दुनिया मेरे आगे: बदलते युग की पहचान, समय बदला तो सोच भी बदल गई, पुराने लोग और पुरानी बातें
शब्दकोष बदल गए हैं और उसके साथ ही साथ इन शब्दकोषों के अर्थों को शिरोधार्य करने वाले लोग भी बदल गए हैं। आजकल शिरोधार्य वगैरह शब्द कहां स्वीकार किए जाते हैं! अवज्ञा का भाव ही बदलते युग की पहचान है। बदी पर नेकी की, झूठ पर सच की और बुराई पर भलाई की जीत की बात पढ़ते आए थे। जब से हमने होश संभाला, तभी से पाठशाला को मंदिर-सम माना जाता था और गुरु वंदना का तो बाकायदा एक दिन निर्धारित होता था। देखते ही देखते जब हमारी उम्र ने गुजरने की रफ्तार पकड़ी तो यह सब विश्वास, मूल्य और मान्यताएं भी अपना रूप बदल गईं।
पहले नेकी करने का मुकाबला होता था, अब बदल गया माहौल
पहले सुना था कि केवल गिरगिट रंग बदलता है, लेकिन अब अगर हर मौसम, हर दिन या हर पल रंग न बदल पाएं तो उसके लिए हैरानी जताई जाएगी। जमाना बदलता गया। पहले नेकी कर के दरिया में इसलिए डाल देते होंगे कि यह बह कर घाट-घाट से गुजरे और नेक बंदों से यह दुनिया इतनी सुगंधित हो जाए कि इत्र-फुलेल वालों को भी अपनी दुकानें बंद करनी पड़ें। सुनते थे कि जो बेचते थे दर्दे दिल, वे दुकान अपनी बढ़ा गए। मगर अब नेक बंदों को दिल टूटने का यह मर्ज कैसा? नेकी का माहौल था, हर आदमी दूसरे से बढ़ कर नेकी करने पर तुला हुआ था।
पहले जैसी सोच वाले लोग अब नहीं रहे, जो हैं वह वैसी सोचते नहीं
ऐसे में बाहरी खुशबू की तलाश कौन करता? अब खुशबूदार लोगों ने इत्र-फुलेल को विदा दे दिया तो नेकी ने भी रंग बदल लिया। जमाने की बदलती चाल ने नेकी के नाम पर नई पंगत सजानी शुरू की तो उसने भी तेज चाल पकड़ ली। नाम तो अभी भी नेकी का ही लिया जाता है। नहीं तो नेक बंदों के ठप्पे कम न पड़ जाते? लेकिन हकीकत यह है कि अब नेकी करके आज के नेक बंदे दरिया में डालने नहीं जाते, उसे अपने ही घर के पीछे में बने कुएं में डालते चले जाते हैं।
देश में लोगों के लिए कुएं खुदवाने की परंपरा बहुत पुरानी है। धर्मी-कर्मी लोग कुएं खुदवाते थे, प्यासे जनों की प्यास बुझाने के लिए। सत्य कर्म का यह बोलबाला था कि प्यासे कम और कुएं अधिक हो गए थे। कहते थे कि सबको अपने पितरों की चिंता थी। इस धरती पर कुआं खुदवा कर प्यासों को पानी मिलेगा या दोगे तो ऊपर स्वर्ग में तुम्हारे पितरों को अमृत ही नहीं मिलेगा, वे उसे अधिकार से ले लेंगे।
अब जमाना बदल गया है! धनी-मानी लोगों के घरों के पीछे कुएं तो आज भी खुदवाए जाते हैं, लेकिन वे चलते कुएं नहीं कि जहां राहगीर अपनी प्यास बुझा लें। देखते ही देखते ये कुएं बेकार हो गए। जमाना राहगीरों को पानी पिलाने का नहीं, रहजनों को चंग पर चढ़ाने का है। किसी जमाने में राजा-महाराजा अपना और अपने पूर्वजों का खजाना अनंतकाल तक सुरक्षित रखने के लिए तिलिस्म बांधते थे। तिलिस्म की कहानियां तभी प्रचलित हुईं थीं। देवकी नंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ उन्हीं दिनों में लिखे गए थे। चुनार के बीहड़ जंगलों में देवकी नंदन एक अधिकारी थे। तभी उन्होंने चंद्रकांता और उनकी संतति लिखे थे। जब भूतनाथ और देवी चंद जैसे ऐय्यारों ने उन्हें बींधा था और राजा वीरेंद्र सिंह और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए रानी चंद्रकांता सहित उन्हें पेश किया था।
अब केवल अच्छा लगता है ऐसी बातें कहना-सुनना। तब जिंदगी अनिंद्य सौंदर्य से भरी और रहस्यपूर्ण थी। लोग ऐसी दुनिया में रहते थे जहां राजा शूरवीर और नेक थे, उनके ऐय्यार उन पर जान कुर्बान करने के लिए तैयार रहते थे और खुशबू की विरासत पीढ़ी-दर-पीढ़ी तिरती चली जाती थी। अब खुशबुओं के जमाने लद गए। लोकतंत्र ने गद्दियों पर ऐसे महाराजा पेश कर दिए जो उम्र भर के लिए राजकाज अपने नाम ठेके पर लिखवा लेना चाहते हैं।
नेकी के दरिया सूख कर बदी के रेगिस्तान बन गए, जहां चलते अंधड़ों में जन-सेवकों ने शुतुरमुर्गों की तरह अपने मुंह छिपा लिए। अब जन सेवा बन गई परिवार सेवा। भाई-भतीजावाद कल्याण का पर्याय बन गया। आदर्शों के तिलिस्म टूटे और बड़े लोगों के घरों के पीछे ऐसे कुएं बन गए कि जिनके पास कोई आम जन फटक भी न पाए। पहले उन कुओं पर जन कल्याण और सर्व-समर्पण के नाम पट्ट लगे रहते थे। अब तो परिवार जनों और व्यावसायिक घरानों ने अपने ब्रांड लगा दिए।
मुहावरे ‘सुधार’ दिए गए हैं। पहले कहते थे, डॉक्टर का बेटा डाक्टर और जनसेवक का बच्चा जनसेवक, जो उसकी कीर्ति, शराफत, सच्चाई और नेकी को सात जन्म तक चमकाए। अब युग की तासीर बदल गई। नेता का बेटा नेता और शठ का बेटा शठ न निकले तो सोने पर सुहागा का मुहावरा क्यों न दूसरा अर्थ समझाए। अब बेकार पड़े कुओं के इस नखलिस्तान में ताकतवर का ही ‘सात बीसी सौ’ है और पुराने मूल्यों के साथ-साथ पूरा गणित ही आत्मकेंद्रित हो गया है।
ऐसे माहौल को अब कोई ‘जा रे जमाना’ भी नहीं कहता। यही नया जमाना है, जिसे धरोहर मान हर बड़े आदमी को अपने लिए संजो कर रखना है। जो सदियों से फिसड्डी थे, वे तो आज भी फिसड्डी रहेंगे, एक दिलासा भरे भाषण पर तालियां पीटते फिसड्डी। एक शोभायात्रा में ध्वज उठा कर चलते हुए फिसड्डी और हर जागरण यात्रा का सैलाब गुजर जाने के बाद जो अपने आप को और भी अंधेरे में पाते हैं।