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Jansatta Editorial: प्राकृतिक आपदा की बढ़ती घटनाओं से सरकार और आमजन को सबक लेने की जरूरत

रविवार को बंगाल की खाड़ी से उठे रेमल चक्रवाती तूफान ने पश्चिम बंगाल के साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में भारी तबाही मचाई।
Written by: जनसत्ता | Edited By: Bishwa Nath Jha
नई दिल्ली | Updated: May 29, 2024 08:07 IST
jansatta editorial  प्राकृतिक आपदा की बढ़ती घटनाओं से सरकार और आमजन को सबक लेने की जरूरत
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो -(सोशल मीडिया)।
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समुद्र तटीय इलाकों में चक्रवाती तूफान जैसे हर वर्ष का सिलसिला बन चुका है। कभी दक्षिण भारत, तो कभी महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल और ओड़ीशा इसकी तबाही झेलने को अभिशप्त हैं। हालांकि भूवैज्ञानिक अध्ययनों, मौसम विज्ञान विभाग की निरंतर निगरानी और अत्याधुनिक तकनीक की मदद से समुद्री हलचलों का पहले ही पता लगा लिया और सूचना तकनीक के जरिए लोगों को सतर्क कर दिया जाता है।

राष्ट्रीय आपदा मोचन बल और राज्य आपदा प्रबंधन दलों के सहयोग से किसी बड़े नुकसान को रोकने की कोशिश की जाती है। इस तरह काफी हद तक जानमाल का नुकसान रुक जाता है। मगर हर बार तूफान जनजीवन और अर्थव्यवस्था पर अपने गहरे घाव छोड़ ही जाता है। रविवार को बंगाल की खाड़ी से उठे रेमल चक्रवाती तूफान ने पश्चिम बंगाल के साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में भारी तबाही मचाई।

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अब हालांकि तूफान का वेग धीमा पड़ गया है, मगर इसका असर बिहार और पूर्वोत्तर के कई हिस्सों में अगले कुछ दिनों तक बने रहने की संभावना जताई गई है। पश्चिम बंगाल में इस तूफान ने उनतीस हजार से अधिक घरों को नष्ट कर दिया, हजारों पेड़ उखड़ गए, दो लाख से ऊपर लोगों को करीब साढ़े चौदह सौ आश्रय स्थलों पर पहुंचाना पड़ा। कई लोगों की मौत हो गई।

रेमल तूफान ने पश्चिम बंगाल सरकार के सामने एक बार फिर जनजीवन बहाल करने की बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। हजारों घरों की बिजली काट दी गई है। सैकड़ों खंभे टूट कर गिर चुके हैं। पिछले तीन दिन से पश्चिम बंगाल और असम की हवाई तथा रेल सेवाएं रोक दी गई हैं। इस तरह उन इलाकों में कारोबार को कितना नुकसान पहुंचा है, अंदाजा लगाया जा सकता है।

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जो लोग बेघर हो गए हैं, उनका जीवन कब पटरी पर लौटेगा, उन्हें सरकारी मदद कितनी मिल पाएगी, इस सब का आकलन करना अभी मुश्किल है। कुदरत के कोप के सामने व्यवस्थाएं किस कदर निस्सहाय पड़ जाती हैं, रेमल जैसी घटनाएं इसका उदाहरण हैं। ऐसा नहीं कि यह कोई पहली आपदा है। पिछले कुछ वर्षों में चक्रवाती तूफान, बारिश, बाढ़ और आंधी-तूफान से लगातार तबाही के मंजर सामने आते रहे हैं।

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उनसे पार पाने के उपाय भी सरकारें जुटाती रही हैं। मगर कुदरत के कहर को रोकने का कोई उपाय उनके पास नहीं है। छिपा तथ्य नहीं है कि प्राकृतिक आपदा की बढ़ती घटनाओं के पीछे सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है। समुद्र का स्वाभाविक तापमान उसकी सहनशीलता को पार कर चुका है। इसी के चलते अल-नीनो और ला-नीना जैसी स्थितियां पैदा होती हैं।

कुदरत बार-बार शायद यह चेतावनी दे रही है कि अगर उसके साथ छेड़छाड़ से परहेज नहीं किया गया, तो लाख उपाय किए जाएं, स्थितियां विकट ही होती जानी हैं। हर वर्ष जलवायु परिवर्तन के संकटों से पार पाने के लिए बैठकें आयोजित होती हैं, उनमें दुनिया भर के देश इससे पार पाने के उपायों पर अमल का संकल्प दोहराते हैं, मगर अभी तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय नतीजा सामने नहीं आ सका है।

आर्थिक विकास की होड़ में कुदरत की परवाह ही किसी में नहीं दिखती। ताकतवर देश कमजोर देशों पर दबाव डाल कर प्रदूषण और हानिकारक गैसों, जहरीले रासायनिक कचरे के उत्पादन को कम करना चाहते हैं, मगर अपने ऊपर लगाम लगाने को तैयार नहीं दिखते। इसका नतीजा कुदरत के कहर के रूप में हमारे ऊपर टूट रहा है।

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