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दुनिया मेरे आगे: विवेक के साथ विनम्रता की जरूरत, शिक्षा का आधार है ज्ञान और डिग्री

शिक्षा का औपचारिक ढांचा तभी सार्थक है, जब वह हमें डिग्री के साथ-साथ ज्ञान और विवेक भी प्रदान करता है। यह हमें प्रज्ञावान होने में मदद करता है। प्रज्ञावान मनुष्य अपने मूल अस्तित्व को हमेशा पहचानता है। मूल अस्तित्व की पहचान होने से काम, क्रोध और अहंकार से बचाने में हमारी मदद करता है। पढ़ें देवेश त्रिपाठी के विचार।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: May 20, 2024 09:21 IST
दुनिया मेरे आगे  विवेक के साथ विनम्रता की जरूरत  शिक्षा का आधार है ज्ञान और डिग्री
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो -(इंडियन एक्सप्रेस)।
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कई लोग इस बात पर बहस छेड़ देते हैं कि डिग्री ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या विवेक। जब बात शिक्षा और संस्कारों की होती है तो वहां विवेक काम आता है, पर डिग्रियों का अपना एक अलग महत्त्व है। आज जिस दौर में हम सभी जी रहे हैं, उस दौर में अगर एक व्यक्ति के पास औपचारिक शिक्षा की डिग्री नहीं हो, तो कोई उसे शिक्षित नहीं कह सकता है। लोगों का ऐसा भी मानना है कि डिग्रियों के होने से व्यक्ति बहुत समझदार भी होगा। यों यह भी माना जाता है कि डिग्रियों का होना व्यक्ति को विवेकवान, समझदार और जुझारू बनाता है। इसे हासिल कर लेने वाले लोगों के व्यवहार और बातचीत में परिपक्वता और शालीनता आ जाती है।

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अध्ययन से लेकर परीक्षा तक में विवेक को प्रधानता

शायद यही वजह है कि उनके रहन-सहन, बातचीत और वाकपटु शैली से बहुत सारे लोग सीखने की कोशिश करते हैं। आज के दौर में जब चिकित्सा, इंजीनियरिंग और अफसर बनने की होड़ में लगातार बच्चे अपना स्वविवेक का इस्तेमाल करना भूल जा रहे हैं। उन्हें कहीं न कहीं समाज और घर-परिवार रिश्तेदारों के ताने भी सुनने पड़ते हैं। पहले की पढ़ाई अपने स्वयं के अस्तित्व के खोजने के लिए होती थी। अध्ययन से लेकर परीक्षा तक में विवेक को प्रधानता थी। अब जबकि पढ़ाई का आधार कही न कहीं अधिकतम नंबर लाना, श्रेणी और परीक्षा तक सीमित रह गया है, विद्यार्थी का समूचा ध्यान विवेक के बजाय ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने पर होता है।

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पहले की पढ़ाई में लालटेन की रोशनी होती थी

पहले की पढ़ाई में लालटेन की रोशनी होती थी, बाती होती थी और आसपास प्रकाश के दायरे में फैले हुए नरकट की कलम, स्याही और सरकारी स्कूलों से पढ़ने के लिए मिली हुई किताब आदि होती थी। आज के समय में बहुत सारे लोगों और उसके बच्चों के पास तमाम सुविधाएं तो हैं, पर उसका मन पढ़ाई को लेकर उतना सजग, गंभीर और भाव प्रधान नहीं रह गया है। यही कारण है कि समूह डी और समूह सी की भर्तियों में भी परास्नातक से लेकर पीएचडी डिग्रीधारी आवेदन करते हैं। अधिकतम प्रतियोगिता होने, सीटों की संख्या सीमित होने के सापेक्ष सबको रोजगार हासिल नहीं हो पाता।

ऐसे में व्यक्ति अपने प्राप्त की गई शिक्षा और डिग्रियों को कोसता है। असफल होने पर समाज भी उन्हें ‘जस करनी तस भरनी’ कहता है। शिक्षा व्यवस्था के तहत प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के ढांचे में समय के अनुकूल जो परिवर्तन होने चाहिए, उस पर विचार करने या नहीं करने का काम गंभीरता के बिना नीति-निर्माताओं तक सीमित है।

