Blog: जमाने से सवालों के घेरे में रही है संसद की सुरक्षा
Parliament Security Breach: संसद की सुरक्षा और हमले के मुद्दे पर अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। अपने-अपने तर्क देकर कुछ ने आरोपियों के प्रति सहानुभूति दिखाई है, तो कई ने इसकी आलोचना की है। मामले की जांच पुलिस कर ही रही है, इसलिए इस निष्कर्ष पर तत्काल कोई नहीं पहुंच सकता कि आखिर संसद के भीतर और बाहर सुरक्षा में सेंधमारी कैसे हुई? एक बात यह सामने आ रही है कि सभी आरोपी शहीद-ए-आजम भगत सिंह फैन ग्रुप से जुड़े और बेरोजगार हैं। खून बहाना या हत्या करना उनका उद्देश्य नहीं था, लेकिन उनका कहना था कि बहरों और तानाशाहों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है। लेकिन दिल दहलाने वाली बात तो यह है कि इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने वाले जो दो युवा थे, उन्होंने इतनी जबरदस्त सुरक्षा में सेंध कैसे खोद डाली?
राजीव गांधी की हत्या के वक्त भी ऐसी ही चूक हुई थी
जिस प्रकार स्मोक बम को छुपाकर संसद भवन ले जाया गया, यह घटना सुरक्षा चूक की उस घटना की याद दिलाती है जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की गई थी। जिस प्रकार लिक्विड बम को लेकर भरी सभा में राजीव गांधी की हत्या करने के लिए हत्यारे उनके पास तक पहुंच गए थे, तब भी लगभग ऐसी ही सुरक्षा चूक हुई थी! याद कीजिए 19 मई, 1991 की वह शाम, जब राजीव गांधी के साथ ही कितने निर्दोष लोग उस दुर्भाग्यपूर्ण आतंकी हमले में खत्म हो गए थे।
आइए, अब अतीत में चलते हैं। पहले 13 दिसंबर, 2001 को पुराने संसद भवन में लौटते हैं, जब पांच सशस्त्र आतंकवादियों ने दिनदहाड़े चलते संसद सत्र में घुसकर दिल्ली पुलिस के छह जवान, दो संसदीय सुरक्षाकर्मी तथा एक माली की हत्या करके देश में दहशत का माहौल बना दिया था।
1928 में साइमन कमीशन के लाहौर पहुंचने पर उसका घोर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा था जिसका नेतृत्व शेर-ए-पंजाब के नाम से मशहूर लाला लाजपत राय कर रहे थे। विरोध के बीच में ही पुलिस अधिकारी जॉन सैंडर्स के आदेश पर लाठीचार्ज कर दिया गया। कहा जाता है कि लाला लाजपत राय के सीने और सिर पर कई लाठियां बरसाई गईं। वे बुरी तरह से घायल हो गए, फिर एक महीने बाद उनकी मृत्यु हो गई। शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की मृत्यु ने आंदोलनकारियों को उद्वेलित कर दिया, जिससे आंदोलन इतना उग्र हो गया कि लाठीचार्ज का आदेश देने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सैंडर्स की सरेआम गोली मार कर हत्या कर दी गई।
'बहरों को सुनाने को लिए धमाकों की जरूरत होती है'
दूसरा अंजाम 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली (आज के पुराने संसद भवन) में सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंक कर दिया और नारा लगाया कि 'बहरों को सुनाने को लिए धमाकों की जरूरत होती है।' यह देश के प्रति एक निःस्वार्थ समर्पण था, जज्बा था और कुर्बानी थी। फिर दोनों यदि चाहते, तो भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने समर्पण किया और अपनी गिरफ्तारी देकर औपनिवेशिक हुकूमत को अहसास दिलाया कि बहुत हो गई तानाशाही, अब भारत को आजाद करो। 23 मार्च, 1931 को जॉन सैंडर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा दे दी गई। उस समय भगत सिंह की उम्र मात्र 23 वर्ष थी। वह आधुनिक भारतीय इतिहास के स्तंभों और भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के महान नायकों में हैं।
संसद पर हमले के ये तीनों उदाहरण इसलिए कि संसद भवन औपनिवेशिक शासन काल से ही असुरक्षित रहा है। फिर चाहे कोई कितने ही दावे क्यों न कर ले। अब जब नया संसद भवन बनाया गया, तो उसके लिए कहा गया यह अभेद्य दुर्ग है, जहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता है, लेकिन 13 दिसंबर, 2023 की घटना ने देश को झकझोर दिया है।
संसद भवन की सुरक्षा में हुई, इस चूक पर विपक्ष सत्तारूढ़ दल पर पूरी तरह से आक्रामक है। विपक्ष खुलेआम आरोप लगा रहा है कि इस सरकार द्वारा लोकतंत्र की हत्या की जा रही है, जो अब आखिरी चरण पर है। अभी देखना बाकी है कि इस प्रतिरोध का परिणाम क्या निकलता है और जिन लोगों को आरोपी माना जा रहा है, उनका मूल उद्देश्य क्या था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)