Jansatta Editorial: पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान राजनीतिक हिंसा, सख्त कदम उठाने की जरूरत
पश्चिम बंगाल में यह रिवायत जैसी बन गई है कि अगर वहां कोई भी चुनाव होना है तो हिंसा उसका एक पक्ष होगी! हैरानी की बात है कि वर्षों से लगातार यह स्थिति बदस्तूर कायम है, मगर इस पर लगाम लगाने के लिए अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है, सरकारों और संबंधित महकमों की ओर से कभी सख्त कदम नहीं उठाए गए।
यह बेवजह नहीं है कि आज भी बहुत छोटी-सी चिंगारी से वहां हिंसा अक्सर भड़क जाती है और उसमें नाहक ही आम लोग मारे जाते हैं। फिलहाल पश्चिम बंगाल में लोकसभा के लिए अलग-अलग चरणों में चुनाव चल रहा है। इस बीच कई बार हिंसा भड़की और वह किसी तरह संभाली जा सकी। अब छठे चरण का चुनाव होने से पहले नंदीग्राम में भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के बीच हिंसक संघर्ष शुरू हो गया।
इसमें एक महिला की मौत हो गई और आठ अन्य लोग घायल हुए। बुधवार की रात हुई इस हिंसा और हमले के लिए तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ने एक दूसरे पर आरोप लगाया, मगर इससे एक बार फिर यही जाहिर हुआ है कि तमाम चिंता के बावजूद वहां चुनावी हिंसा को रोक पाना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
दरअसल, पश्चिम बंगाल के जिस नंदीग्राम इलाके में ताजा हिंसा हुई है, वहां कुछ दिन पहले से ही माहौल तनावपूर्ण था। मगर न तो राज्य सरकार ने अपनी ओर से इसे सुलझाने में रुचि दिखाई, न चुनाव आयोग को सुरक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान देना जरूरी लगा। नतीजतन, पहले से ही सुलग रही आग विवाद के बाद भड़क गई और इसमें एक महिला की मौत हो गई।
इस हिंसा के नतीजे में फैली अराजकता और हालात बिगड़ने के बाद केंद्रीय बलों की तैनाती की गई। सवाल है कि इस तरह की हिंसा कभी भी भड़कने की आशंका बने रहने के बावजूद सरकार और चुनाव आयोग की ओर से समय रहते सुरक्षा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पर्याप्त इंतजाम क्यों नहीं किए गए। इतने लंबे चरणों में चुनाव कराने के बाद भी हिंसक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पाना क्या दर्शाता है? विडंबना यह है कि इस तरह की कोई घटना जब तक तूल नहीं पकड़ लेती है, तब तक संबंधित महकमों की नींद नहीं खुलती। फिर जब तक ये सक्रिय होती हैं, तब तक जानमाल का नुकसान हो चुका होता है।
अफसोसनाक यह है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा मानो वहां की संस्कृति बन चुकी है। शायद ही ऐसा कोई चुनाव होता होगा, जिसमें जनता से जुड़े मुद्दों पर कोई बहस आकार लेती हो और शांत या लोकतांत्रिक माहौल में मतदान संपन्न होता हो। वहां की राजनीति में सक्रिय मुख्य दलों को मुद्दा आधारित बहस खड़ा करने के बजाय अपना जनाधार खड़ा करने के लिए उकसावे और टकराव का रास्ता अपनाना शायद ज्यादा बेहतर लगता है।
आखिर इस तरह की अराजकता की राह की उम्र आखिर कितनी होती है और इससे कैसी राजनीतिक संस्कृति खड़ी होती है। ऐसे में न तो कभी लोकतंत्र का रास्ता मजबूत हो सकता है, न ही जनहित के मुद्दों पर सकारात्मक विमर्श संभव है। हालत यह है कि स्वच्छ चुनाव और स्वतंत्र मतदान एक बड़ी चुनौती की तरह हो गई है।
बहुत कुछ इस बात पर निर्भर हो चला है कि किसी इलाके में किस समूह का वर्चस्व है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर हिंसा को ही राजनीतिक रूप से हावी होने का औजार बना लिया जाएगा, तो ज्यादा ताकतवर समूह हमेशा कमजोर लोगों के हक का हनन करेगा। ऐसे में लोकतंत्र की क्या गति होगी, समझा जा सकता है!