pat-हिमालय पर बढ़ता तापमान: जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए खतरे की घंटी
संपूर्ण हिमालय के पहाड़ और भूभाग इक्कीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े बदलाव के खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। इसकी स्थायी हिम-रेखा सौ मीटर पीछे खिसक चुकी है। यहां जाड़ों में तापमान एक डिग्री बढ़ने से हिमखंड तीन किमी तक सिकुड़ चुके हैं। नतीजतन बर्फबारी का ऋतुचक्र डेढ़ महीने आगे खिसक गया है।
हिमालय क्षेत्र में जो बर्फबारी दिसंबर-जनवरी माह में होती थी, इस वर्ष वह फरवरी मध्य से शुरू होकर मार्च तक चली। उत्तराखंड के वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1901 से लेकर 2018 तक के जलवायु अनुसंधान इकाई के आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाला है कि तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो आठ से दस साल के भीतर हिमालय पर बर्फबारी का मौसम पूरी तरह परिवर्तित हो जाएगा या बर्फबारी की मात्रा घट जाएगी।
दिसंबर-जनवरी की बर्फीली बारिश इन महीनों में तापमान कम होने के कारण सूख कर जम जाती थी, लेकिन इस बार जो बर्फ गिरी, वह तापमान ज्यादा होने के कारण पिघल कर बह गई। आशंका जताई जा रही है कि इस बार हिमालय की चोटियां जल्द ही बर्फ से खाली हो जाएंगी।
बीते एक दशक में सर्दी में तापमान तो बढ़ा है, जबकि गर्मी का स्थिर है। इसलिए हिमालय में गर्मी ज्यादा समय बनी रहती है। ये बदलते हालात हिमालय के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए खतरे की घंटी हैं। स्थायी बर्फीली रेखा हिमालय पर चार से पांच हजार मीटर ऊपर होती है। यह स्थायी बर्फ के कारण बनती है। इसके तीन हजार मीटर नीचे तक वनस्पतियां नहीं होती हैं।
इस रेखा के पीछे खिसकने से जहां पहले कम तापमान में हिमपात होता था, वहां अब बारिश होने लगी है। परिणामस्वरूप हिमालय के कई किमी क्षेत्र से बर्फ विलुप्त होने लगी है। इस सिलसिले में वाडिया संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम चक्र बदलने का सबसे ज्यादा असर देश के पूर्वोत्तर भाग में हुआ है।
सुदूर संवेदन उपग्रह के आंकड़े बताते हैं कि अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2021 के मध्य ज्यादातर हिमखंड नौ मीटर प्रतिवर्ष की औसत गति से 210 मीटर पीछे खिसक गए हैं। जबकि लद्दाख में यह रफ्तार चार मीटर प्रतिवर्ष रही है। कश्मीर के हिमखंडों के पिघलने की गति भी लगभग यही रही है।
जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी हिमखंड हुआ करता था। परंतु जैसे-जैसे तापमान बढ़ा और ऋतुचक्र बदला वैसे-वैसे हिमखंड सिकुड़ता चला गया। 1817 से लेकर अब तक यह अठारह किमी से ज्यादा पीछे खिसक चुका है। 1971 के बाद से हिमखंडों के पीछे हटने की रफ्तार बाईस मीटर प्रतिवर्ष रही है।
कुछ साल पहले गोमुख के विशाल हिमखंड का एक हिस्सा टूट कर भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखंडों का इस तरह से टूटना प्रकृति का अशुभ संकेत माना गया है। इन टुकड़ों को गोमुख से अठारह किलोमीटर दूर गंगोत्री के भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया था। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखंड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी।
तब भी ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होना बता रहे थे। इस कम बर्फबारी की वजह धरती का बढ़ता तापमान बताया जा रहा है। अगर कालांतर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और हिमखंड क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है। हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघु द्वीप और समुद्रतटीय शहर डूबने लग जाएंगे।
अब तक हिमखंडों के पिघलने की जानकारियां तो आती रही हैं, किंतु किसी हिमखंड के टूटने की घटना अपवादस्वरूप ही सामने आती है। हालांकि कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों की ताजा अध्ययन रपट से पता चला था कि ग्लोबल वार्मिंग से बढ़े समुद्र के जलस्तर ने प्रशांत महासागर के पांच द्वीपों को जलमग्न कर दिया है।
गनीमत है कि इन द्वीपों पर मानव बस्तियां नहीं थीं, इसलिए दुनिया को विस्थापन और शरणार्थी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। दुनिया के नक्शे से गायब हुए ये द्वीप थे, केल, रेपिता, कालातिना, झोलिम और रेहना। पिछले दो दशकों से इस क्षेत्र में समुद्र के जलस्तर में सालाना दस मिली की दर से बढ़ोतरी हो रही है।
गोमुख द्वारा गंगा के अवतरण का जलस्रोत बने हिमालय पर हिमखंडों का टूटना भारतीय वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानते हैं। उनका कहना है कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखंडों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखंड टूटने लगे। अभी गोमुख हिमखंड का बार्इं तरफ का एक हिस्सा टूटा है।
उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखंडों को कमजोर किया है। आंच और धुएं से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। अब वैज्ञानिक यह आशंका भी जता रहे हैं कि धुएं से बना कार्बन अगर शिलाओं पर जमा रहा, तो भविष्य में नई बर्फ जमनी मुश्किल होगी।
हिमखंडों का टूटना नई बात है, लेकिन इनका पिघलना नई बात नहीं है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखंड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। मगर भूमंडलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता बढ़ा दी है।
एक शताब्दी पूर्व भी हिमखंड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था। इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। पर 1950 के दशक से इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना शुरू हो गया। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई। इसके बाद से गंगोत्री के हिमखंड हर वर्ष पांच से बीस मीटर की गति से पिघल रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति उत्तराखंड के पांच अन्य हिमखंडों- सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदादेवी और चोराबाड़ी की है।
भारतीय हिमालय में कुल 9,975 हिमखंड हैं। इनमें नौ सौ उत्तराखंड में आते हैं। इन हिमखंडों से ही ज्यादातर नदियां निकली हैं, जो देश की चालीस फीसद आबादी को पेयजल, सिंचाई और आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। पर हिमखंडों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही पचास करोड़ आबादी को रोजगार और आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके।
बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, मगर औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं। पर्यटन के चलते मानवीय गतिविधियां हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही हैं, उन पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा हमारी ज्ञान परंपरा में हिमखंडों की सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें महत्त्व देना होगा।