संपादकीय: मौसम की मार, बढ़ते तापमान से दुनिया के सामने भयावह विनाश का खतरा, जिम्मेदारियों से बच रहे अमीर देश
यह जगजाहिर है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से वैश्विक ताप बढ़ रहा है। हर वर्ष तापमान में कुछ और बढ़ोतरी दर्ज होने लगी है। गर्मी का मौसम लंबा होने लगा है। सर्दी में भी गर्मी का असर दिखता है। दुनिया के बहुत सारे इलाके जो पहले बर्फ से ढंके रहते थे, लू के थपेड़े सहने को मजबूर हो चुके हैं। लू की वजह से लोगों की जान भी खतरे में पड़ रही है। इसलिए हर वर्ष जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए आयोजित होने वाली बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के संकल्प लिए जाते हैं। मगर हकीकत यह है कि इस दिशा में कोई उल्लेखनीय नतीजा दर्ज नहीं हो पा रहा है। चिंता जताई जा रही है कि अगर तापमान में बढ़ोतरी डेढ़ डिग्री सेल्सियस से पार गया, तो दुनिया के सामने विनाश का भयावह मंजर नजर आने लगेगा। मगर इस संकल्प पर दृढ़ता से आगे बढ़ने की अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखती।
औद्योगिक उत्पादन अधिक करने वाले कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार
अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारियां गरीब और विकासशील देशों के कंधों पर डाल कर इस समस्या से निजात पाने का सपना देख रहे हैं। छिपी बात नहीं है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार वे देश हैं, जो औद्योगिक उत्पादन अधिक करते हैं, जहां जैव ईंधन का इस्तेमाल ज्यादा होता है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि जैव ईंधन के उपयोग में कटौती और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर अपनी निर्भरता बढ़ाएं। मगर ऐसा हो नहीं पा रहा।
पृथ्वी की सतह का बड़ा हिस्सा कंक्रीट से ढंकता गया है
इसमें आम नागरिकों का भी योगदान अपेक्षित है। खासकर भारत जैसे विकसित हो रहे देश में, जहां गाड़ियों और औद्योगिक इकाइयों का तेजी से विस्तार हो रहा है। घरों, दफ्तरों, निजी और सार्वजनिक वाहनों या फिर गोदामों आदि को जिस तरह वातानुकूलित बनाने पर जोर दिया जा रहा है, वैसी स्थिति में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना चुनौती बनता गया है। ऊपर से बुनियादी ढांचे के विकास पर अधिक जोर होने की वजह से जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, पृथ्वी की सतह का बड़ा हिस्सा कंक्रीट से ढंकता गया है।
ऐसे में कार्बन और गर्मी को अवशोषित करने के नैसर्गिक माध्यम सिकुड़ते गए हैं। लोग वातानुकूलित वातावरण में रहने के अभ्यस्त होते गए हैं, इसलिए तापमान सामान्य से थोड़ा भी बढ़ जाए तो उन्हें सहन नहीं हो पाता। मगर लोग इस समस्या से पार पाने में निजी तौर पर कोई योगदान करते नजर नहीं आते। सलाह दी जाने लगी है कि जीवन-शैली में अगर पारंपरिक तौर-तरीके अपना लिए जाएं, तो वैश्विक ताप बढ़ने से काफी हद तक रोका जा सकता है। सरकारों का जोर चूंकि अर्थव्यवस्था के विकास पर है, इसलिए वे औद्योगिक उत्पाद और बाजार के विस्तार पर अधिक ध्यान केंद्रित करती हैं।
मौसम की मार बढ़ने के पीछे अनेक वजहें हैं। भवन निर्माण से लेकर खानपान के संसाधनों तक में अब पारंपरिक शैली को त्याग दिया गया है। स्थानीय संसाधनों की जगह आयातित वस्तुओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है, जिनका मौसम से तालमेल नहीं बढ़ पाता। बिना सोचे-समझे वातानुकूलन और जरूरत के मुकाबले बेलगाम वाहनों और गैस संचालित कार्यों के बढ़ते प्रचलन से गर्मी का प्रकोप और बढ़ रहा है। इससे भवनों के भीतर का वातावरण तो जरूर ठंडा हो जाता है या कुछ सुविधाएं मिल जाती हैं, पर वातानुकूलन संयंत्रों से निकलने वाली गर्मी बाहर के वातावरण का तापमान काफी बढ़ा देती है। जलवायु में उथल-पुथल की जो हालत होती जा रही है, उसमें अब इस बात की जरूरत है कि विकास और पर्यावरण के बीच एक संतुलन कायम किया जाए। अन्यथा सुविधा कब मुसीबत बन जाएगी, कहा नहीं जा सकता।