Blog: अमेरिका और चीन का व्यापार संघर्ष, दूसरे मुल्कों के सामने भी खड़ी हो रहीं चुनौतियां
बीते दिनों अमेरिका के जो बाइडेन प्रशासन ने चीनी वस्तुओं पर करों की दरें काफी बढ़ा दीं। इससे चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध बढ़ गया है। अमेरिका ने इसे चीन की गलत वैश्विक नीतियों का परिणाम बताया है। उसने कहा है कि चीन अपनी घरेलू आर्थिक समस्याओं को पूरे विश्व तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा है, जो कि अनुचित है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सर्वविदित है कि चीन और अमेरिका की पारस्परिक लेने-देन में चीन हमेशा आगे रहा है।
2022 में अमेरिका का चीन से आयात 562 अरब डालर का था
आंकड़ों के मुताबिक 2022 में अमेरिका का चीन से आयात 562 अरब डालर का था, जबकि निर्यात मात्र 195 अरब डालर। यानी तब अमेरिका का चीन के साथ व्यापारिक घाटा 367 अरब डालर का था। इसे लेकर चर्चा आम रही कि अमेरिका आखिर चीन पर क्यों निर्भर है? बाद में इस पर नियंत्रण करने की कोशिश जरूर की गई, जिसके चलते वर्ष 2023 में चीन के साथ व्यापारिक घाटा घट कर 279 अरब डालर तक पहुंचा, मगर अब भी यह अमेरिका के लिए एक समस्या है।
इस बार अमेरिका के निशाने पर चीन है
अमेरिका में इस वर्ष चुनाव होने हैं। अक्सर देखा गया है कि अमेरिका चुनावी वर्ष में दूसरे मुल्कों को लक्षित करके अपनी आर्थिक नीतियों में बदलाव करता है। मसलन, बीते कई चुनावों में भारत को लेकर ‘आउटसोर्सिंग’ का मुद्दा चर्चा में रहा, इस दफा उसके निशाने पर चीन है। उसने चीन से कुछ विशेष पदार्थों के आयात कर में बहुत वृद्धि कर दी है, जिनमें स्टील, बिजली चालित वाहन, बैटरियां, सोलर सेल, चिकित्सा उपकरण और कुछ खनिज संपदा आदि शामिल हैं। स्टील पर कर 7.5 फीसद से बढ़कर 25 फीसद, सेमीकंडक्टर पर 25 से बढ़कर 50 फीसद कर दिया गया।
सबसे अधिक अधिक बिजली चालित वाहन पर कर 25 से बढ़ा कर 100 फीसद कर दिया गया है। इसके अलावा, कुछ खनिज संपदाओं जिनमें ग्रेफाइट और मैग्नेट आदि शामिल हैं, पर कर पहले नहीं लगता था, पर 2026 से इनको 25 फीसद की सीमा में ला दिया गया है। राष्ट्रपति पद के अन्य दावेदार डोनाल्ड ट्रंप ने भी कहा है कि वे अमेरिका के सभी प्रकार के आयात पर दस फीसद की दर से कर बढ़ा देंगे, ताकि अमेरिका हमेशा सुरक्षित रहे। अगर अमेरिका में ट्रंप ऐसा करते हैं, तो भारत पर भी विपरीत असर पड़ेगा, क्योंकि भारत का अमेरिका के साथ निर्यात तकरीबन 25 अरब डालर के बराबर है।
दरअसल, चीन अब अमेरिका के लिए ही नहीं, विश्व की दूसरी सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए समस्या बनता जा रहा है। इसके पीछे चीन का आर्थिक ढांचा मुख्य कारण है, जो पूरी तरह निर्यात पर निर्भर है। चीन की आर्थिक नीतियों में पिछले दो-तीन दशक से इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाता है कि वहां के सभी कारखाने सौ फीसद क्षमता के आसपास का उत्पादन करें। बीते कई वर्षों से चीन में घरेलू मोर्चे पर नागरिकों की उपभोग क्षमता जीडीपी की तुलना में विश्व के सभी बड़े विकसित मुल्कों में सबसे कम है। यानी चीनी उद्यमों में तैयार पदार्थों की मांग खुद चीन में बहुत कम है, इसलिए चीन को इन्हें विश्व के दूसरे मुल्कों में खपाना पड़ता है। चीन की गलत आर्थिक नीति यह है कि वह इन्हें कम मूल्य पर दूसरे मुल्कों को निर्यात करता है, ताकि उन मुल्कों का घरेलू बाजार इन पदार्थों के सामने प्रतिस्पर्धा में खड़ा ही न हो पाए।
