औरंगाबाद में होगी 'सेनाओं' की लड़ाई, नाम बदलकर छत्रपति संभाजीनगर करने के बाद शिंदे और उद्धव आमने-सामने
शिवसेना के दो प्रतिद्वंद्वी गुट राजनीतिक रूप से बढ़त बनाने की लड़ाई में फंस गए हैं। जबकि दूसरी तरफ एआईएमआईएम सीट बरकरार रखने की कोशिश कर रही है। ऐसे में महाराष्ट्र में औरंगाबाद लोकसभा चुनाव में दरार दिख रही है। एक ऐसा राज्य जिसने पिछले पांच वर्षों में काफी राजनीतिक उथल-पुथल देखी है। औरंगाबाद का नाम बदलकर छत्रपति संभाजीनगर किए जाने के बाद इस सीट पर 13 मई को पहला लोकसभा चुनाव होगा। सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इस शहर में शिवसेना के दोनों गुट नाम बदलने का श्रेय लेना चाहते हैं। इनमें से एक गुट सत्तारूढ़ महायुति के साथ है दूसरा महा विकास अघाड़ी (MVA) के साथ है।
उद्धव गुट ने खैरे को उतारा तो शिंदे गुट ने भूमरे पर जताया भरोसा
कांग्रेस और एनसीपी (शरदचंद्र पवार) की सहयोगी सेना (UBT) ने चार बार के सांसद चंद्रकांत खैरे पर भरोसा जताया है, जो 2019 में एआईएमआईएम के इम्तियाज जलील से सिर्फ 4,492 वोटों से हार गए थे। शिंदे सेना ने कैबिनेट मंत्री संदीपनराव भूमरे को मैदान में उतारा है, जो पैठण से विधायक हैं, जो पड़ोसी जालना जिले में पड़ता है। इस बारे में औरंगाबाद हवाई अड्डे के बाहर एक फूड स्टॉल चलाने वाली सुजाता बिराद ने कहा कि यह मुसीबत मोल लेने जैसी है। उन्होंने कहा, “हर कोई भ्रमित है। इतनी सारी पार्टियां और उम्मीदवार हैं, और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि बाद में कौन किसके साथ रहेगा।”
जीत में मराठा और ओबीसी लोगों का वोट होगा महत्वपूर्ण
स्टॉल पर ब्रेड पकोड़ा खा रहे एक एयरलाइन में काम करने वाले गजानन लांडगे ने मराठवाड़ा में इस चुनाव के एक और हकीकत की ओर इशारा करते हैं। उन्होंने कहा, "बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि मराठा और ओबीसी किस तरह वोट करते हैं।" लांडगे खुद मराठा हैं। मराठा आरक्षण विरोध राज्य सरकार की उन्हें रियायत और ओबीसी को कोटा लाभ में अपना हिस्सा खोने का डर है, जिससे दोनों समुदायों के बीच दरार पैदा हो गई है, जो मराठवाड़ा क्षेत्र में एक प्रमुख मुद्दा होने की उम्मीद है।
एआईएमआईएम के लिए भी बनी प्रतिष्ठा की लड़ाई
लेकिन एआईएमआईएम के लिए यह एक प्रतिष्ठा की लड़ाई है, क्योंकि औरंगाबाद सीट हैदराबाद के बाहर उसकी पहली चुनावी जीत में से एक थी। यहां दोनों सेनाओं के लिए भी बहुत कुछ दांव पर है। यह विभाजन के बाद संबंधित गुटों की पहली चुनावी परीक्षा है। यह वह क्षेत्र है, जो मुंबई के बाहर पहली जगह थी, जहां 1990 के दशक की शुरुआत में बाल ठाकरे ने अपने पैर जमाए थे।
शिंदे सेना के उम्मीदवार भुमरे की शुरुआत इस नुकसान से हुई कि उन्हें "औरंगाबाद से नहीं होने" के कारण "बाहरी व्यक्ति" के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, माना जाता है कि राज्य के अन्य हिस्सों की तरह, यहां भी जमीनी स्तर पर सेना कार्यकर्ता या सैनिक उद्धव ठाकरे के साथ हैं। शिंदे द्वारा उद्धव के पिता बाल ठाकरे द्वारा स्थापित पार्टी को विभाजित करने और सेना के 56 में से 40 विधायकों और 19 में से 13 सांसदों के साथ चले जाने के प्रति शिंदे की सहानुभूति है।
ऐसा माना जा रहा है कि यह विभाजन भाजपा द्वारा कराया गया है, इससे शिंदे सेना को कोई मदद नहीं मिल रही है। कई लोग, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो सेना (यूबीटी) के खैरे को पसंद नहीं करते, यही कहते हैं: “औरंगाबाद में, केवल ‘बाल ठाकरे शिव सेना’ है। हम दूसरे (शिंदे सेना) को नहीं पहचानते।” "गद्दार (गद्दार)" से लेकर "खोके सरकार (धन बल पर टिकी सरकार)" तक, सेना (यूबीटी) ने शिंदे सेना को बदनाम करने के लिए एक अभियान चलाया है।