अक्टूबर 2001 में संगठन में एक और बड़ा फेरबदल हुआ। गुजरात के तत्कालीन सीएम बीजेपी के केशुभाई पटेल को नरेंद्र मोदी के लिए पद छोड़ने के लिए कहा गया। बीजेपी में गुजरात इकाई के तत्कालीन महासचिव संजय जोशी ने मोदी की जगह महासचिव का पद संभाला। यह पद आरएसएस के प्रचारकों के पास होता है। कांग्रेस पार्टी भी सोनिया के खिलाफ उठी आवाज को दबाने की कोशिश में थी। सोनिया गांधी ने मार्च 1998 में सीताराम केसरी के बाद पार्टी अध्यक्ष का पद संभाला था। केसरी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस में उनके सबसे बड़े आलोचक भारतीय वायु सेना के पूर्व अधिकारी राजेश पायलट और पूर्व प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव के राजनीतिक सलाहकार तथा भाजपा नेता जितिन प्रसाद के पिता जितेंद्र प्रसाद थे।

2000 के आखिर में पार्टी अध्यक्ष के लिए चुनाव होने वाले थे और पायलट और प्रसाद दोनों ने ही इस पद पर अपनी नजरें गड़ाई हुईं थी। जून 2000 में एक सड़क हादसे में पायलट का निधन हो गया। वहीं प्रसाद ने सोनिया के खिलाफ चुनाव लड़ा और उन्हें केवल 94 वोटों से ही संतोष करना पड़ा। अपने पक्ष में 98 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर सोनिया गांधी ने पार्टी और इसकी राजनीति पर अपना असर डाला। जनवरी 2001 में प्रसाद का भी निधन हो गया।

राष्ट्रपति पद की कुर्सी पर नजर गड़ाए बैठे सभी अनुभवी राजनेताओं को किनारे करने के लिए बीजेपी ने अचानक से देश के मिसाइल मैन कलाम का नाम आगे कर दिया। विपक्ष ने सुभाष चंद्र बोस की पूर्व सहयोगी कैप्टन लक्ष्मी सहगल का नाम आगे बढ़ाया। सपा के मुलायम सिंह यादव और एनसीपी के शरद पवार के समर्थन से कलाम ने दौड़ जीत ली। उपराष्ट्रपति पद के लिए पहली बार भाजपा नेता भैरों सिंह शेखावत 2002 में चुने गए। साल 2002 में बीजेपी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को उनके समर्थन का मुलायम सिंह यादव को काफी फायदा मिला। जब अगस्त 2003 में बसपा-भाजपा सरकार गिर गई तो भाजपा के साथ एक समझौते की वजह से सपा नेता ने 29 अगस्त 2003 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

1952 में भारतीय जनसंघ की स्थापना के समय से सक्रिय बीजेपी का नेतृत्व बूढ़ा होता जा रहा था, जबकि अगली पीढ़ी राज्यों और केंद्र में अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रही थी। गुजरात 2002 में मुख्यमंत्री मोदी, मध्य प्रदेश 2003 में मुख्यमंत्री उमा भारती और राजस्थान 2003 में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की जीत से लगातार पार्टी का मनोबल काफी बढ़ गया। परिसीमन भी काफी जरूरी हो गया था। जुलाई 2002 में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस कुलदीप सिंह के नेतृत्व में परिसीमन आयोग का गठन किया। इस बीच फरवरी 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। इसकी वजह से पार्टी के अंदर मोदी की कड़ी आलोचना हुई।

मोदी के सबसे बड़े आलोचक शांता कुमार

मोदी के सबसे बड़े आलोचकों में से एक हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार थे। हालांकि, अप्रैल 2002 में गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एम वेंकैया नायडू और अरुण जेटली सहित दूसरी पीढ़ी के नेताओं ने मोदी की आलोचना करने वाले नेताओं की कड़ी आलोचना की थी। जुलाई 2002 के राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले हुई गोवा बैठक के बाद बीजेपी प्रमुख जेना कृष्णमूर्ति की जगह नायडू को नियुक्त किया गया।

कांग्रेस जब अपनी विचारधारा से मिलती जुलती पार्टियों के साथ अलायंस करके अगले आम चुनाव की तैयारी करने में लगी हुई थी। वह बीजेपी अपनी जीत को लेकर काफी आश्वस्त थी। 29 जनवरी 2003 को प्रमोद महाजन को वाजपेयी के मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया। ऐसा इस वजह से किया गया था ताकि वे नायडू को 2004 में आम चुनाव की तैयारी में मदद कर सकें।

चुनाव सितंबर-अक्टूबर 2004 में होने थे, लेकिन युवा भाजपा नेताओं ने वाजपेयी को चुनाव समय से पहले कराने के लिए राजी कर लिया और दावा किया कि पार्टी के जीतने के लिए यह सही समय है। युवा लोगों को यकीन था कि उनका इंडिया शाइनिंग कैंपेन लोगों के बीच पार्टी के फील-गुड फैक्टर के साथ मिलकर उनकी आसान जीत तय कर देगा। इसी आत्मविश्वास की वजह से वाजपेयी ने लोकसभा को उसके कार्यकाल के खत्म होने से 6 महीने पहले ही भंग कर दिया। इसकी वजह से अप्रैल-मई 2004 में चुनाव होने की नौबत आ गई।

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