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Heeramandi: लाहौर, मुसलमान और तवायफ… हीरे की तरह तराशा और पॉलिटिकल मैसेज भी दे गए भंसाली

Heeramandi: संजय लीला भंसाली की यहां तारीफ बनती है कि उन्होंने तवायफों की दुनिया को भी एक सम्मान वाले नजरिए से दिखाया है।
Written by: Sudhanshu Maheshwari
नई दिल्ली | Updated: May 04, 2024 15:29 IST
heeramandi  लाहौर  मुसलमान और तवायफ… हीरे की तरह तराशा और पॉलिटिकल मैसेज भी दे गए भंसाली
Heeramandi और संजय लीला भंसाली की फिल्मी सियासत
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संजय लीला भंसाली की हीरामंडी ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए एक नया अध्याय लेकर आई है। जिस बजट और ग्रैंड स्केल का काम सिनेमा के पर्दे पर देखने को मिलता है, वो अनुभव भंसाली ने अब लोगों को उनकी फोन की स्क्रीन पर करवाने का काम किया है। हर तरफ इस सीरीज की जमकर तारीफ हो रही है, टिपिकल भंसाली फिल्म बताकर इसे संबोधित किया जा रहा है। किसी को कास्ट पसंद आ रही है, किसी को कॉन्सेप्ट में दम लगा है तो कोई बस भंसाली का बड़ा फैन बन ये सीरीज देख रहा है।

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भारत-पाकिस्तान की एकता वाला संदेश

लेकिन इस हीरामंडी का एक और बड़ा पहलू है जो कई लोग मिस कर गए हैं। चुनावी मौसम में संजय लीला भंसाली की हीरामंडी के जरिए एक तगड़ी पॉलिटिकल मैसेजिंग देखने को मिली है। पाकिस्तान का जिक्र होना, मुसलमान किरादरों के इर्द-गिर्द कहानी का घूमना और आजादी की जंग, ये तीनों वो पहलू हैं जो 2024 के लोकसभा चुनाव में भी मुद्दा बन चुके हैं। किसने सोचा था कि संजय लीला भंसाली तवायफों की कहानी के जरिए भारत-पाकिस्तान की एकता का संदेश भी दे जाएंगे।

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भारत की वर्तमान राजनीति को हीरामंडी की चुनौती

एक इंटरव्यू में भी भंसाली कह चुके हैं कि भारत और पाकिस्तान तो एक ही हैं, उन्हें किसी विवाद से परवाह नहीं, उन्हें पड़ोसी मुल्क से भी काफी प्यार मिला है। अब जिस देश में सिर्फ इसलिए राहुल गांधी को निशाने पर लिया जा रहा है कि एक पाकिस्तानी नेता ने उनकी तारीफ कर दी, यहां भंसाली की सीरीज ने तो उस मुल्क के आजादी में दिए गए योगदान का पूरी तरह बखान किया है। माना आजादी से पहले कोई पाकिस्तान नहीं था, पूरा देश एक था, लेकिन समय के साथ तनाव और नफरत की दीवारें इतनी ऊंची हो चुकी हैं कि उस सत्य को कोई भी अब स्वीकार नहीं करना चाहता है। भारत की राजनीति के लिए पाकिस्तान का मतलब सिर्फ आतंकवाद, आतंकवाद और आतंकवाद है।

अब उसी परिभाषा को तोड़ने का काम संजय लीला भंसाली की हीरामंडी ने किया है। कहने को भारत में भी कई रेड लाइट एरिया हैं, यहां की कई तवायफों ने भी भारत की आजादी में अपना योगदान दिया है, लेकिन भंसाली को पसंद आई हीरामंडी की कहानी। ये सीरीज सत्य घटनाओं पर आधारित होने का दावा नहीं करती है, लेकिन हीरामंडी एक रेड लाइट एरिया है, ये एक बड़ा सच है। वहां की तवायफों ने आजादी की लड़ाई लड़ी, ये दूसरा सच है। अब बस ड्रामा, कहानी और उतार-चढ़ाव दिखाने के लिए कुछ काल्पनिक किरदार और घटनाओं को जोड़ दिया गया है, लेकिन नींव एक सच्चाई पर आधारित है।

तवायफों की असल दुनिया, घिसी-पिटी बॉलीवुड सोच छूटी पीछे

वैसे बात जब सच्चाई की आती है, भंसाली ने एक बड़ा काम बॉलीवुड के लिए कर दिया है, कहना चाहिए उन्होंने आईना दिखाने का काम किया है। ये हिंदी सिनेमा की बदकिस्मती ही है कि आज तक जब भी फिल्मों में कोठों का जिक्र हुआ, एक ही तरह की कहानी और आधी-अधूरी सच्चाई परोसी गई। या तो कोई लड़की हालातों से हारकर इस धंधे में आती है, या कोई उसे बेचने का काम करता है। कुछ क्रांतिकारी दिखाने का विचार आ जाए तो पुरुष समाज ही उन महिलाओं की रक्षा करने का काम करता है? यानी कि या तो बेबसी की वजह से किसी ने वेश्यावृत्ति में आने का फैसला लिया या फिर किसी को वेश्यावृत्ति करने पर मजबूर किया गया। दोनों ही संदर्भ में महिलाओं की इच्छा की कोई इज्जत नहीं, उनके हां-ना से दूर-दूर तक नाता नहीं।

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लाचार-बेबस नहीं, सशक्त और क्रांतिकारी तवायफ!

