इतिहास: एक साथ तीन सीट से चुनाव लड़े थे अटल बिहारी वाजपेयी
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 1957 में अपने जीवन का पहला लोकसभा चुनाव भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार की हैसियत से बलरामपुर, लखनऊ और मथुरा कुल तीन सीट से लड़ा था। मथुरा में वे निर्दलीय राजा महेंद्र प्रताप सिंह से न केवल बुरी तरह हारे थे बल्कि चौथे स्थान पर आए थे। लखनऊ में भी कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी ने उन्हें हरा दिया था। अलबत्ता बलरामपुर से कांग्रेस के हैदर हुसैन को हराकर वाजपेयी 33 साल की उम्र में लोकसभा पहुंच गए थे।
दो सीट से एक साथ चुनाव वाजपेयी ने 1991 और 1996 में भी लड़ा था। दोनों बार वे दोनों सीट से विजयी हुए थे। पर 1991 और 1996 दोनों ही बार उन्होंने लखनऊ सीट को रखते हुए विदिशा और गांधीनगर से इस्तीफा दिया था। लालकृष्ण आडवाणी ने अपने जीवन का पहला लोकसभा चुनाव नई दिल्ली सीट से 1989 में लड़ा था और जीते थे। पर 1991 में उन्होंने नई दिल्ली के साथ गांधीनगर से भी चुनाव लड़ा।
नई दिल्ली में मामूली अंतर से जीत पाए पर गांधीनगर में उन्हें अपार सफलता मिली। उसके बाद उन्होंने नई दिल्ली से इस्तीफा दे दिया। फिर तो 2014 तक सभी लोकसभा चुनाव उन्होंने गांधीनगर से ही लड़े और हर बार जीते। उन्होंने हवाला कांड में आरोपी बनाए जाने के कारण 1996 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था। इसी वजह से यहां अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ के साथ चुनाव लड़ा।
दो सीट से चुनाव लड़ने की छूट पर भी चुनाव आयोग आपत्ति करता रहा है। उसकी दलील है कि यह प्रावधान होने से किसी उम्मीदवार के दोनों सीट जीत लेने के कारण एक सीट का उपचुनाव कराना पड़ता है। जिस पर काफी पैसा खर्च होता है। इसके अलावा जिस सीट से विजयी उम्मीदवार त्यागपत्र देता है, नए सांसद के निर्वाचित होने तक उसका लोकसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता।
आयोग ने सरकार को सुझाव दिया था कि अगर कोई उम्मीदवार दो सीटों से लड़ता और जीतता है तो एक सीट के लिए होने वाले उपचुनाव का खर्च उससे वसूल किया जाना चाहिए। हर चुनाव में गैर गंभीर उम्मीदवारों की भी अच्छी खासी संख्या होती हैै। गैर गंभीर उम्मीदवारों पर अंकुश के लिए ही चुनाव आयोग उम्मीदवारों की जमानत राशि बढ़ाता रहा है।
फिलहाल लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को 25 हजार और अनुसूचित जाति-जनजाति के उम्मीदवार को 12,500 रुपए जमानत राशि जमा करानी पड़ती है। अगर कोई उम्मीदवार उस सीट से विजयी हुए उम्मीदवार को मिले मतों के छठे भाग के बराबर मत हासिल नहीं कर पाता तो उसकी जमानत राशि जब्त हो जाती है। अभी तक का हर चुनाव का औसत दर्शाता है कि 99 फीसद निर्दलीय उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाते। एक दौर था जब कुछ लोग बार-बार चुनाव लड़ने और हारने के लिए देश भर में प्रसिद्ध थे।
ग्वालियर के मदन लाल धरती पकड़, कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित घोड़े वाला और बरेली के काका जोगिंदर सिंह की शोहरत किसी भी लोकप्रिय राजनेता से कम नहीं थी। ये तीनों विधानसभा और लोकसभा ही नहीं राष्ट्रपति तक के चुनाव में उम्मीदवार बनते थे और हारते थे। एक साथ कई सीटों से नामांकन करते थे।
मदन लाल धरती पकड़ ने ग्वालियर में माधवराव सिंधिया के खिलाफ कई बार चुनाव लड़ा। घोडेÞ पर चलने वाले कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित रायबरेली से कई बार इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लडेÞ उन्होंने अपने जीवन में लगभग 300 बार चुनाव लड़ा। जोगिंदर सिंह काका तो साइकिल पर अपना प्रचार करते थे और मतदाताओं से अनुरोध करते थे कि उन्हें वोट न दें।
लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ने वाले नेताओं की भी लंबी सूची है। मायावती और अजित सिंह भी इस सूची में शामिल हैं। मायावती ने 1989 में बिजनौर से विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव जीते थे। इससे पहले वे कैराना में 1984 का आम चुनाव और बाद में हरिद्वार व बिजनौर के लोकसभा चुनाव में हारी थी। लगातार तीन बार हार का स्वाद चखने के बाद उन्हें 1989 में बिजनौर से दोहरी सफलता मिली थी। हालांकि विधानसभा से उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
अजित सिंह भी 1989 में बागपत से लोकसभा और इसी संसदीय क्षेत्र की छपरौली सीट से विधानसभा चुनाव एक साथ लड़े थे। दोनों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने मुलायम सिंह यादव के मुकाबले जनता दल के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए भी दावा पेश किया था। विधायकों की राय भी ली गई थी। जिसमें अजित सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके बाद उन्होंने विधानसभा सीट से त्यागपत्र दे दिया था और केंद्र में वीपी सिंह की सरकार में उद्योग मंत्री बने थे।