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दुनिया मेरे आगे: छूटे हुए लोग...क्या उन्हें भी अच्छे दिन आने के सपने देखने की इजाजत है?

हमारा देश खेती प्रधान है। दो तिहाई जनता आज भी गांवों में छत तलाशती है, आधी आबादी खेती में लगी है, लेकिन जमींदार, साहूकार और आढ़तियों की धौंस इस तरह कि हम आज भी धरने पर बैठ जाते हैं कि हमें तो अभी धनी किसान के साथ बंटाई, साहूकार से कर्जा और आढ़तिए के साथ सौदा करना है।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: June 03, 2024 08:46 IST
दुनिया मेरे आगे  छूटे हुए लोग   क्या उन्हें भी अच्छे दिन आने के सपने देखने की इजाजत है
मेहनत करके फसल की बिजाई की तो उसका सही मूल्य नहीं मिला। अनुदान बंटने लगा तो वंचितों से अधिक उसके बिचौलिए प्रमुख हो गए। (File Photo Express)
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सुरेश सेठ

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पूरा देश तरक्की की सुबह और बहुमंजिला प्रासादों से अंतरिक्ष छूने के ख्वाब देखता है। मगर बहुत से लोग हैं जो सड़क पर छूट गए। सड़क भी वह, जो लगातार मरम्मत के बहाने टूटफूट और गड्ढों से भरती जा रही है। सड़क पर छूटे लोग अब क्या करें? क्या उन्हें भी अच्छे दिन आने के सपने देखने की इजाजत है? सपने देखते लोग सड़कों पर बैठे थे, टूटी पगडंडियों तक आ गए। किसी ने उनसे पूछा था कि ‘आपको कितने दिन हो गए सड़क पर धरना लगाए?’ अब ऐसी बातों का भी भला कोई जवाब हो सकता है? ज्यादा पूछा जाए तो यही जवाब देंगे कि ‘सड़क पर तो हमारा हमेशा धरना रहा है, आप हमारे धरने के दिन न गिनिए। कोशिश कीजिए कि साम, दाम, दंड, भेद की कोई भी नीति अपनाकर यह धरना उठाना है।’

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हमारा यह धरना वैसे अभी नहीं, बहुत दिन से है। होश संभालने के बाद पता चला कि यहां अक्ल और रुचि नहीं, सिफारिश और सिक्कों की चमक देखी जाती है। जब इसके धनुर्धारी इन सब सीटों को हथिया लेते हैं, तो हमारे लिए जो बचता है, वह है कमतर पाठशाला और अर्थिक संकट में घिरे हुए विश्वविद्यालय। एक अनार है और सौ बीमार हैं। एक इस्तीफा देकर अनोखा कार्य करता है तो बाईस उसकी जगह लेने को तैयार बैठे होते हैं। लोग आजकल गद्दी छोड़ते कहां हैं? जाने की तैयारी कर भी लें तो अपना नाती-पोता वहां भिड़ा जाते हैं। कुछ लोग बीते युग के आदर्शों का रोना रोते हुए इस्तीफा दे गए तो उनकी अक्ल का मातम ही मनाया जा सकता है। एक भी हाथ उनके समर्थन में नहीं उठा, किसी समूह ने उनके हक में धरना नहीं दिया।

होश संभालने के बाद से ही कुछ लोग अपने साथ होती ऊंच-नीच के विरोध में धरना देने की बस सोचते रहे हैं, लेकिन ऐसी बातों पर भी कोई धरना लगाता है कि हमें सही जगह पढ़ने के लिए नहीं मिली... योग्यता अनुसार नौकरी नहीं मिली। मेहनत करके फसल की बिजाई की तो उसका सही मूल्य नहीं मिला। अनुदान बंटने लगा तो वंचितों से अधिक उसके बिचौलिए प्रमुख हो गए। स्वनामधन्य नेता इस देश का बोझ उठाते-उठाते दोहरे हो गए। उनका दारुण दुख देखा नहीं जाता। उनके हक में भाषण दिए जा सकते हैं, लेकिन उनके लिए धरने नहीं दिए जा सकते। हां, यह अवश्य किया जा सकता है कि अगर किसी समूह ने न्याय के लिए धरना दिया, तो उसे निशाना बनाने के लिए उन्हें देशद्रोही, विपक्ष की कठपुतलियां या फर्जी करार दे दिया जाए।

