Blog: आजादी के 75 साल बाद भी असमानता के धरातल पर भारत की महिलाएं, आंकड़े दे रहे गवाही
इक्कीसवीं सदी में महिलाओं की स्थिति में अनेक बदलाव हुए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, सार्वजनिक क्षेत्र, विभिन्न प्रकार के रोजगार अवसर आदि में महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। मगर महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या में भी दोगुनी-तिगुनी वृद्धि हुई है। क्या यह कहा जा सकता है कि महिलाओं की प्रगति और उनके विरुद्ध होने वाले अपराधों की दर में कोई सकारात्मक सहसंबंध है, क्योंकि महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता, निर्णय लेने की स्वतंत्रता, आर्थिक स्वायत्तता, संपत्ति में समान अधिकार, जैसे पक्ष ने पितृसत्तात्मक समाज के सामने चुनौती को उत्पन्न किया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक में समता का अधिकार अधिनियम के तहत लैंगिक आधार पर भेदभाव न किए जाने को अनिवार्य बताया गया है। इसलिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्त्व में महिला सुरक्षा, सम्मान, विकास और भेदभाव से बचाव के प्रावधान सम्मिलित किए गए हैं। संविधान महिलाओं को न सिर्फ समानता का अधिकार देता, बल्कि सभी राज्यों को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक प्रावधान करने का भी निर्देश देता है। संविधान लागू होने के इतने वर्षों के बाद भी जब लैंगिक अंतर रपट जारी होती है, तो कुछ और ही सच्चाई सामने आती है।
विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल ही में जारी वैश्विक लैंगिक अंतर रपट 2024 में 146 देशों की सूची में भारत 129वें स्थान पर पहुंच गया है, जबकि पिछले साल यह 127वें स्थान पर था। सोचने का विषय है कि आखिर ऐसे कौन से मुद्दे हैं, जो यह अंतर घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है। शुरुआती दौर में लेखिका मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने सामाजिक ढांचे की आलोचना करते हुए कहा था कि स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया, वे सार्वजनिक जीवन में भी अनुपस्थित रहती हैं, अत: स्त्रियों को तार्किक मनुष्य मानते हुए स्त्री-पुरुष में बुनियादी समानता स्थापित करने के प्रयास करने चाहिए। वहीं जान स्टुअर्ट मिल भी स्त्री अधिकारों का समर्थन करते हुए कहते हैं कि स्त्री-पुरुष का संबंध आधिपत्य के बजाय सहयोग पर आधारित होना चाहिए। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा, नागरिकता तथा संपत्ति में समान अधिकार का भी समर्थन किया। इसमें कोई दो राय नहीं कि समाज की आधी आबादी होने के बावजूद महिलाएं हमेशा से मूलभूत अधिकारों से वंचित रही हैं। इक्कीसवीं सदी में महिलाओं की स्थिति में अनेक बदलाव हुए हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, सार्वजनिक क्षेत्र, विभिन्न प्रकार के रोजगार अवसर आदि में महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। मगर यह भी तथ्य है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या में भी दोगुनी-तिगुनी वृद्धि हुई है। क्या यह कहा जा सकता है कि महिलाओं की प्रगति और उनके विरुद्ध होने वाले अपराधों की दर में कोई सकारात्मक सहसंबंध है?
