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परंपरा और सोच के साथ सभ्यता का विकास, व्यवहार और व्यवस्था के भीतर प्रेम और करुणा की खोज

गलती यह हुई कि हमने अपने ज्ञान के स्रोतों को शाश्वत सत्य का पर्याय मान लिया और उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद के आध्यात्मिक विकल्प की तरह ज्यों का त्यों अनुकरणीय बनाए रखा। हम अपनी परंपरा की वैज्ञानिक व्याख्या के लिए राजी नहीं हुए। हमें लगा कि विज्ञान अभी वहां तक पहुंच ही नहीं पाया है, जहां हम सदियों पहले पहुंच गए थे। पढ़े विनोद शाही का लेख।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: March 17, 2024 10:27 IST
परंपरा और सोच के साथ सभ्यता का विकास  व्यवहार और व्यवस्था के भीतर प्रेम और करुणा की खोज
विकास के अपने वैकल्पिक माडल खड़ा करने की प्रेरणा कहीं से मिल सकती है, तो वे हमारे अपने वही ज्ञान के स्रोत हैं
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आधुनिक काल के पुनर्जागरण ने मानवजाति की सोच को उसकी वास्तविक जमीन प्रदान करते हुए पार्थिव बनाया। हम सूर्य केंद्रित सोच और समझ को पीछे छोड़ कर पृथ्वी को अपना वास्तविक घर मानने और उसे बेहतर बनाने का प्रयास करने की ओर आए। इस काम में विज्ञान ने हमारी मदद की। सूर्य को केंद्र से हटाने का मतलब था, ईश्वर, देवता और चेतना को केंद्र से हटाना और उनकी जगह मनुष्य, प्रकृति और पदार्थ को केंद्र में लाना। यह तब्दीली उससे अधिक गहरी थी, जितनी ऊपर से नजर आती थी। इसका मतलब था, एक नई मूल्य-व्यवस्था को जन्म देना। ईश्वर, देवता और चेतना को अपना केंद्र मानने से जुड़े मूल्य हमें सार्वभौम ब्रह्मांड का नागरिक बनाते थे। वे हमें हमारे पार्थिव और दैहिक अहंकार से बाहर निकाल कर ईश्वर, देवता और चेतना से उद्भूत प्रेम और करुणा को हमारे मानवीय होने का हेतु बनाते थे। मगर इससे अतार्किक और अवैज्ञानिक सोच भी पैदा होती थी।

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ज्ञान के स्रोतों की ओर नई दृष्टि से घूमें और मनुष्य या जन केंद्रित व्याख्या करें

जाहिर है, यह तब्दीली हमसे आग्रह कर रही थी कि हम अपने ज्ञान के स्रोतों की ओर नई दृष्टि से मुड़ें और उनकी मनुष्य या जन केंद्रित व्याख्या करें। अब हमें प्रेम और करुणा वाले अपने मानवीय सार को ईश्वर की कृपा से नहीं, अपने व्यवहार और अपनी नई व्यवस्था के भीतर से पैदा होने वाली जरूरत की तरह खोजना था। यह काम हमें इसलिए करना था, ताकि हम अपने ज्ञान के स्रोतों से दूर भी न हों और उन्हें सामंती समाज-व्यवस्था को वापस लाने वाले पुनरुत्थान का शिकार होने से भी रोक सकें।

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हमने अपनी पराजय और गुलामी के कारण वहां नहीं खोजे, जहां वे थे