कई साल पहले एक फिल्म आई थी- प्यासा, उसमें गुलाबो को उसके बॉयफ्रेंड ने धोखा दिया और उस समाज ने उसे स्वीकार करने से ही मना कर दिया। दूसरी फिल्म- पकीजा, एक तवायफ को प्यार हुआ, उसने अपने पसंद के लड़के से इश्क किया, लेकिन उस लड़के ने परिवार के सम्मान के आगे उसे ठुकरा दिया। इन सभी किरदारों में बेबसी है, दर्द है और उन्हें सिर्फ नाच-गाने तक सीमित कर दिया गया है। हैरानी की बात है कि इतने सालों बाद भी बॉलीवुड जब तवायफ के बारे में सोचता है, उसे सिर्फ पैरों में घुंगरू, अनारकली सूट, मेहफिल और शराब के नशे धुत कुछ रईसजादे याद आते हैं। लेकिन संजय लीला भंसाली ने हीरामंडी के जरिए वो बदल दिया है, कहना चाहिए उन्होंने उस पूरी दुनिया का एक अलग नजरिया दिखा दिया है। कालापन तो उन किरदारों की जिंदगी में भी है, लेकिन वो सिर्फ अपना जिस्म बेचने वाली महिलाएं नहीं हैं, वो सशक्त हैं, वो अपने उसूलों पर चलती हैं, वो फर्जी मर्दांगी दिखाने वाले मर्दों को उनकी 'औकात' दिखाना जानती हैं।

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सच का आईना हीरामंडी के ये 'प्रयोग'

हीरामंडी में जितनी भी तवायफ दिखाई गई हैं, वो बड़े मेहलों में रहती हैं, रानियों जैसे उनके ठाट बाट हैं। उनकी इच्छा के बिना तो ना कोई मेहफिल सज सकती है और ना ही कोई उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर सकता है। हीरामंडी में मलिल्काजान का किरदार मनीषा कोइराला निभा रही हैं, उन्हें हर कोई 'हुजूर' कहकर संबोधित करता है। ये अपने आप में पहला संदेश है कि बेबसी की कोई जगह नहीं, समझौता करने का सवाल नहीं। अगर ध्यान से सीरीज को देखा जाए, ये बात भी पकड़ में आती है कि हीरामंडी की तवायफ अपने 'नवाब' खुद चुन रही हैं, यहां पैसों के नाम पर किसी को भी जबरदस्ती थोपा नहीं जा रहा है।

संजय लीला भंसाली की यहां तारीफ बनती है कि उन्होंने तवायफों की दुनिया को भी एक सम्मान वाले नजरिए से दिखाया है। उनकी जिंदगी सिर्फ काली नहीं होती है, सिर्फ दर्द वाली नहीं होती है, इस बात का अहसास भी हीरामंडी ही करवाती है। इसके ऊपर भंसाली ने सिर्फ इन महिलाओं को 'सेक्स वर्कर' तक सीमित नहीं रखा है, उनकी जिंदगी की अधूरी इच्छाएं, कोठों के अंदरखाने चलने वाली साजिशों की परत को भी बखूबी दर्शकों के सामने रखा है। कहना पड़ेगा ये पहलू भी इस खूबसूरती के साथ भंसाली ही दिखा सकते थे।

बीजेपी की 'मुस्लिम पॉलिटिक्स' को चोट करती हीरामंडी

हीरामंडी का एक और सेगमेंट काफी ध्यान खीचता है, वो है- मुसलमान। हीरामंडी में किरदारों के नाम देखिए- मल्लिकाजान, बेबो जान, फरीदन, आलमजेब, वहीदा, जुल्फिकार, जोरावर। यहां भी बेबो जान का किरदार निभा रहीं आदिति राव हैदरी तो एक क्रांतिकारी निकलीं जिसने अपने अपने धंधे से कमाए पैसों का इस्तेमाल भी देश को आजाद करवाने में किया। अब धर्म से ऊपर उठकर हर किसी ने भारत की आजादी में अपना योगदान दिया, कई कुर्बानियां देखने को मिलीं, लेकिन क्या आज का भारत, आज की राजनीति इस बात को स्वीकार करती है? यहां संजय लीला भंसाली की 'चालाक' फिल्ममेकिंग का एक नमूना देखने को मिला है।

पाकिस्तान में बॉलीवुड फिल्मों का विरोध, हीरामंडी का नहीं

कोई राजनीतिक विवाद में ना फंस जाए, इसलिए भंसाली ने खुलकर कुछ नहीं दिखाया, लेकिन फिर भी मैसेज चला गया- मुस्लिम समाज का भारत की आजादी में एक अहम योगदान रहा है जिसे किसी भी तरह से नकारा नहीं जा सकता। बड़ी बात ये है कि जो पाकिस्तान आजकल बॉलीवुड की एक साधारण सी फिल्म का भी विरोध करने लगा है, तुरंत फिल्मों पर बैन लग जाता है, वहां पर हीरामंडी को लेकर एक सकारात्मक माहौल है। जिस एकता वाले संदेश की बात भंसाली जगह-जगह कर रहे हैं, उसका असर पड़ोसी मुल्क में भी देखने को मिल रहा है। ये सीरीज सही मायनों में दो पुरानी संस्कृतियों को फिर जोड़ने का काम कर रही है। बड़ी बात ये है कि संजय लीला भंसाली ने लोकसभा चुनाव के वक्त ये रिस्क लिया है। अगर आने वाले दिनों में 'पाकिस्तान और मुसलमान' के नाम पर हीरामंडी का कुछ विरोध सियासी गलियारों में शुरू हो जाए, तो हैरान होने की जरूरत नहीं है।

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