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Indian Elections: कारगिल युद्ध, संसद पर हमला और गोधरा कांड; वाजपेयी सरकार के सामने ऐसे आईं चुनौतियां

सत्ता में आने के दो महीने बाद वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान के पोखरण के रेगिस्तान में पांच सफल भूमिगत परमाणु परीक्षण किए। 1998 के अंतिम महीनों से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के साथ अपनी शांति पहल शुरू की और अपने समकक्ष नवाज शरीफ के सहयोग से सीमा पार अपनी ऐतिहासिक बस यात्रा की। इसके परिणामस्वरूप 21 फरवरी 1999 को लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर हुए।
Written by: श्‍यामलाल यादव | Edited By: संजय दुबे
नई दिल्ली | Updated: May 26, 2024 10:42 IST
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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। (एक्सप्रेस फाइल फोटो)
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बीजेपी के संस्थापक नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने कई चुनौतियां थीं। उन्होंने इन चुनौतियों को डटकर सामना किया। 1997 के अंत में कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा सरकार को गिरा दिया था। इसके बाद फरवरी 1998 के चुनावों ने बीजेपी को दो साल से भी कम समय में सत्ता में आने का दूसरा मौका मिला। इस बार बीजेपी सरकार 1996 के 13 दिनों वाली सरकार से अधिक समय तक सत्ता में रही, लेकिन फिर भी संसद में बहुत मामूली अंतर से हार की वजह से चली गई। 1999 में फिर से चुनाव हुए।

1998 से 2004 तक का समय अटल बिहारी वाजपेयी का था

1998 से 2004 तक का समय भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी का था। यह कार्यकाल महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ था - पोखरण-II टेस्ट, जिससे भारत परमाणु शक्ति होने की घोषणा की; पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास, जिसके कुछ ही महीनों बाद ही कारगिल युद्ध हुआ, जिसमें भारत में वीरतापूर्ण जीत हासिल की; संसद पर आतंकवादी हमला; और गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगे।

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अगस्त 1997 में कलकत्ता अधिवेशन में सोनिया गांधी कांग्रेस से जुड़ीं

अगस्त 1997 में कलकत्ता में कांग्रेस के महाधिवेशन में सोनिया गांधी पार्टी में शामिल हुईं। नवंबर में प्रधानमंत्री आई के गुजराल के इस्तीफा देने और चुनावों की घोषणा के बाद कांग्रेस कार्यसमिति ने उनसे पार्टी के लिए इस “कठिन” समय में प्रचार करने का अनुरोध किया।

उन्होंने लगभग 130 चुनावी रैलियों को संबोधित किया, जिसकी शुरुआत तमिलनाडु से हुई। यह वह राज्य था, जहां मई 1991 में एक LTTE आतंकवादी ने उनके पति की हत्या कर दी थी। चुनाव के तुरंत बाद 14 मार्च 1998 को कांग्रेस ने सीताराम केसरी को अपने नेता के पद से हटा दिया और सोनिया ने औपचारिक रूप से पार्टी की कमान संभाल ली।

टीएन शेषन के आने के बाद चुनाव में उम्मीदवारों की संख्या घटीं

देश की आबादी के 62 फीसदी यानी 60.58 करोड़ मतदाताओं में से कुल 37.54 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाले। मतदान 16, 22 और 28 फरवरी 1998 को हुआ था। टीएन शेषन के नेतृत्व में भारत के चुनाव आयोग ने नामांकन के नियमों में बदलाव कर दिया था। इससे प्रस्तावकों की संख्या बढ़ गई थी। इस एक कदम की वजह से नॉन-सीरियस उम्मीदवारों की भीड़ नाटकीय रूप से कम हो गई थी। 1996 में जहां देशभर में कुल 13,952 उम्मीदवार थे, वहीं 1998 में यह संख्या केवल 4,750 उम्मीदवार तक रह गई थी।

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इस चुनाव में बीजेपी ने 181 सीटें जीतीं, यह 1996 की तुलना में 20 सीटें अधिक थीं; कांग्रेस ने 141 सीटें जीतीं, जिसे पिछली बार से केवल एक सीट ज्यादा मिली थी। सीपीआई (M) ने 32, मुलायम सिंह यादव की सपा ने 20, जे जयललिता की अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIDMK) ने 18 और लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने 17 सीटें जीतीं।

