संपादकीय: सरकार चलाने के लिए यह होनी चाहिए शर्त, सहयोगियों की शपथ से पहले ही अपनी-अपनी मांग
गठबंधन सरकारों में सहयोगी दलों की मंत्री पद और विभागों की मांग को लेकर खींचतान नई बात नहीं है। हर दल का मुखिया अपने नेताओं की सामूहिक आकांक्षाओं को साथ लेकर चलता है। गठबंधन का पहला धर्म होता है, नीतियों और योजनाओं पर फैसले के समय निजी या दलगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सहमति बनाने का। गठबंधन का एक भी दल इस धर्म का निर्वाह नहीं कर पाता, तो वह सरकार चल नहीं पाती। देश में गठबंधन सरकारें बनी और चली हैं, पर वे तब-तब गिर गई हैं, जब गठबंधन धर्म के निर्वाह में दलगत स्वार्थ या वैचारिक मतभेद आड़े आए हैं।
इस बार फिर गठबंधन सरकार बनने जा रही है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनाने पर सहमति जता दी है। मंत्रालयों के बंटवारे आदि को लेकर मंथन चल रहा है। हर बड़े दल से बड़प्पन की अपेक्षा रहती है और वह थोड़ा झुक कर अपने सहयोगियों का मान ऊपर रख भी लेता है। मगर सरकार गठन से पहले ही जिस तरह जद (यू) और तेलगु देशम की तरफ से नीतियों को लेकर शर्तें रखी जाने लगी हैं, उससे गठबंधन के भविष्य पर आशंका गहराने लगी है।
जद (यू) ने कहा है कि अग्निवीर योजना पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। यही मांग विपक्षी दल शुरू से उठाते आ रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान इंडिया गठबंधन ने तो सार्वजनिक रूप से एलान किया था कि अगर उसकी सरकार बनी तो अग्निवीर योजना को खत्म कर देंगे। वही बात अगर सहयोगी करने लगेंगे, तो सरकार के लिए मुश्किल होगी।
भाजपा समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है। इस दिशा में वह आगे भी बढ़ चुकी है। मगर उसके दोनों प्रमुख सहयोगी दलों ने इस पर भी पुनर्विचार की बात कही है। सभी राज्य सरकारों से सहमति की मांग कर रहे हैं। हालांकि ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सरकार अगर लचीला रुख अपनाए, तो सहमति बन सकती है। राजनीति में हर कदम के दूरगामी परिणाम होते हैं। कौन-सा दल किस मुद्दे पर अपनी बात मनवा लेता है, उससे उसके राजनीतिक भविष्य पर असर पड़ता है। भाजपा को इस वक्त सहयोगी दलों के साथ मिल कर सरकार चलाने की मजबूरी है, पर वह अपने सिद्धांतों और नीतियों से डिगेगी, तो नुकसान का खतरा बना रहेगा।
ऐसी स्थितियों में सरकार की अगुआई कर रहे दल के सामने चुनौती होती है कि वह कैसे अपने सहयोगियों को नीतियों पर एकमत करे और किस हद तक उनकी शर्तों को माने। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की राजनीतिक छवि टिकाऊ और भरोसेमंद सहयोगी की नहीं रही है। इससे पहले भी वे कई बार राजग के साथ रहे, बीच में छोड़ कर चले गए, फिर आ गए हैं। बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने जैसी उनकी कुछ पुरानी मांगें हैं। इसके अलावा अल्पसंख्यकों के आरक्षण के मुद्दे पर भी उनके विचार अलग हैं। अब जब वे मोलभाव करने की स्थिति में हैं, ये मुद्दे उठा सकते हैं। मगर इससे सरकार की मुश्किलें बढ़ेंगी ही। गठबंधन की सरकारें शर्तों की रस्साकशी से नहीं, सहयोग और सहमति के संकल्प से चलती हैं। अगर इसकी कमी इस गठबंधन में रहेगी, तो अनिश्चितताओं के बादल शायद ही कभी छंटेंगे।