दुनिया मेरे आगे: युवाओं का बेपरवाह मन और पुरानी सोच के लोग, दुविधा में फंसा आधुनिक समाज
पावनी
आज देश में युवाओं की संख्या इतनी है कि ये अगर चाहें तो समाज को सौभाग्य, ऊर्जा और विकास से सराबोर कर सकते हैं। युवा शब्द में ही एक बेहतरीन भाव निहित है। मतलब कि तर्कशील मन। सोच में खुलापन, उदारता, वैचारिक संपन्नता। पर आज हमारे देश का चित्रपट्ट युवाओं का यह रंगरूप नहीं पेश कर रहा। आज ऐसा लगने लगा है कि युवाओं को लेकर सारी कहावतें हवा हो गई हैं। कहीं तो कुछ गड़बड़ी है हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक सोच या सामाजिक चलन में! कहीं कुछ असंतुलन है, जिससे हमारे युवा खोखले विचारों से भटके हुए और दुविधा में फंसे-अटके से नजर आते हैं।
पहले समाज के लिए काम आने का मौका खोजते थे युवा
दरअसल, एक अजीब-सी घटना हुई। युवकों के एक पूरे दल को लापरवाही से उस माहौल को नजरअंदाज करते देखना बहुत ही दर्दनाक दृश्य था। एक आदमी को उसके स्कूटर से गिराकर दो लुटेरे उसका बैग और मोबाइल छीन कर भागने लगे। वह आदमी घबराकर सड़क पर नीचे गिर पड़ा और दूसरे ही पल उठा और बस चीखने-चिल्लाने लगा। वहां नौजवान आसपास थे, लेकिन एकदम ऐसे गुजर गए जैसे उनको कुछ लेना-देना ही न हो। कुछ ही दिनों में वे लुटेरे पकड़ लिए गए। रकम बरामद हो गई। पर उस समय वह दृश्य देखने के बाद एक नब्बे वर्षीय बुजुर्ग अपनी बात साझा कर रहे थे कि हमारे समय में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे युवाओं की मिसाल ऐसी हुआ करती थी कि हम किसी भी तरह समाज के काम आने का मौका खोजते थे।
कुटुम्ब की परिभाषा भी बदल गई, संवेदनशीलता भी घटी
कोशिश करते थे कि किस तरह अपना तन, मन और धन देश, समाज, मानवता के लिए अर्पित कर सकें। पर आज युवाओं को इस बात से कोई मतलब ही नहीं रह गया है कि हमारे देश की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हालत कैसी है। आम भारतीय आज किन-किन समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं, उन पर काम कैसे करना है, वे अपने दायित्व को खुद ही समझना नहीं चाहते। युवा पीढ़ी का यह रूप बहुत निराश करने वाला है। मौजूदा दौर में कुटुंब की परिभाषा भी बदली है। घरों की संरचना ऐसी हुई है कि परिवार नामक पाठशाला से युवा कुछ भी संवेदनशील और मानवीय नहीं सीख पा रहे हैं। आज युवा के पास समय है ही नहीं। वह अजीब ढंग से आत्मकेंद्रित हो गया है। वह गहराई से सोचना नहीं चाहता। कुछ करना नहीं चाहता। उसका अक्सर ऐसा जवाब आने लगा है कि ‘मेरी बला से’! जबकि बदलाव के वाहक युवा ही रहे हैं हमेशा।
बदलता जा रहा है आधुनिक समाज और संसार का चलन
उनकी गरिमामय तस्वीर धुंधली होती देखकर मन दुखी होता है। पर आज लगभग सभी युवा इस बात से बाखबर नहीं हैं, हालांकि यह सुनकर कुछ लोग एक नया तर्क देते हैं कि भावुक बातें करके युवाओं को लड़खड़ाने पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। सुलझाने की जरूरत है। तकनीक का विस्तार हो रहा है। समाज और संसार का चलन बदल रहा है। युग अर्थ प्रधान हो रहा है, तो युवा भला अपने बारे में क्यों न सोचें? हम सब गवाह हैं कि युवा पीढ़ी पढ़ने-लिखने से दूर होती जा रही है और आभासी पाठ्यक्रमों से प्रमाणपत्र एकत्र कर रही है। पर किसी विषय का तत्त्व उसको नहीं पता। कितने हजार गांव और कस्बे ऐसे हैं, जहां के युवा जाति, वर्ग, धर्म, भाषा की जंजीरों में जकड़े हुए हैं। कहने को पूरे देश में हजारों युवा संगठन हैं।
लाखों ऐसे सामाजिक समूह हैं, जो युवा संवाद करते हैं। पर सच्चाई यह है कि वे सब किसी राजनीतिक पार्टी की आर्थिक मदद से काम कर पा रहे हैं। जाहिर है, वे उस दल की वैचारिकी को तवज्जो देते हैं और उनसे जुड़े युवा किसी धरने आदि में शोर मचाने के काम आ रहे हैं। इससे वे और ज्यादा विचलित तथा दिग्भ्रमित हो रहे हैं। एक अस्पताल के पास एक रोगी अपनी बारी की प्रतीक्षा करता अचानक बेहोश हो गया। कारण यह था कि चिकित्सक महोदय किसी वीआइपी को सेहत दुरुस्त रखने की सलाह दे रहे थे और वह टीवी चैनल के वीडियो कैमरों में रिकार्ड हो रहा था।
उस बेहोश मरीज को देखकर वहां खड़े युवा बेबस देखते जा रहे थे, तभी एक बूढ़ी-सी महिला आई और उस मरीज की जेब से उसका पहचानपत्र निकालकर सीधा डाक्टर के पास जाकर बोली कि यह बेहोश मरीज भी उतना ही भारतीय नागरिक है, जितना ये महाशय, जिनके कारण बाकी गरीब मरीज इंतजार में बाहर झुलस रहे हैं। सोचने वाली बात यह है कि वहां उपस्थित नौजवान जड़ क्यों थे? युवाओं के साथ देश और समाज की भावनाएं जुड़ी होती हैं। पुरानी पीढ़ियां उनके भरोसे अपनी विरासत छोड़ जाना चाहती हैं। वे कोमल संवेदनाओं को समझते क्यों नहीं? युवाओं की संपूर्ण दिनचर्या से समाज के रंग ही गायब हो गए हैं। शायद अब यहां लोग रोबोट की बैसाखियों से दुरुस्त विचार और चुस्त जीवन का रास्ता पाना चाहेंगे और इस तरह सतर्क, सजग युवाओं के अभाव में एक खालीपन भरी सुरक्षा का विकल्प खोजने लगेंगे।