धरने वालों को इस प्रकार थका दिया जाए, बस वे घिघिया कर स्वयं ही नाममात्र शर्तों के साथ फैसला करने के लिए बढ़ आएंगे और समय की सरकार उदारता दिखाते हुए कह देगी कि लीजिए जनाब, हमसे आपका दुख देखा नहीं जाता था, इसलिए हमने स्वयं ही आपकी समस्याओं का हल तलाश लिया। बड़े-बड़े सिपहसालार मैदान में उतारे जा रहे हैं, जो आपकी समझ का मातम मनाते हुए असली बात समझाएंगे कि यह कदम अमीरों के हक में नहीं, उस बोसीदा जर्जर ढांचे को नष्ट करने के लिए उठाए जा रहे हैं। लोगों को यह बताना पड़ेगा कि वे सदियों से खेतीबाड़ी कर रहे हैं और महाजनी सभ्यता के बंधक हैं। गैरहाजिर जमींदार अपनी कूवत और पैसे के बल पर भागीदार कहते हुए भी हमारी मेहनत को किसी किनारे नहीं लगने देते थे।

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हमारा देश खेती प्रधान है। दो तिहाई जनता आज भी गांवों में छत तलाशती है, आधी आबादी खेती में लगी है, लेकिन जमींदार, साहूकार और आढ़तियों की धौंस इस तरह कि हम आज भी धरने पर बैठ जाते हैं कि हमें तो अभी धनी किसान के साथ बंटाई, साहूकार से कर्जा और आढ़तिए के साथ सौदा करना है। हमारे जाने-पहचाने हैं, अपना मारेगा तो भी जगह देख कर मारेगा।

वंचित रहे तो क्या? हम कहते हैं कि हमें निश्चित कीमत पर नियमित मंडियों में माल बेचने दिया जाए। हम भूल गए अपनी गरीबी को कि पहले भी कहां पूरा माल यहां बेचते थे। छह फीसद यहां बेच कर चौरानबे फीसद तो औने-पौने दाम बड़ी थैली वालों के पल्ले ही जाता था। अब हमने उनकी मंडियां बना दीं और बड़े घरानों के चटपट धनिक हमारा माल उठा लेंगे, हमारी खेती ठेके पर कर देंगे या अपनी इच्छानुसार फसलों की बिजाई करवा देंगे तो क्या आसमान टूट पड़ेगा? इसलिए इन लोगों को बड़े पैमाने पर घुसने दिया जाए, इनका पेट भरेगा, तो रूखा-सूखा हमको भी मिल जाएगा।

बड़े-बड़े शब्द हैं उनके पास। खेती का आधुनिकीकरण, व्यवसायीकरण और नए भारत का निर्माण। और हम पुरानी रिवायतों से चिपकने के लिए धरना दिए बैठे हैं। अब कैसे समझाया जाए कि धरना-वरना देने से कुछ नहीं होता है, आजकल बहती गंगा में हाथ धो लेने चाहिए। उपदेश देने वाले अपनी चौपाल सजा कर अपना भाषण देकर चले गए। पैगामों का एक बवंडर है, जो महानगरों से चलकर उनके गांव घरों तक आ गया। हमने धरना तो दे दिया, लेकिन किस-किस बात के विरुद्ध धरना देंगे? जब हर दामन टटोलते हैं तो वही गंदला लगता है। क्या बेहतर नहीं कि सब विसंगतियों को भाग्यवाद और नियति को झोली में डाल दिया जाए या सिर हिला कर कह दें ‘करम गति टारे नहीं टरै?’ लेकिन इस बार जनाब कुछ अलग-सा मिल रहा है।

इसी भाग्य और नियति की धरती पर इतने बरस कट गए, कुछ नहीं हुआ। अब कड़वे सच का सामना भी कर लिया जाए। आखिर कब तक इसका सामना करने से बचते हुए सिर्फ सपना देखने वाला एक धरना लगाते रहेंगे? क्षितिज की ओर देखते हुए उम्मीद से भरे लोगों का धरना।

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