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Jansatta Editorial: विस्थापन की समस्या दूर करने के लिए दीर्घकालिक समाधान करने की जरूरत

अब जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र यानी आइडीएमसी की ताजा रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि सन 2023 में दक्षिण एशिया में कुल उनहत्तर हजार लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। इसमें अकेले मणिपुर से सड़सठ हजार लोग विस्थापित हुए।
Written by: जनसत्ता | Edited By: Bishwa Nath Jha
नई दिल्ली | Updated: May 17, 2024 08:00 IST
jansatta editorial  विस्थापन की समस्या दूर करने के लिए दीर्घकालिक समाधान करने की जरूरत
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो -(इंडियन एक्सप्रेस)।
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दुनिया भर में हर वर्ष लाखों लोग विस्थापित होते हैं और उन्हें अकथनीय मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मगर इक्कीसवीं सदी का सफर तय करते विश्व में भी ऐसी ठोस पहलकदमी नहीं दिखाई देती जिसमें अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए लोगों के दुख पर गौर किया जा सके और एक दीर्घकालिक समाधान का रास्ता तैयार हो।

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यह बेवजह नहीं है कि आज भी अलग-अलग देशों से बड़ी संख्या में लोग अपना घर-बार छोड़ कर दूसरी जगहों पर जाने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। अक्सर आने वाली रिपोर्टों में इस समस्या की जटिलताओं की ओर ध्यान दिलाया जाता रहा है, लेकिन अब तक विस्थापन का सिलसिला बदस्तूर कायम है।

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अब जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र यानी आइडीएमसी की ताजा रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि सन 2023 में दक्षिण एशिया में कुल उनहत्तर हजार लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। इसमें अकेले मणिपुर से सड़सठ हजार लोग विस्थापित हुए। यानी दक्षिण एशिया के सभी देशों में जितने लोगों को अपने ठौर से उजड़ना पड़ा, उसमें सत्तानबे फीसद लोग मणिपुर के हैं।

गौरतलब है कि सन 2018 के बाद यानी पिछले पांच वर्षों में भारत में हुआ यह सबसे बड़ा विस्थापन है। देश के अन्य इलाकों में जहां बाढ़ या अन्य प्राकृतिक आपदा और रोजी-रोटी जैसी वजहों से लोगों को दूसरी जगहों की ओर अपने जीने के रास्ते की खोज में निकलना पड़ा, वहीं मणिपुर में हुई व्यापक हिंसा ने वहां हजारों लोगों को विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया।

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आइडीएमसी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि मार्च 2023 में मणिपुर उच्च न्यायालय ने मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के संदर्भ में जो रुख जाहिर किया था, उसके बाद राज्य के बड़े हिस्से में हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। इसमें करीब दो सौ लोगों की जान जा चुकी है और इसकी वजह से हजारों लोगों को अपना घर छोड़ कर राहत शिविर या दूसरी जगहों पर शरण लेना पड़ा।

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आज भी वहां स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। जाहिर है, एक साधारण विवाद से जो हालात पैदा हुए, उसके एक वर्ष बीत जाने के बावजूद उसे संभालने में सरकार अब तक नाकाम है और इसका खमियाजा हिंसक संघर्ष की वजह से बेठौर हुए लोगों को भुगतना पड़ रहा है।

विश्व भर में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जो बहुत मुश्किल से किसी जगह पर अपना ठिकाना और उनमें से कुछ लोग घर बनाते हैं। मगर इससे ज्यादा तकलीफदेह और क्या हो सकता है कि उन्हें वैसी वजहों के लिए उस जगह को छोड़ कर कहीं और जाना पड़ जाता है, जिसके लिए वे जिम्मेदार नहीं होते हैं।

यही नहीं, अपने ठौर से वंचित लोग जब कहीं और जीने की जगह ढूंढ़ने निकलते हैं तो सभ्य कही जाने वाली व्यवस्थाओं वाले लोकतांत्रिक देशों में भी उनके लिए टिकना आसान नहीं होता। इससे अफसोसनाक और क्या होगा कि विश्व के आधुनिक होने के दावों के बीच पिछले दो वर्षों में संघर्ष और हिंसा की वजह से अपना घर छोड़ने पर मजबूर लोगों की संख्या में चिंताजनक बढ़ोतरी हुई है।

दुनिया के जिन हिस्सों में हालात में सुधार हो रहे थे, अब वहां भी यह समस्या अपने पांव पसार रही है। हिंसा या संघर्षों को रोकने और शांति की स्थापना करने में नाकामी दरअसल विश्व भर में अशांत इलाकों में सक्षम देशों की कूटनीतिक और रणनीतिक कवायदों के महज दिखावा होने को ही दर्शाती है।

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