राजपाट: राजनीति और राजनीतिक हालात, नेताओं की हसरतें और जनता के प्रति जिम्मेदारियां
देश की राजनीति में बहुत कुछ हो रहा है। कुछ रणनीति के तहत हो रहा है तो कुछ ऐसा जो दबाव की वजह से हो गया है। बहुत जल्द ही लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों की तैयारियां तेजी से चल रही हैं। चुनाव की तिथियों के ऐलान के साथ ही आदर्श आचार संहिता भी लागू हो रही है। इसके बाद जनता ही सब कुछ है।
कहानी फिल्मी है
हरियाणा में पहले प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल की जमकर सराहना की। फिर सहयोगी जननायक जनता पार्टी से भी पल्ला झाड़ लिया और मनोहर लाल की जगह नायब सैनी को मुख्यमंत्री भी बना दिया। सैनी अभी कुरुक्षेत्र से लोकसभा सदस्य हैं। संसद का उनका कार्यकाल दो महीने में खत्म हो जाएगा। हरियाणा में या तो विधानसभा चुनाव तय समय से पहले होंगे अन्यथा सैनी को उपचुनाव लड़कर सदन का सदस्य बनना होगा। दुष्यंत चौटाला से गठबंधन तोड़ने की असली वजह तो गैर जाट मतों का ध्रुवीकरण करने की रणनीति है। कहने को तो यही कहा कि दुष्यंत लोकसभा की दो सीटें मांग रहे थे। जबकि भाजपा सभी दस सीटों पर खुद लड़ेगी। दुष्यंत के साथ भाजपा की मिलीभगत को नकारा नहीं जा सकता। वे अलग लड़ेंगे तो जाट मतों का कांग्रेस, इनेलोद और जजपा में बंटवारा हो जाएगा। ओबीसी को मुख्यमंत्री बनाने से भाजपा को जनाधार बढ़ने का भरोसा है। साथ ही मनोहर लाल के खिलाफ नौ साल में पैदा हुआ सत्ता विरोध भी कुंद पड़ेगा। दुष्यंत ने विप जारी किया था कि जजपा के सभी विधायकों को विश्वासमत के दौरान सदन से अनुपस्थित रहना है। फिर भी पांच विधायक मौजूद रहे। दुष्यंत अगर भाजपा के विरोधी होते तो सदन के भीतर अपने सदस्यों को सैनी के विरोध में मतदान करने का विप जारी करते। जानकार कहते हैं कि नियमानुसार गैर हाजिर रहने के लिए विप जारी नहीं होता।
वरुण पर रहस्य
पीलीभीत से वरुण गांधी सांसद हैं तो सुल्तानपुर से उनकी मां मेनका गांधी। वरुण के सुर तो जरूर पिछले चार साल से बागी रहे हैं पर मेनका गांधी ने अनुशासन का पूरा ख्याल रखा है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा आलाकमान ने मेनका को संदेश दिया है कि वे पीलीभीत से लड़ने की तैयारी करें। जब उन्होंने पीलीभीत से वरुण के सांसद होने की बात कही तो आलाकमान की तरफ से कहा गया कि उनके लिए पार्टी ने कुछ सोच रखा है। वह कुछ है क्या, यही रहस्य बना है। सर्वेक्षणों में सुल्तानपुर में मेनका गांधी सबसे लोकप्रिय पाई गई हैं। फिर उन्हें क्यों पीलीभीत भेजना चाहती है पार्टी। क्या वरुण को सुल्तानपुर भेजा जा सकता है? ऐसा होगा तो क्या मेनका खुद चुनाव लड़ना चाहेंगी। चर्चा तो यह भी है कि रायबरेली से अगर इस बार प्रियंका गांधी लड़ेंगी तो भाजपा उनके मुकाबले चचेरे भाई वरुण को मैदान में उतार सकती है।
तबादलों की गति को कहा अति
