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न्याय और नेतृत्व के सर्वोच्च प्रतीक हैं भगवान श्रीराम

रामायण तथा अन्य पुराणों के अनुसार भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व त्रेता युग में अयोध्या में हुआ था।
Written by: जनसत्ता | Edited By: Bishwa Nath Jha
नई दिल्ली | Updated: April 08, 2024 12:55 IST
न्याय और नेतृत्व के सर्वोच्च प्रतीक हैं भगवान श्रीराम
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो -(इंडियन एक्सप्रेस)।
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योगेश कुमार गोयल

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भगवान श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष चैत्र मास की शुक्ल पक्ष नवमी को रामनवमी का त्योहार अपार श्रद्धा, भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है, जो इस वर्ष 17 अप्रैल को मनाया जा रहा है। इस दिन श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में उत्सवों का विशेष आयोजन होता है, जिसमें भाग लेने के लिए देशभर से श्रद्धालु अयोध्या पहुंचते हैं तथा सरयू नदी में स्रान करते हैं। समूची अयोध्या नगरी इस दिन पूरी तरह राममय नजर आती है और हर तरफ भजन-कीर्तनों तथा अखंड रामायण के पाठ की गूंज सुनाई पड़ती है।

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देशभर में अन्य स्थानों पर भी जगह-जगह इस दिन श्रद्धापूर्वक हवन, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान-पुण्य आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। विभिन्न हिंदू धर्मग्रंथों में कहा गया है कि श्रीराम का जन्म नवरात्र के अवसर पर नवदुर्गा के पाठ के समापन के बाद हुआ था और उनके शरीर में मां दुर्गा की नवीं शक्ति जागृत थी। मान्यता है कि त्रेता युग में इसी दिन अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जन्म लिया था। भगवान राम को हिंदू धर्म में भगवान विष्णु का सातवां अवतार माना गया है, जिनके विशिष्ट कार्याें के कारण ही उन्हें सदियों से मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।

रामायण तथा अन्य पुराणों के अनुसार भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व त्रेता युग में अयोध्या में हुआ था। मान्यता है कि त्रेता युग में अयोध्या के महाराजा दशरथ की पटरानी महारानी कौशल्या ने प्रभु श्रीराम को जन्म दिया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, ‘भगवान श्रीराम चंद्रमा के समान अति सुंदर, समुद्र के समान गंभीर और पृथ्वी के समान अत्यंत धैर्यवान थे तथा इतने शील संपन्न थे कि दुखों के आवेश में जीने के बावजूद कभी किसी को कटु वचन नहीं बोलते थे।

वे अपने माता-पिता, गुरुजनों, भाइयों, सेवकों, हर किसी के प्रति अपने स्रेहपूर्ण दायित्वों का निर्वाह किया करते थे। माता-पिता के प्रति कर्तव्य एवं आज्ञा पालन की भावना तो उनमें कूट-कूटकर भरी थी, जिनकी कठोर से कठोर आज्ञा के पालन के लिए भी वे हर समय तत्पर रहते थे।’

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प्रभु श्रीराम ने सृष्टि के समक्ष ऐसा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जिस कारण उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा गया। उन्होंने मर्यादा, करुणा, दया, सत्य, सदाचार और धर्म के मार्ग पर चलते हुए अयोध्या पर राज किया। उनमें दयालुता, सहनशीलता, धैर्य, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श शासक इत्यादि तमाम ऐसे गुण विद्यमान थे, जिनके कारण उन्हें आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।

केवट, सुग्रीव, निषादराज, विभीषण इत्यादि श्रीराम के कई मित्र थे और राम ने सभी के साथ एक जैसा मित्रता का भाव रखते हुए अपने मित्रों के लिए कई बार स्वयं भी संकट उठाए। इसीलिए कहा जाता है कि भगवान राम जैसी मित्रता निभाने का गुण हर किसी में होना चाहिए। अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए वे हमेशा सहनशील और धैर्यवान रहे और अपने राज्य को रामराज्य बनाने के लिए उन्होंने बेहतर प्रबंधन किया। आदर्श भाई के रूप में आज भी उनका नाम आदर-सम्मान के साथ लिया जाता है और कहा जाता है कि भाई हो तो राम जैसा। माता सीता को त्यागने पर स्वयं अयोध्या का राजा होते हुए उन्होंने एक संन्यासी की तरह जीवन बिताया।

