दुनिया मेरे आगे: मनुष्य धरा के अनुपम उपहारों के लिए प्रकृति के प्रति हृदय से कृतज्ञता जताएं
संगीता सहाय
मनुष्य इस धरा का सबसे चैतन्य प्राणी है। उसने लाखों-करोड़ों वर्षों के अथक प्रयासों से अपने जीवन को संवारा और धरती के सौंदर्य को द्विगुणित किया। धरा के आंचल में जड़े अगणित भूषणों का सदुपयोग कर उसने जीवन को सहज और सरल बनाया और प्रकृति के संग कदमताल करता आगे बढ़ता गया। स्थल के साथ-साथ जल और आसमान में भी अपनी अकाट्य उपस्थिति दर्ज कराई।
पर कब वह प्रकृति में अपने हिस्से के ‘कुछ’ से ‘सब कुछ’ समेटने वाला बन गया, उसे अहसास ही नहीं हुआ। आज मनुष्य सब कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेने का ख्वाब लिए लालच के वशीभूत होकर धरा और जल-थल के कण-कण को पैसे में तब्दील करने के लिए दिन-रात एक किए हुए है। उसकी लिप्सा का आकार इस हद तक व्यापक हो चुका है कि वह ‘भस्मासुर’ बना अपने आप को ही मिटाने को आतुर हो गया है।
मनुष्य का यह भटकाव उसके अस्तित्व को समाप्त करने का प्रयत्न दिख रहा है। यह स्थिति ममत्व से भरी इस प्रकृति के लिए सर्वाधिक पीड़ादायी है। एक पुराने पड़ोसी रहे परिचित कई तरह की निराशाओं से जूझ रहे थे, हालांकि पहले वे अपनी जिंदादिली और खुशमिजाजी के लिए जाने जाते थे। बातों-बातों में उनकी व्यथा जाहिर हुई कि अपने इकलौते बेटे को मनमाफिक पद न मिल पाने से वे काफी निराश हैं।
आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक हर स्तर से समृद्ध उस शख्स का इतनी सामान्य-सी बात के लिए यों दुखी होना उसे जानने वाले किसी भी व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर सकती थी। लेकिन क्या वे ऐसे अकेले और पहले व्यक्ति होंगे? इन दिनों ऐसी बातें आमतौर पर हर दूसरे व्यक्ति में देखी जाने लगी हैं। आज लोगों के पास जो है, उसके प्रति कृतज्ञता न अर्पित कर जो अपने पास नहीं है, उसे पाने की जुगत में वे अपनी जिंदगी होम किए जा रहे हैं। अपनी सारी ऊर्जा इसी में जाया करने में लगे हैं कि ‘हमारे पास क्या है तथा क्या और होना चाहिए’। यह मृगमरीचिका ही लोगों को लगातार नाखुशी की ओर धकेल रहा है।
वर्तमान समय में अधिकतर लोग अपनी परिस्थितियों से खुश नहीं हैं। वे अपने पद, प्रतिष्ठा, संपत्ति आदि से असंतुष्ट रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे जिस लायक थे, उतना उन्हें मिला नहीं और सामने वाला उनसे कमतर होने के बावजूद ज्यादा सुखी और संपन्न है। एक अजीब-सी आकुलता हर ओर पसरी है। जो पास है, उससे हम खुश नहीं हैं और जो पास नहीं है, उसके लिए बावरे होकर इधर-उधर भटक रहे हैं।
‘उसका मकान मुझसे ऊंचा क्यों’? यह बात लोगों में रोग की भांति फैलता जा रहा है। कमोबेश ज्यादातर की जिंदगी बस कई-कई घर, गाड़ी, बंगला, गहने, जमीन, ऐशो-आराम के साधनों की भीड़… बस इन्हीं के प्यास और येन-केन-प्रकारेण प्राप्ति के प्रयास में बीत रही है। अंतहीन ऐश्वर्य और रसूख जीवन का मूल बनता जा रहा है। ऐसे में सुकून का खोना स्वाभाविक है।
जब हम अपने होने के अर्थ और अपनी वास्तविक खुशियों के मायने ही भूलने लगेंगे तो ऐसा होगा ही। अपने गुणों को तपाकर, निखारकर आगे बढ़ना, शिखर तक पहुंचना, मनमाफिक जीवन चुनना बहुत अच्छी बात होती है। विकास के विस्तार की अनंत जिजीविषा ने ही मनुष्य को पाषाण कालीन समय से विकास के इस चरम वेला तक पहुंचाया है।
किसी भी देश और समाज का विकास भी मनुष्य की इन्हीं अदम्य इच्छाओं की राहों से होकर गुजरता है। पर साथ ही विकास और विनाश के बीच उपस्थित महीन रेखा को जानना और पहचानना भी उतना ही आवश्यक है। ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय’, जैसे वाक्य को आत्मसात करने वाले देश में भौतिकवाद की ये हदें वास्तव में वर्तमान समय में समाज के कण-कण में समाहित हो चुके भ्रष्टाचार के सबसे बड़े कारकों में से एक है।
महात्मा गांधी कहते हैं, ‘प्रकृति के पास हमारी जरूरतों की पूर्ति के लिए काफी है, पर हमारे लालचों की पूर्ति के लिए नहीं’। हम सबके लिए यह बात महत्त्वपूर्ण और गौरतलब है। हर व्यक्ति को यह तय करना होगा कि उसे क्या और कितना चाहिए। अपनी सीमाओं का निर्धारण उसे खुद ही करना होगा। तभी दूसरों का हिस्सा बचा रहेगा।
यह धरती सिर्फ चंद लोगों के जरूरतों की पूर्ति के लिए नहीं है। प्रत्येक मनुष्य का इस पर समान अधिकार है। इससे भी आगे इस जल, थल और आसमान में पनाह पाने वाले, जीने वाले सभी चर-अचर जीवों का इस पर समान अधिकार है। ऐसे में यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने हिस्से का जीवन जीते हुए उतने ही साधनों और संसाधनों का उपयोग करे, जो उसके लिए जरूरी है।
आवश्यक यह भी है कि मनुष्य अपने होने, अपनी भावप्रवणता, चेतना और धरा के अनुपम उपहारों के लिए प्रकृति के प्रति हृदय से कृतज्ञता और धन्यवाद ज्ञापित करे। अन्यथा महत्त्वांक्षाओं की भूख की कोई सीमा नहीं है। यह भूख किसी को ऐसी होड़ में झोंक दे सकती है, जहां व्यक्ति कुछ पाने की तड़प में खुद को ही खो देता है।