बीजेपी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) नाम से 19-दलों का गठबंधन बनाया और एकजुटता बनाए रखने के लिए अयोध्या में राम मंदिर बनाने, अनुच्छेद 370 को हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने के अपने मूल एजेंडे को अलग रखने और गठबंधन सहयोगियों के एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम का पालन करने पर सहमति व्यक्त की। इसे राष्ट्रीय एजेंडा फॉर गवर्नेंस कहा जाता है।

1996 के चुनाव के बाद दो साल में भारत को तीन प्रधानमंत्री कैसे मिले

एन चंद्रबाबू नायडू संयुक्त मोर्चे के संयोजक थे। उन्होंने एनडीए का समर्थन करने का फैसला किया। मुलायम और लालू जैसे संयुक्त मोर्चे के अन्य सहयोगियों ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा नामक कांग्रेस-विरोधी, भाजपा-विरोधी मोर्चे में हाथ मिलाया। वाजपेयी ने 20 मार्च 1998 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (TDP) के सांसद जीएमसी बालयोगी लोकसभा के अध्यक्ष बने।

सत्ता में आने के दो महीने बाद वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान के पोखरण के रेगिस्तान में पांच सफल भूमिगत परमाणु परीक्षण किए। 1998 के अंतिम महीनों से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के साथ अपनी शांति पहल शुरू की और अपने समकक्ष नवाज शरीफ के सहयोग से सीमा पार अपनी ऐतिहासिक बस यात्रा की। इसके परिणामस्वरूप 21 फरवरी 1999 को लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर हुए।

सिर्फ एक वोट से हार गई वाजपेयी सरकार

वाजपेयी के सामने अपने बिखरे गठबंधन को संभालने का असाधारण रूप से कठिन राजनीतिक कार्य था। सबसे बड़ी मुसीबत अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIDMK) ने पैदा की। इसके 18 सांसद सरकार के अस्तित्व के लिए जरूरी थे, लेकिन वाजपेयी के लिए अपने तुनकमिजाज नेता की मांगों को पूरा करना लगातार मुश्किल होता जा रहा था। जयललिता ने आखिरकार 8 अप्रैल 1999 को एनडीए से नाता तोड़ लिया।

वाजपेयी ने 15 अप्रैल को विश्वास प्रस्ताव पेश किया। दो दिन बाद हुए मतदान का परिणाम उल्लेखनीय था: 269 वोट हां और 270 ना में आए थे। वाजपेयी सिर्फ एक वोट से हार गए थे। सरकार को हराने वाले वोट का श्रेय तीन सांसदों ने लिया। इसमें बीएसपी की मायावती; फारूक अब्दुल्ला की जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस में रहे सैफुद्दीन सोज और गिरिधर गमांग, जिन्हें सोनिया गांधी ने उस साल 17 फरवरी को जे बी पटनायक की जगह उड़ीसा का मुख्यमंत्री नियुक्त किया था, ने लिया। हालांकि गिरिधर गमांग ने तब तक लोकसभा की सदस्यता नहीं छोड़ी थी।

21 अप्रैल को सोनिया ने राष्ट्रपति के आर नारायणन से मुलाकात की और अगली सरकार बनाने का दावा पेश किया। उन्होंने कहा कि उनके पास 272 सांसदों का समर्थन है, लेकिन मूल रूप से समर्थन का वादा करने के बाद मुलायम ने पलटी मारते हुए कहा कि वे प्रधानमंत्री के रूप में "विदेशी मूल" के व्यक्ति का समर्थन नहीं कर सकते, और इसके बजाय उन्होंने इस पद के लिए पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु का नाम आगे बढ़ाया। कांग्रेस के भीतर शरद पवार ने सोनिया के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। इसके बाद पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ शरद पवार को पार्टी से निकाल दिया गया। 10 जून को पवार ने अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) बनाई। इस तरह सोनिया गांधी पीएम बनते-बनते रह गईं।

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