संपादकीय: दुनिया में महिलाओं की हिस्सेदारी पर सवाल, भारत में कानून के बाद भी नहीं बदले हालात
पूरी दुनिया में लंबे समय से महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक और हिस्सेदारी की जरूरत की बात उठती रही है। सरकारों ने अनेक नीतियां बनाईं, कई नियम-कायदों में बदलाव किए गए। लेकिन शिक्षा, आय, सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी के स्तर पर सवाल उठते रहते हैं। विश्व आर्थिक मंच की इस साल की लैंगिक अंतर सूचकांक रपट में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक आंका गया है। भारत दो पायदान नीचे खिसककर 129वें स्थान पर आ गया, जबकि आइसलैंड जैसे छोटे से देश ने सूची में अपना शीर्ष स्थान बरकरार रखा है।
दक्षिण एशिया में भारत वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक में बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान के बाद पांचवें स्थान पर है। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत ने 2024 में अंतर का 64.1 फीसद कम कर लिया है। भारत के आर्थिक समानता स्कोर में सुधार हो रहा है, लेकिन 2012 के 46 फीसद के स्तर पर लौटने के लिए इसे 6.2 फीसद अंक बढ़ाने की जरूरत है।
लैंगिक समानता के लिए विश्व भर की सरकारों ने अनेक नीतियां बनाई हैं, पर उनसे अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाए हैं। विश्व आर्थिक मंच की रपट से स्पष्ट है कि भारत में नीतियां फाइलों और घोषणाओं तक सीमित रह गई हैं। भारत पिछले वर्ष 127वें स्थान पर था और सूची में दो पायदान नीचे जाने की मुख्य वजहों में शिक्षा प्राप्ति और राजनीतिक सशक्तीकरण मापदंडों में आई मामूली गिरावट है।
यह स्थिति तब है, जब भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए विधेयक पारित किया जा चुका है। माध्यमिक शिक्षा में नामांकन के मामले में भारत ने बसे अच्छी समानता दिखाई है जबकि महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण में अपना देश 65वें स्थान पर है। बीते 50 वर्षों में महिला/पुरुष राष्ट्राध्यक्षों के साथ समानता के मामले में भारत 10वें स्थान पर है। स्पष्ट है कि लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव तो आ रहा है, लेकिन पुरुषवादी मानसिकता पूरी तरह खत्म नहीं हो रही है। इस स्थिति को बदलने के लिए समाज की मानसिकता को बदलना होगा।