दरअसल, महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता, निर्णय लेने की स्वतंत्रता, आर्थिक स्वायतत्ता, संपत्ति में समान अधिकार, ऐसे पक्ष हैं, जिन्होंने पितृसत्तात्मक समाज के सामने चुनौती को उत्पन्न किया है। सामान्य भाषा शिक्षण में जब तक अक्षरों से बनने वाले शब्दों का सिरा फल-फूल आदि से जुड़ता है तो उसे सहजता से ग्रहण किया जाता है, लेकिन अगर ऐसे शब्द महिलाओं के अधिकार और चेतना को केंद्र में रखते हैं, तब उसके प्रति रुख सकारात्मक नहीं रहता। इससे स्पष्ट होता है कि जब तक महिलाएं दमन और आधिपत्य को स्वीकार करती हैं, तब तक वे सभ्य और संस्कारी मानी जाती हैं और जैसे ही वे अपने अधिकार या अपने विरुद्ध होने वाले दुर्व्यवहार के लिए आवाज उठाती है उन पर ही अंगुली उठा दी जाती है।
विश्व आर्थिक मंच की रपट के अनुसार भारत उन देशों में शामिल है जहां आर्थिक लैंगिक समानता सबसे कम है। यानी यहां अनुमानित अर्जित आय में तीस फीसद से कम लैंगिक समानता दर्ज की गई है। पिछले वर्ष के 127वें स्थान से 129वें स्थान पर गिरावट का कारण शैक्षिक उपलब्धि और राजनीतिक सशक्तीकरण में आई कमी को माना गया है। भारत महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में 65वें स्थान पर है और श्रमबल भागीदारी दर के मामले में 134वें और समान काम के लिए समान वेतन के स्तर पर 120वें स्थान पर है, जो पुरुषों और महिलाओं के बीच आर्थिक असमानताओं को दर्शाता है। अगर इसी गति से समानता की ओर बढ़ते रहे तो पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने में लगभग 134 साल और लगेंगे, जो कि समग्र विकास की राह में बड़ी बाधा बन सकता है।
देखा जाए तो महिलाओं के प्रति समाज के दृष्टिकोण में अंतर उदाहरण प्राचीन काल से ही मिलते हैं। समय के कालखंड में लिखी रचनाओं में भी पुरुषों और महिलाओं के जीवन में असमानता को स्थापित करने वाले कई आख्यान रचे गए। महिलाओं ने हमेशा अपने अधिकार छोड़े और त्याग किया, लेकिन ऐसा उदाहरण शायद इतिहास में नहीं मिलेगा, जिसमें पुरुषों ने महिलाओं के लिए कोई त्याग किया हो। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि लैंगिक असमानता सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा रही है। हां, इतना जरूर है कि पहले महिला अपने अधिकार नहीं जानती थी और न ही उनके विरुद्ध आवाज उठाती थी, लेकिन आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर महिला अपने अधिकारों के लिए और उनके हनन के खिलाफ आवाज उठाने लगी है। अपने प्रति हुए गलत आचरण पर चुप्पी साधने की प्रवृत्ति अब टूटने लगी है।
समाज की अनेक घटनाएं पुरुष सत्तात्मक समाज के विरोधाभासी चरित्र को उजागर करती हैं। मसलन, विवाह के लिए जीवन साथी का चयन करते समय तो धर्म और जाति को बहुत महत्त्व दिया जाता है, उसी तरह किसके हाथ का बना खाना खाना है और किसके हाथ का नहीं, यह भी ध्यान रखा जाता है, लेकिन महिला के साथ दुर्व्यवहार या शारीरिक शोषण करते समय इनमें से किसी भी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस धर्म या जाति की है, या किस आयु की है। ऐसा क्यों। महिलाओं के साथ हिंसा या शोषण के मामलों में पवित्रता-अपवित्रता के मूल्य हाशिए पर क्यों चले जाते हैं। अगर समाज में परिवर्तन की दर यही रही, तो रपट में सामने आए आंकड़ों के अनुसार महिलाओं और पुरुषों में समानता लाने के लिए अभी 134 साल और लगेंगे।
पहले ही बहुत देर हो चुकी है। लैंगिक असमानता के कारण समाज अनेक जोखिमों से घिरा हुआ है। अब और देर करने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। स्वामी विवेकानंद उन शास्त्रों की आलोचना करते हैं, जो स्त्रियों को ज्ञान प्राप्ति की अधिकारिणी नहीं मानते। उनका मानना था कि देश की संपन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि स्त्री-पुरुष के साथ समानता का व्यवहार किया जाए। स्त्री भी उतनी ही साहसी होती है, जितना कि पुरुष। इसलिए वे मानते थे कि नारी को भी योग्य, सक्षम और कामकाजी बनाना आवश्यक है, क्योंकि देश के आर्थिक विकास में दोनों के उत्तरदायित्व समान हैं। कहा जा सकता है कि महिलाओं को राजनीतिक अधिकार दिए बिना सामाजिक व्यवस्था में सुधार संभव नहीं हो सकता और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव हुए बिना उनका आर्थिक सशक्तीकरण सही अर्थों में आकार नहीं ले सकता। इन सबको वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए गांधीजी के सुझाव पर अमल करना जरूरी है कि समाज का सकारात्मक परिवर्तन व्यक्ति के हृदय परिवर्तन से ही संभव है।