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संपादकीय: देश में लागू हुआ नया कानून, घर बैठे ही दर्ज होगा मुकदमा

सामाजिक बदलावों और जरूरतों के मुताबिक कानूनों में संशोधन और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को समाप्त करना जरूरी होता है। इस लिहाज से औपनिवेशिक काल से चले आ रहे कानूनों की समीक्षा और उनमें बदलाव जरूरी थे।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: July 02, 2024 01:10 IST
प्रतीकात्मक तस्वीर
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नए तीनों कानून लागू हो गए। सरकार का कहना है कि इन कानूनों के जरिए न्याय सुनिश्चित होगा, पुराने कानूनों का बल दंड पर अधिक था। नए कानूनों से आधुनिक प्रणाली स्थापित होगी। इनमें अब घर बैठे प्राथमिकी दर्ज कराने, शून्य प्रथमिकी के तहत किसी भी थाने में शिकायत दर्ज कराने जैसी सहूलियतें दी गई हैं, जिससे लोगों का समय बचेगा और त्वरित कार्रवाई हो सकेगी। प्राथमिकी दर्ज होने के बाद अदालतों को भी तय समय के भीतर फैसला सुनाने की बाध्यता होगी। बलात्कार, बाल यौन शोषण जैसे मामलों में जांच और सुनवाई संबंधी सख्त नियम बनाए गए हैं।

निस्संदेह, मामलों की जांच और सुनवाई में गति आएगी, तो लोगों को न्याय मिल सकेगा। मगर विपक्ष का कहना है कि इन कानूनों में कुछ ऐसी सख्त धाराएं बनाई गई हैं, जिनसे पुलिस को मनमानी का अधिकार मिलता और मानवाधिकारों के हनन का रास्ता खुलता है। खासकर आपराधिक कानूनों को लेकर व्यापक विरोध देखा जा रहा है। दरअसल, ये कानून विपक्ष की गैरमौजूदगी में और बिना किसी बहस के पारित हो गए थे, इसलिए इन पर विशद चर्चा नहीं हो पाई थी। इसलिए भी इनकी कई धाराओं को लेकर भ्रम और विवाद की गुंजाइश बनी हुई है।

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सामाजिक बदलावों और जरूरतों के मुताबिक कानूनों में संशोधन और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को समाप्त करना जरूरी होता है। इस लिहाज से औपनिवेशिक काल से चले आ रहे कानूनों की समीक्षा और उनमें बदलाव जरूरी थे। हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सारे कानून ब्रिटिश राज के समय से जस के तस चले आ रहे थे। उनमें समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, जिन कानूनों की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी, उन्हें समाप्त भी किया गया। मगर फिर भी बहुत सारे कानून बदली स्थितियों से मेल नहीं खाते थे।

पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अपराधों की प्रकृति बदली और देश की अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने वाली गतिविधियां बढ़ी हैं, आतंकवादी संगठनों की सक्रियता बढ़ी है, उसमें कुछ सख्त कानूनों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर आपराधिक कानून बनाते समय यह ध्यान रखना भी जरूरी होता है कि उनका दुरुपयोग न होने पाए, उनके चलते सामान्य नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन न हो। औपनिवेशिक समय के राजद्रोह कानून की जगह देशद्रोह कानून लाने की इसीलिए सबसे अधिक आलोचना हो रही है कि उससे लोगों में नागरिक अधिकारों के हनन का भय अधिक पैदा होता है।

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हालांकि हर नए कानून के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा तो होती ही है, होनी भी चाहिए, मगर उन पर आम सहमति बने बिना लागू किए जाने से विवाद और नाहक भय का वातावरण बनता है। जब तक आम नागरिकों में इन कानूनों को लेकर भरोसा नहीं बनेगा, विरोध के स्वर उठते रहेंगे। जब ये कानून संसद में पारित हुए थे, तब उसके एक हिस्से को लेकर ट्रक चालकों ने देशव्यापी हड़ताल की थी। अब कई जगह खुद वकील इनके विरोध में उतरने वाले हैं। कुछ राज्यों ने इनके विरोध में आवाज उठानी शुरू कर दी है। संसद में विपक्ष तो हमलावर है ही। अगर सचमुच कुछ कानूनों की वजह से समाज में व्यवस्था के बजाय अव्यवस्था पैदा होती है, तो यह किसी भी तरह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं होगी। सरकार को यह भरोसा दिलाना होगा कि ये कानून वास्तव में लोगों के लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने वाले हैं।

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