कहते हैं कि अति सर्वत्र वर्जयेत। राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा को लेकर नौकरशाही दिल्ली दरबार को यह संदेश पहुंचा चुकी है। भजनन लाल शर्मा का नाम पर्ची में देख कर वसुंधरा राजे जिस तरह से चौंकी थीं शर्मा लगातार उसी तरह से चौंकाना चाहते हैं। शायद उनके पास रोडमैप के नाम पर सिर्फ नौकरशाही का तबादला ही दिख रहा है। पहले तो इसे एक उत्साही मुख्यमंत्री का कदम माना जा रहा था, लेकिन आपत्ति तब उठाई गई जब कुछ अधिकारियों का बार-बार तबादला हो रहा है। पिछले 11 दिनों में पचास आइएएस अधिकारियों का तबादला किया गया है। पिछले दो महीनों में सात सौ राजस्व अधिकारियों का तबादला किया गया है। अब अधिकारियों की दिल्ली से उम्मीद है कि अति रोकी जाए।
रिश्तों का रसायन
राजनीति में जब पूर्व पति-पत्नी आमने-सामने हों तो मामला दिलचस्प हो जाता है। पश्चिम बंगाल में इस बार यह रोचक टक्कर बांकुरा जिले की बिष्णुपुर लोकसभा सीट पर दिखेगी। जहां तलाकशुदा पति-पत्नी आमने-सामने होंगे। सुजाता मंडल को जहां तृणमूल कांगे्रस ने इस सीट पर अपना उम्मीदवार बनाया है वहीं भाजपा ने सौमित्र खान को टिकट दिया है। इस नाते मुकाबला रोचक होगा। मियां-बीवी दोनों ही पहले तृणमूल कांगे्रस में थे। सौमित्र खान ने 2011 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव दोनों तृणमूल कांगे्रस के उम्मीदवार की हैसियत से जीते थे। लेकिन 2019 में ममता दीदी का साथ छोड़ उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया था। भाजपा ने उन्हें लोकसभा चुनाव भी लड़ाया था। तब सुजाता मंडल ने अपने पति के पक्ष में प्रचार भी किया था क्योंकि सौमित्र खान हाई कोर्ट की पाबंदी के कारण खुद अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार नहीं कर सकते थे। पत्नी की मेहनत से सौमित्र खान जीत गए थे। लेकिन, दो साल बाद सूबे में विधानसभा चुनाव हुए तो सुजाता मंडल भाजपा छोड़ तृणमूल कांगे्रस में शामिल हो गई। इसी से खफा होकर सौमित्र खान ने उन्हें तलाक दे दिया। ऊपर से सुजाता विधानसभा चुनाव भी हार गई। अब ममता बनर्जी ने उन्हें उनके पूर्व पति के मुकाबले मैदान में उतार कर साबित कर दिया कि राजनीति में रिश्तों का रसायन कभी एक जैसा नहीं रहता है। देखना है इस बार किसकी जीत होती है?
चाचा की दुविधा
अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव को बदायूं से लोकसभा उम्मीदवार घोषित किया है। शिवपाल की दुविधा दोहरी है। एक तो कभी केंद्र की राजनीति के बारे में सपना नहीं देखा और लखनऊ में ही मन रचा-बसा रहा। दूसरे, बेटे आदित्य यादव को राजनीति में जमाने की हसरत। बदायूं से मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल यादव और धर्मेंद्र यादव सांसद रह चुके हैं। अखिलेश ने चाचा को उनकी इच्छा के विपरीत लोकसभा उम्मीदवार क्यों बना दिया। जानकारों का कहना है कि अखिलेश अब परिवार से किसी और सदस्य को राजनीति में दाखिल नहीं होने देना चाहते। अभी रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव, अखिलेश यादव, धर्मेंद्र यादव, डिंपल यादव और अक्षय यादव हैं ही। अक्षय यादव को तो फिरोजाबाद से टिकट दे दिया है पर तेजप्रताप यादव के लिए कोई संभावना नहीं दिख रही। ऐसे में आदित्य यादव का क्या होगा। शिवपाल तो यही चाहते होंगे कि बेटा आदित्य लोकसभा लड़कर दिल्ली की सियासत करे और वे खुद जसवंत नगर सीट की नुमाइंदगी। अखिलेश कभी केंद्र की राजनीति में जाएं तो सूबे की सियासत उन्हें विरासत में मिल जाए। पर, बदायूं के फैसले को ठुकरा भी नहीं पा रहे।
संकलन : मृणाल वल्लरी