संपादकीय: नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और बार-बार बदलती सरकारें, नेताओं के मतभेदों से जनता की बढ़ीं मुश्किलें
एक बार फिर नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई है। प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ के खिलाफ एक नया गठबंधन बन गया है, जिसमें नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल ने मिल कर सरकार बनाने की घोषणा कर दी है। ये दोनों दल अभी तक प्रचंड सरकार को समर्थन देते आ रहे थे, मगर अब उनमें मतभेद उभर गया है। हालांकि प्रचंड ने अपने पद से इस्तीफा देने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि वे सदन में विश्वास मत का सामना करेंगे। पिछले वर्ष भी इसी तरह मतभेद उभरे थे और लगा था कि प्रचंड सरकार गिर जाएगी। मगर इस बार लगता है कि सत्ता की कमान प्रचंड के हाथ से फिसल जाएगी।
दरअसल, नेपाल का राजनीतिक समीकरण कुछ ऐसा बन गया है कि पिछले करीब साढ़े तीन दशक से वहां गठबंधन सरकारें ही बनती आ रही हैं। थोड़े-थोड़े समय पर उनमें मतभेद उभरता है और सरकार बदल जाती है। वहां की राजनीति में प्रचंड, शेर बहादुर देउबा और खड्ग प्रसाद शर्मा ‘ओली’ की तिकड़ी ही हावी रही है। वही फेर-बदल कर सरकारें गिराते और बनाते देखे जाते हैं।
दरअसल, नेपाल में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली है। इस तरह संघीय सरकार पर प्रांतीय दलों और सरकारों का दबदबा लगातार बना रहता है। जबसे वहां नेपाली पंचायत की जगह बहुदलीय व्यवस्था लागू हुई है, तबसे गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ है और अब कहा जाता है कि राजनीतिक अस्थिरता वहां का स्थायी भाव बन चुका है। क्षेत्रीय दल बेशक संघीय स्तर पर छोटे नजर आते हैं, मगर प्रांतीय स्तर पर उनकी स्थिति मजबूत होने की वजह से वे आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में दबदबा बनाने में कामयाब रहते हैं।
उनका मकसद ज्यादातर संघीय सरकार में पद और राजनीतिक लाभ उठाने का अधिक रहता है। इसीलिए वहां अतिराष्ट्रवाद जैसी विचारधारा भी विकसित हुई है। इस राजनीतिक जोड़-तोड़ के चलते नेपाल में भ्रष्टाचार बढ़ा है, वह दुनिया के सबसे कम विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है। लोग इस राजनीतिक अस्थिरता से परेशान हैं। अगर वहां की संविधान सभा में जल्दी इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं तलाशा गया, तो नेपाल का हाल दिन पर दिन खराब ही होता जाएगा।