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दुनिया मेरे आगे: दृश्य और दृष्टा, समाज का बाहरी परिवेश और मानवीय संवेदना का संबंध

वन में विभिन्न अनुभव होना अलग बात है और उन अनुभवों को गहराई से समझना और सीखना अलग बात है। यह दृश्य से पूरी तरह तादात्म्य करके नहीं, बल्कि साक्षी भाव से और कुछ दूरी रखकर समझा जा सकता है, क्योंकि साध्य तक पहुंचने के लिए साधन सिर्फ माध्यम होते हैं। पढ़े मीना बुद्धिराजा के विचार।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: April 29, 2024 09:27 IST
दुनिया मेरे आगे  दृश्य और दृष्टा  समाज का बाहरी परिवेश और मानवीय संवेदना का संबंध
हमारे आसपास का जो विशाल दृश्य है, उसे समाज का बाहरी परिवेश ही निर्धारित करता है।
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दृश्य और दृश्य की सत्ता अलग-अलग है, लेकिन दोनों का संयोग ही समस्या और दुख का मूल कारण बनता है। जबकि दृश्य की उपादेयता ही दृष्टा को मुक्त और स्वतंत्र करने में होती है। उसे कहने भर को मात्र भोक्ता न बनाकर एक साक्षी के रूप मे स्थापित करना है। जीवन के प्रवाह में तटस्थ रहकर उसके सभी अनुभवों को मुक्त होकर देखने में ही दृश्य और दृष्टा की सार्थकता है। दृश्य में ही अनुरक्त हो जाना दर्शक का उससे बाहरी अर्थ में एकरूप हो जाना है और अगर दोनों में कोई भेद नहीं रहा तो उसके वास्तविक अर्थ तक पहुंचना असंभव हो जाता है, जो आमतौर पर सतह पर दिखाई देते स्थूल दृश्य में अंतर्निहित होकर नेपथ्य की गहराई में छिपा होता है।

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आसपास का दृश्य समाज का बाहरी परिवेश ही निर्धारित करता है

हमारे आसपास का जो विशाल दृश्य है, उसे समाज का बाहरी परिवेश ही निर्धारित करता है। व्यक्ति के आतंरिक और स्वंतत्र अस्तित्व की उसमें कोई भूमिका नहीं होती। वास्तव में दृश्य का अस्तित्व दृष्टा के बिना कुछ नहीं है, क्योंकि मानवीय चेतना निरतंर विकासशील होती है, जो व्यक्ति के आत्मविवेक और जागृति पर आधारित है। उसकी संवेदना और विचार वे माध्यम होते हैं, जिसके कारण वह अपने आसपास के परिवेश के यथार्थ से अपना एक अलग सबंध जोड़ सकता है। यह सबंध अगर समाज के वर्तमान परिदृश्य से एकता का हो सकता है तो उससे विपरीत और भिन्नता का भी संभव हो सकता है। यह बोध और पहचान की प्रवृत्ति न केवल बाहर की जड़ और यांत्रिक परिस्थितियों से प्रतिक्रिया करती है, बल्कि उसमें अपनी चेतना और स्थिति का मूल्यांकन भी करती है।

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विचारक और दृष्टा जानता है कि जीवन में कोई भी चीज स्थायी नहीं है

मगर विचारक और दृष्टा जानता है कि जीवन सतत बदलता है और उसमें कोई भी चीज स्थायी नहीं है। इसलिए प्रकृति के इस स्वभाव को स्वीकार कर लेना जरूरी है। अपने अस्तित्व को उसके सभी अनुकूल-प्रतिकूल दृश्यों के रूप और सभी मनोदशाओं के साथ इस सतत प्रवाह में आगे बढ़ना ही जीवन का अर्थ हो सकता है। एक ही स्थिति में जीने की चाह और जीवन के एक ही दृश्य के साथ स्थायी और जड़ होकर बंध जाने में जो बंधन और तकलीफ है, वह मुक्त होकर नई संभावनाओं की तलाश और स्वतंत्रता को रोक देती है। यह पता भी नहीं चल पाता है कि कब किस चीज का रास्ता किसने रोक दिया।