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सरकार और समाज के साथ-साथ हमारी व्यक्तिगत जिम्मेवारी है कि न्यूनतम या फिर अधिकतम शिक्षा ग्रहण करने वाला विद्यार्थी अपनी शिक्षा की प्रति इतना गंभीर हो कि अर्जित विद्या के सभी गुण पाए, मगर उसका विवेक उसके साथ हो। आजकल की स्कूली व्यवस्था को हिंदी-अंग्रेजी जैसे भाषाई गुण के आधार पर बांट दिया गया है। हिंदी और अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम हो सकते हैं। जो व्यक्ति अंग्रेजी शिक्षा को प्रधान और हिंदी शिक्षा को कमतर मानता है, उन्हें राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’, श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’ और हरिवंश राय बच्चन के ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ जैसी किताबें पढ़ने से समझ में आ जाएगा कि भाषा एक माध्यम है अभिव्यक्ति का।

जो अपनी बात अपनी भाषा में कहता है, वही कोई बात स्पष्टता के साथ कह पाएगा। अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करना कोई गलत नहीं है, मगर इसे लेकर खुद पर गर्व करना या दूसरों को कमतर मानना गलत है। हर किसी के लिए अपने मूल तत्त्व को बचाए रखना आवश्यक है। शिक्षा हमें ज्ञान प्रदान करे, हमारे विवेक को समृद्ध करे, मगर अपनी जड़ों से अलग न करें। यह शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए कि नवाचार से जोड़े रखते हुए भी वह हमारे व्यक्तित्व के आधार से जोड़े रखे।

मुश्किल यह है कि ऐसे मौके अक्सर सामने आते रहते हैं, जब हम ऐसे लोगों का सामना करते हैं जिनके पास औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के ढांचे की डिग्रियां तो ऊंची-ऊंची होती हैं, लेकिन ज्यादातर संवेदनशील अवसरों पर वे ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसे उनके पास अपना विवेक हो ही नहीं। कहीं किसी समस्या के बारे में कोई हवाई बात पढ़-सुन कर वे उसी को आखिरी सच मान कर उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। अपनी सूझ-बूझ को ताक पर रख देते हैं। विवेक से वंचित ऐसी शिक्षा का क्या लाभ?

शिक्षा का औपचारिक ढांचा तभी सार्थक है, जब वह हमें डिग्री के साथ-साथ ज्ञान और विवेक भी प्रदान करता है। यह हमें प्रज्ञावान होने में मदद करता है। प्रज्ञावान मनुष्य अपने मूल अस्तित्व को हमेशा पहचानता है। मूल अस्तित्व की पहचान होने से काम, क्रोध और अहंकार से बचाने में हमारी मदद करता है। शिक्षा का उद्देश्य धनार्जन के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो डिग्री और विवेक में फर्क करता है, उन्हें एक समय के बाद यह एक दूसरे से पर्याय नजर आने लगते हैं। जबकि समझदारी इन दोनों से अलग है और यह विवेक के साथ अभिन्न है।

समझदारी आने से गंभीरता और एकाग्रता तथा आत्मचिंतन के साथ-साथ आत्म अनुशासन भी व्यक्ति में झलकने लगता है। विद्या हमें विनय सिखाती है और विनय हमें विद्या ग्रहण का पात्र बनाता है। जिस व्यक्ति के अंदर उच्च शिक्षा होते हुए भी विनम्रता का अभाव होता है, वह इस पृथ्वी पर भार के सामान होता है। विनम्रता को लेकर ‘सुभाषितानि’ में अनेक श्लोक कहे गए हैं, पर उन श्लोकों को पढ़ने-समझने और अर्थ ढूंढ़ने के बावजूद अपने अंदर परिवर्तन का अभाव हो तो उसमें तत्काल सुधार की जरूरत है।

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