श्रीराम का चरित्र बेहद उदार प्रवृत्ति का था। जिस अहिल्या को निर्दोष मानकर किसी ने नहीं अपनाया, उसे भगवान श्रीराम ने अपनी छत्रछाया प्रदान की। लोगों को गंगा नदी पार कराने वाले एक मामूली से नाविक केवट की अपने प्रति अपार श्रद्धा एवं भक्ति से प्रभावित होकर श्रीराम ने उसे अपने छोटे भाई का दर्जा दिया और उसे मोक्ष प्रदान किया। अपनी परम भक्त शबरी नामक भीलनी के झूठे बेर खाकर शबरी का कल्याण किया। उनमें दयालुता का ऐसा गुण था, जिसके कारण उन्होंने मानव, दानव, पक्षी सभी को आगे बढ़ने का अवसर दिया।

अयोध्या के आदर्श राजा होने के साथ ही वे एक ऐसे कुशल प्रबंधक भी थे, जिनमें सभी को साथ लेकर चलने का विशेष गुण था और उसी गुण के कारण उन्होंने कम सैनिकों तथा संसाधनों के बगैर भी अपनी सेना की सहायता से लंका जाने के लिए पत्थरों से विशाल सेतु का निर्माण कराया और अपने कौशल से लंका पर आक्रमण किया। उनकी सेना में इंसान, पशु, दानव सभी शामिल थे और हनुमान, जामवंत तथा अंगद को उन्होंने सेना का नेतृत्व करने का अवसर दिया।

भगवान विष्णु के 7वें अवतार श्रीराम 16 गुणों और 12 कलाओं के स्वामी थे। श्रीराम सूर्यवंशी थे और सूर्य की 12 कलाएं ही होती हैं, इसीलिए मान्यता है कि श्रीराम में सूर्य की समस्त 12 कलाएं विद्यमान थी। शास्त्रों में कलाओं का तात्पर्य किसी अवतारी शक्ति की एक इकाई से है और ये कलाएं सूर्य-चंद्रमा के बदलते रूप को भी दर्शाती हैं। पत्थर और वृक्ष में 1-2 कला जबकि पशु-पक्षियों में 2 से 4 कलाएं होती हैं। साधारण मानव में पांच और संस्कारी मानव में छह कलाएं होती हैं।

ऋषि-मुनि, संत जैसे विशिष्ट महापुरुषों में सात से आठ कलाएं होती हैं, जो उनकी चेतना को चरम प्रदान करते हुए उन्हें श्रेष्ठ और पूजनीय बनाती हैं। नौ कलाओं से युक्त सप्तर्षि, मनु, देवता, प्रजापति और लोकपाल होते हैं। दस तथा इससे ज्यादा कलाएं केवल वराह, नृसिंह, कूर्म, मत्स्य, वामन अवतार इत्यादि ईश्वरीय अवतारों में ही होती हैं, जिन्हें आवेशावतार भी कहा जाता है। परशुराम को भी भगवान का आवेशावतार माना गया है।

बारह कलाओं से परिपूर्ण श्रीराम 16 गुणों से भी युक्त थे। ये 16 विशिष्ट गुण थे, गुणवान (योग्य और कुशल), किसी की निंदा न करने वाला (प्रशंसक, सकारात्मक), धर्मज्ञ (धर्म का ज्ञान रखने वाला), कृतज्ञ (आभारी या आभार व्यक्त करने वाला, विनम्रता), सत्य (सत्य बोलने वाला), दृढ़प्रतिज्ञ (प्रतिज्ञा पर अटल रहने वाला, दृढ़ निश्चयी), सदाचारी (धर्मात्मा, पुण्यात्मा और अच्छे आचरण वाला, आदर्श चरित्र), सभी प्राणियों का रक्षक (सहयोगी), विद्वान (बुद्धिमान और विवेकशील), सामर्थ्यशाली (सभी का विश्वास और समर्थन पाने वाला समर्थवान), प्रियदर्शन (सुंदर मुख वाला), मन पर अधिकार रखने वाला (जितेंद्रीय), क्रोध जीतने वाला (शांत और सहज), कांतिमान (चमकदार शरीर वाला और अच्छा व्यक्तित्व), वीर्यवान (स्वस्थ्य, संयमी और हृष्ट-पुष्ट) तथा युद्ध में जिसके क्रोधित होने पर देवता भी भयभीत हों (वीर, साहसी, धनुर्धारी, असत्य का विरोधी)।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम में सभी के प्रति प्रेम की अगाध भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनकी प्रजा वात्सल्यता, न्यायप्रियता और सत्यता के कारण ही उनके शासन को आज भी ‘आदर्श’ शासन की संज्ञा दी जाती है और आज भी अच्छे शासन को ‘रामराज्य’ कहकर परिभाषित किया जाता है। ‘रामराज्य’ यानी सुख, शांति एवं न्याय का राज्य।

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