बढ़ती समृद्धि के बावजूद रोजगार के मोर्चे पर चुनौतियां बरकरार
केसी त्यागी/ पंकज चौरसिया
बेरोजगारी एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है। 26 मार्च, 2024 को अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आइएलओ और मानव विकास संस्थान यानी आइएचडी द्वारा जारी रोजगार रिपोर्ट में भारत में रोजगार के परिदृश्य को लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर देश के कई राजनीतिक दल बेरोजगारी के मुद्दे पर मुखर हैं।
हालांकि, इस रिपोर्ट के कुछ निष्कर्षों को गलत समझा या उनकी गलत व्याख्या की गई है। इसके आंकड़े मुख्यतया राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण संगठन यानी एनएसएसओ द्वारा एकत्रित किए गए हैं, जो रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण पर आधारित हैं। इस रिपोर्ट में चार वर्षों- 2000, 2012, 2019 और 2022 का विश्लेषण और उसकी तुलना की गई है।
रिपोर्ट में श्रम बाजार में कुछ प्रमुख सकारात्मक घटनाक्रमों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें मजबूत रोजगार स्थिति सूचकांक से पता चलता है कि सभी राज्यों में रोजगार की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, यद्यपि स्थिति अलग-अलग है। इसकी पुष्टि वर्ष 2000 और 2019 के बीच गैर-कृषि रोजगार की हिस्सेदारी में वृद्धि से भी होती है, जैसा कि किसी देश की बढ़ती समृद्धि के साथ होता है, और यह अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन की दिशा में एक संकेत देता है।
पिछले दो दशक में भारत के श्रम बाजार संकेतकों में कुछ विरोधाभासी सुधार देखे गए हैं, जबकि देश में रोजगार की बुनियादी दीर्घकालिक विशेषता गैर-कृषि क्षेत्रों की अपर्याप्त वृद्धि की क्षमता पर बनी हुई है। इस रिपोर्ट के अनुसार ठेकेदारी प्रथा बढ़ी है, केवल कुछ फीसद नियमित कर्मचारी दीर्घकालिक अनुबंध के दायरे में आते हैं।
कोविड के दौरान वैश्विक मंदी के बीच श्रम बाजार ने काफी अच्छी वापसी की है। नियमित कर्मचारियों की तुलना में वर्ष 2019-22 के दौरान भी आकस्मिक कर्मचारियों की मजदूरी में वृद्धि हुई है। वास्तव में, निचले समूहों के मामलों में अधिक वृद्धि हुई है। कई सामाजिक सुरक्षा उपायों के साथ-साथ इसने अत्यधिक गरीबी और अभाव को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
यह भी उल्लेखनीय है कि भले महामारी के दौरान कृषि नौकरियों में भारी वृद्धि हुई (लगभग नौ फीसद प्रति वर्ष), लेकिन कुल मिलाकर गैर-कृषि नौकरियों में भी 2.6 फीसद से अधिक की वृद्धि हुई, जो वर्ष 2012 से 2019 तक हासिल की गई दर से अधिक है। वर्ष 2018 तक बेरोजगारी और अल्परोजगार की दरें अवश्य बढ़ी हैं, लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट आनी शुरू हुई। बेरोजगारी दर वर्ष 2018 में छह फीसद से घटकर 2023 में 3.2 फीसद हो गई है। रपट में पिछले दो दशक के दौरान हुए विकास के साथ-साथ महामारी के कारण उभरती रोजगार चुनौतियों को भी रेखांकित किया गया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 83 फीसद युवा बेरोजगार हैं। यह बेरोजगारी युवाओं, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में शिक्षित युवाओं और महिलाओं में सबसे अधिक है। वर्ष 2022 में कुल बेरोजगार आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी सबसे अधिक 82.9 फीसद थी। सभी बेरोजगार लोगों में शिक्षित युवाओं की हिस्सेदारी वर्ष 2000 में 54.2 फीसद से बढ़कर 2022 में 65.7 फीसद हो गई है। युवा बेरोजगारी मुख्य चुनौती है। शिक्षा प्राप्ति में भारी वृद्धि के साथ, भारत में बेरोजगारी की समस्या शिक्षित युवाओं के इर्द-गिर्द ज्यादा केंद्रित होती जा रही है, जो कुल बेरोजगारी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा है। यह प्रक्रिया पिछले कई दशक से जारी है।