इसी सोच के चलते विश्व के 173 मुल्कों के साथ चीन का व्यापार मुनाफे में रहता है। मात्र पचास के आसपास मुल्कों के साथ चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घाटा होता है। इन पचास मुल्कों से बहुतायत में कच्चे तेल की खरीदारी या अफ्रीकी मुल्कों तथा मंगोलिया जैसे राष्ट्रों से बड़ी मात्रा में कच्चे माल की खरीदारी है। इस संदर्भ में गौरतलब है कि वर्ष 2022 में चीन का अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मुनाफा 890 अरब अमेरिकी डालर का था, जबकि उस दौरान भारत का कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार, जिसमें आयात और निर्यात दोनों सम्मिलित हैं, 964 अरब डालर का था, जबकि दोनों मुल्क जनसंख्या और कुछ अन्य परिस्थितियों में तकरीबन एक जैसे हैं।
चीन की आर्थिक नीतियों में वैश्विक स्तर पर कोई समानता और एकरूपता नहीं दिखती है। मसलन, चीन का अपनी आर्थिक नीतियों में सिर्फ इस बात पर ध्यान केंद्रित रहता है कि जनता के पास कम से कम वित्तीय तरलता बनी रहे। कोरोना के दौरान विश्व के सभी बड़े मुल्कों ने प्रति व्यक्ति उपभोग क्षमता को बनाए रखने के लिए बैंक दरों में कमी तथा वित्तीय ऋण की मात्रा बढ़ाकर अपने नागरिकों की खरीदारी के प्रति रुचि को बनाए रखा था। मगर चीन ने इसके विपरीत किया। बीते कुछ वर्षों से चीन में जमीन-जायदाद का कारोबार नकारात्मक दौर से गुजर रहा है। कई भवन निर्माण परियोजनाएं बंद हो गई हैं, जिसके चलते कई वित्तीय संस्थान दिवालिया घोषित हो गए हैं। यह भी देखा गया है कि पिछले कई वर्षों से लगातार चीन में प्रति व्यक्ति उपभोग क्षमता में वृद्धि नहीं हो रही है, जबकि व्यक्तियों के पास वित्तीय बचत उपलब्ध है। शायद इन्हीं के चलते चीन अब कुछ भयभीत है।
अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने चीन के विरुद्ध यह कदम एकाएक नहीं उठाया है। बीते कुछ समय में वैश्विक स्तर पर चीन की आर्थिक नीतियों की मुखालत बड़े स्तर पर देखने को मिली है। बीते अप्रैल में जर्मनी के राष्ट्रपति ने अपनी चीन की यात्रा के दौरान इस बात को बड़ी मुखरता से रखा कि चीन की उत्पादन क्षमता प्रशंसनीय है, लेकिन इसके चलते विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता कमजोर नहीं पड़नी चाहिए, अन्यथा इसका नुकसान सभी को उठाना पड़ेगा। चीन ने बीते एक दशक में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को बड़ी तेजी से अपने विनिर्माण क्षेत्र में शामिल किया है। इसी के चलते उसने अपना सारा ध्यान बिजली चालित वाहन, सौर ऊर्जा संयंत्र आदि बनाने पर लगा दिया। देखने को मिला है कि चीन की विभिन्न मोबाइल उत्पादक कंपनियां भी बिजली चालित वाहनों के निर्माण में उतर रही हैं।
चीन की इन आर्थिक नीतियों के चलते विश्व के सभी बड़े विकसित मुल्क आशंकित हैं, क्योंकि उन्होंने खुद के आधारभूत ढांचे में पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर आमूलचूल परिवर्तन किए हैं और सभी घरेलू मोर्चों पर वे अपनी मांग को खुद ही पूरा करना चाहते हैं, पर चीन के चलते उन्हें अब यह संभव होता नहीं दिख रहा। ऐसा लग रहा है कि वैश्वीकरण के दौर में मुक्त व्यापार क्षेत्र के चलते चीन के उत्पादों की जोरदार आपूर्ति उनके घरेलू बाजार को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। तकरीबन एक दशक पूर्व इसी तरह चीनी फर्नीचर की अमेरिकी बाजार में एकाएक आपूर्ति बढ़ गई थी, जिसके चलते अमेरिका के घरेलू फर्नीचर बाजार में 1.5 लाख अमेरिकी बेरोजगार हुए थे, जिसे बाद में ट्रंप ने अपनी आर्थिक नीतियों में शामिल किया और उन्हें अपना मतदाता बनाया था।