हमारी साधारण वृत्ति दूसरे पर निर्भरता की रहती है, क्योंकि जीवन के रोजमर्रा के अनुभव किसी न किसी की स्वीकृति के सिद्धांत को पुष्ट करते हैं। हमारा भौतिक अस्तित्व प्रमाणित करता है कि पूर्णता के अनुभव के लिए दूसरे का आश्रय और अनुकरण जरूरी है। ज्यादातर दृश्यों में भी देखी जा रही विषयवस्तु ही सच का प्रमाण मानी जाती है जो किसी भीड़ के लिए एक जैसा होते हुए भी किसी दृष्टा के लिए उसका सच नहीं हो सकता। दृश्य इस अर्थ में स्थिर और जड़ न होकर निरंतर परिवर्तनशील होता है, क्योंकि बदलाव को न देखने की साधारण आदत के कारण हम किसी वस्तुगत यथार्थ को उसी रूप में देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं।

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अपनी वास्तविक चेतना के अनुसार जीना और उस दिशा में कार्य करना एक व्यक्ति के रूप में दृष्टा की पहचान होती है। पूर्व निर्धारित और प्रचलित धारणाओं से अलग जिसका नया, मौलिक और स्वंतत्र अस्तित्व होता है, उसका जीवन दर्शन और दृष्टि किसी बाहरी प्रभाव और मान्यताओं पर आश्रित नहीं होते और वह अकेला भी अपने व्यक्तित्व में हिमालय के शिखर की तरह खड़ा हो सकता है। आत्मविश्वास अपने आप में जो शक्ति देता है, उसके साथ वह किन्हीं हालात का सामना करता है। वह एक निश्चित अवधारणा और लीक का अनुकरण करने की अपेक्षा विकल्प की नई चुनौतियों को स्वीकार कर सकता है जो जीवन के लिए अपने मुक्त दृष्टिकोण के प्रति उसके प्रबुद्ध दृष्टा होने का प्रमाण होगा।

जीवन में विभिन्न अनुभव होना एक अलग बात है और उन अनुभवों को गहराई से समझना और सीखना अलग बात है। यह दृश्य से पूरी तरह तादात्म्य करके नहीं, बल्कि साक्षी भाव से और कुछ दूरी रखकर समझा जा सकता है, क्योंकि साध्य तक पहुंचने के लिए साधन सिर्फ माध्यम होते हैं। जो दृश्य में अपने होने की संकीर्ण सीमाओं से खुद को आजाद करता है, वही जीवन के उद्देश्य तक यानी मंजिल तक पहुंचा सकता है।
दृष्टा के भाव में जीने के लिए जीवन अनंत संभावनाओं से भरा होता है और उसके लिए उन्मुक्त उदार दृष्टि रखने से परिपूर्ण कई नए रास्ते भी खुलते रहते हैं।

यही जीवन की विधि और स्वभाव होना चाहिए कि उसकी दृष्टि कहीं जड़ और स्थिर होकर ठहरती नहीं, क्योंकि जो दृष्टि भोगना नहीं चाहती, वह जीवन के असीमित विकल्पों की खोज कर सकती है। इस दृश्य के विस्तार में कोई अंतिम बिंदु नहीं होता, क्योंकि अतीत के बोझ और भविष्य की आकांक्षा से मुक्त सिर्फ वर्तमान ही वह अकेला केंद्र होता है, जिस पर दृष्टा की चेतना कार्य करती है। दृश्य और दृष्टा का यही संबंध एक सहज, स्वतंत्र और गतिशील जीवन को निर्धारित करता है, जिसमें अपनी-अपनी सीमाओं से आजाद होकर दोनों का मुक्त अस्तित्व संभव है। इसमें दृष्टा की बुद्धिमता और संवेदनशीलता दृश्य को नया आयाम देती है और जीवन की यथास्थिति को हिलाकर उसे सार्थकता का सौंदर्य और सृजनात्मक ऊंचाई की दिशा दिखाती है।

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