Jansatta Editorial: प्रतिवर्ष दुनियाभर में होने वाली हर आठ मौत में से एक का कारण जीवाणु संक्रमण, चिंता करने की जरूरत
हमारे जीवन में बहुत सारी बीमारियां स्वच्छता संबंधी आदतें न अपनाने और जीवाणु-रोधी उपायों पर गंभीरता से ध्यान न दे पाने की वजह से पैदा हो रही हैं। लांसेट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि अगर ठीक से संक्रमण रोकने संबंधी उपाय किए जाएं तो निम्न-मध्यम आय वाले देशों में करीब साढ़े सात लाख जान बचाई जा सकती है।
इन उपायों में हाथों की सफाई, अस्पतालों और स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में नियमित रूप से साफ-सफाई, उपकरणों का रोगाणुनाशन, पीने के लिए स्वच्छ जल मुहैया कराना, सही तरीके से साफ-सफाई रखना और बच्चों को सही समय पर टीके लगवाना शामिल है। अनुसंधानकर्ताओं के अंतरराष्ट्रीय दल ने अनुमान लगाया कि हर वर्ष दुनियाभर में होने वाली हर आठ मौत में से एक का कारण जीवाणु संक्रमण होता है।
अनुसंधानकर्ताओं ने रोगाणुरोधी प्रतिरोध की स्थिति से प्रभावी तौर पर निपटने के लिए लोगों की एंटीबायोटिक तक आसान पहुंच मुहैया कराने का आह्वान किया है। अगर ऐसा न किया गया तो बच्चों को बचाने और उन्हें लंबे समय तक स्वास्थ्य रखने के संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने में मुश्किलें बनी रहेंगी। गर्भवती महिलाओं और बच्चों को नियमित टीके लगाकर करीब 1.82 लाख लोगों की जान बचाई जा सकती है। यह कोई कठिन काम नहीं है, मगर अफसोस कि एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से वंचित है।
जिस तरह जलवायु परिवर्तन के खतरे बढ़ रहे हैं, उनका सबसे अधिक असर लोगों की सेहत पर पड़ रहा है। नए-नए किस्म के जीवाणु पैदा हो रहे हैं और अगर समय रहते उन पर काबू न पाया जाए, तो वे जानलेवा साबित होते हैं। हालांकि अनेक संक्रामक रोगों पर काबू पाने के मकसद से गर्भवती महिलाओं और बच्चे के पैदा होने के बाद से ही टीके लगाए जाने शुरू हो जाते हैं। मगर इसमें भी बहुत सारे लोग अनजाने में या स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच न हो पाने के कारण लापरवाही बरतते देखे जाते हैं।
पोलियो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसमें वर्षों से पोलियो की खुराक दी जाने के बावजूद देश अभी तक पूरी तरह पोलियोमुक्त नहीं हो पाया है। मलेरिया, हेपेटाइटिस, जापानी बुखार जैसी बीमारियां जब-तब सिर उठा लेती और जानलेवा साबित होती हैं। इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी प्रदूषित वातावरण में रहने और काम करने को मजबूर है। एक बड़ी आबादी आज भी पीने के साफ पानी से महरूम है। ऐसे में संक्रामक बीमारियों पर काबू पाना कठिन बना हुआ है।
दूसरी बड़ी समस्या तमाम दावों और वादों के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे को संतोषजनक न बनाया जा सकना है। इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं की उपलब्धता सभी तक संभव नहीं हो पाती। महानगरों में फिर भी कुछ बेहतर स्थिति देखी जा सकती है, पर ग्रामीण इलाकों के बहुत सारे लोग स्वच्छता उपायों के मामले में वंचित ही देखे जाते हैं।
बड़ी आबादी को पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है, इसलिए नहाने-धोने, साफ-सफाई के मामले में लापरवाह देखे जाते हैं। उन इलाकों में जब संक्रामक रोग फैलते हैं, तो संभालना मुश्किल हो जाता है। यह अकारण नहीं है कि संक्रामक रोगों से ज्यादातर शिशु मृत्यु ऐसे ही इलाकों में होती है, जहां स्वच्छता की कमी है। लांसेट के ताजा अध्ययन पर सरकारें कितनी गंभीरता से ध्यान देंगी, देखने की बात है।