अब हम इस आलोक में अपने औपनिवेशिक दौर के पुनर्जागरण के अंतर्विरोधों को समझने की कोशिश कर सकते हैं कि हमसे गलती कहां हुई? गलती यह हुई कि हमने अपने ज्ञान के स्रोतों को शाश्वत सत्य का पर्याय मान लिया और उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद के आध्यात्मिक विकल्प की तरह ज्यों का त्यों अनुकरणीय बनाए रखा। हम अपनी परंपरा की वैज्ञानिक व्याख्या के लिए राजी नहीं हुए। हमें लगा कि विज्ञान अभी वहां तक पहुंच ही नहीं पाया है, जहां हम सदियों पहले पहुंच गए थे। इस तरह हमने अपनी पराजय और गुलामी के कारण वहां नहीं खोजे, जहां वे थे। हमने ऐसा करके अपनी बहुत-सी कमजोरियों पर पर्दा डाले रखा। इससे हम अपने जमीनी स्रोतों से आने वाली उस सांस्कृतिक चेतना और ऊर्जा को खो देते हैं, जो हमें मौलिक विकास करने लायक बना सकती है। हमें अगर विकास के अपने वैकल्पिक माडल खड़ा करने की प्रेरणा कहीं से मिल सकती है, तो वे हमारे अपने वही ज्ञान के स्रोत हैं, जिन पर सांस्कृतिक भक्तिवाद ने पर्दा डालकर ढक रखा है।

अपनी परंपरा को अपने समय से आगे मानने वाले अपने उस अतीत की ओर देख रहे हैं, जिसमें हमने अपनी मौलिक उत्पादन पद्धतियों और विज्ञान शिल्पगत विद्याओं के सहारे अपनी व्यापारिक पूंजी का अद्वितीय विकास किया था। उसके पीछे अनेक विद्याओं यानी उत्पादन पद्धतिमूलक तकनीकों की बड़ी भूमिका थी। उनमें प्रकृति के जमीनी अनुसंधानों पर आधारित आयुर्वेद, धातु विज्ञान और उस पर आधारित अस्त्र-शस्त्र विद्याएं, देह विज्ञान पर आधारित प्राण विद्या एवं योग विद्या और ज्योतिर्विज्ञान यानी खगोलविज्ञान पर आधारित ऋतुचक्र संबंधी भविष्यवाणियों द्वारा कृषि सभ्यता का विकास मुख्य हैं।

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परवर्ती समय में यह ज्योतिर्विज्ञान, लोगों को भ्रम में डालने वाले ज्योतिष शास्त्र में तथा योग, तंत्र मंत्र के कर्मकांड में बदल गया। इस तरह अध्यात्म से निकले पाखंडपूर्ण अमूर्तन ने भारत के वैज्ञानिक आधार वाली विद्याओं को अपनी जमीन से अपदस्थ कर दिया।

कहने की जरूरत नहीं कि भक्ति हमारी मानसिक गुलामी की शुरुआत थी। वह हमारी सोच के अवैज्ञानिक हो जाने की तार्किक परिणति थी। उसने हमें इस यथार्थ से पलायन करने का सुविधा पूर्ण मार्ग सुझाया। भक्ति के प्रवेश के बाद से भारत का निरंतर पतन होता चला गया।
दूसरी ओर, पुराणकाल में ही दार्शनिक सत्यों का रचनात्मक पाठ करने वाले रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य भी रचे गए। वे दर्शनों और भक्ति की विचारधारा के बीच डोलते हुए, इन दोनों से अलग अपना मौलिक और रचनात्मक रास्ता बनाते हैं। वे उस दौर के सामाजिक परिदृश्य को हमारे सामने लाते हैं। उन्हें अगर हम परवर्ती समयों में उन पर आरोपित की गई भक्ति की निगाह से पढ़ने की जगह, सभ्यता के विकास के आख्यान की तरह देखेंगे, तो ही उनके निहितार्थ के करीब हो सकेंगे। उन्हें यदि हम इतिहास से संस्कृति तक की यात्रा के आधार ग्रंथों की तरह देख सकें, तो बहुत-सी बातें स्पष्ट हो सकती हैं।

हमारे दार्शनिक काल के तुरंत बाद के शास्त्रीय काल का पहला महाकाव्य ‘रामायण’ है जिसकी रचना वाल्मीकि ने की थी। यह कृति हमें उस सामाजिक इतिहास को समझने में मदद करती है, जब हम मातृसत्तात्मक कबीलाई समाज से पितृसत्तात्मक कृषि सभ्यता में प्रवेश कर रहे थे। राम जिस तरह के व्यवहार को हमारे समाज की मर्यादा से जुड़े मूल्य और संबंधों का आधार बनाते हैं, उन्हें पितृसत्ता के शुरुआती रूप की तरह देखा जाना चाहिए।

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