आने वाले वर्षों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और निजी क्षेत्र के साथ सक्रिय भागीदारी में उचित कौशल प्रदान करना प्राथमिकता बनी रहेगी। विडंबना है कि 2022 में रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण में शामिल न होने वाले युवाओं का अनुपात लगभग 28 फीसद है, जो काफी अधिक है। इसमें महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों की तुलना में लगभग पांच गुना अधिक है।
इस समूह पर अधिक नीतिगत ध्यान देने की आवश्यकता है। समय के साथ रोजगार की स्थितियों में सुधार के बावजूद, नौकरियां काफी हद तक अनौपचारिक और कम उत्पादकता वाली बनी हुई हैं। नब्बे फीसद से अधिक रोजगार अनौपचारिक हैं, और तिरासी फीसद अनौपचारिक क्षेत्र में हैं। विशेष रूप से नियमित और अनियमित श्रमिकों के निचले तबके के वेतन में वृद्धि और सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करना चाहिए।
बढ़ती सामाजिक असमानताओं पर प्रकाश डालते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि सकारात्मक कार्रवाई और लक्षित नीतियों के बावजूद, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अभी भी बेहतर नौकरियों तक पहुंच के मामले में पीछे हैं। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आर्थिक आवश्यकता के कारण कार्य में अधिक भागीदारी है, लेकिन वे कम वेतन वाले अस्थायी काम और अनौपचारिक रोजगार में अधिक लगे हुए हैं। सभी समूहों के बीच शैक्षिक उपलब्धि में सुधार के बावजूद सामाजिक समूहों के भीतर पदानुक्रम कायम है।
रिपोर्ट में वेतन को लेकर भी कई बातें कही गई हैं। 2019 के बाद से नियमित कर्मचारी और स्वरोजगार वाले लोगों, दोनों की आमदनी में गिरावट का रुझान देखा जा रहा है। वहीं अकुशल श्रमशक्ति में भी अस्थायी कर्मचारी को 2022 में उचित न्यूनतम मजदूरी नहीं मिली है। बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, मध्यप्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में रोजगार की स्थिति काफी दयनीय है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत को कम से कम अगले एक दशक तक जनसांख्यिकीय लाभ मिलने की संभावना है। आने वाले वर्षों में मजबूत आर्थिक विकास की संभावना के साथ, देश इसका लाभ उठा सकता है।
तकनीकी से जुड़े बदलावों ने कौशल और रोजगार के प्रकारों की मांग को भी प्रभावित किया है। रिपोर्ट के अनुसार उच्च और मध्यम कौशल वाली नौकरियों और गिग अर्थव्यवस्था में युवाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व है। हालांकि, इन क्षेत्रों में नौकरी की असुरक्षा अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के युवाओं में बुनियादी डिजिटल साक्षरता के अभाव की वजह से उनकी रोजगार की क्षमता में रुकावट आ रही है। बताया गया कि 90 फीसद भारतीय युवा ‘स्प्रेडशीट’ में फार्मूला लगाने में असमर्थ हैं। लगभग 60 फीसद युवा फाइलें कापी और पेस्ट नहीं कर सकते हैं। वहीं 75 फीसद युवा किसी ‘अटैचमेंट’ के साथ ईमेल भेजने में असमर्थ हैं।
रिपोर्ट में कुछ नीतिगत उपायों की सिफारिश की गई है, जैसे- श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर देते हुए उत्पादन और विकास को अधिक रोजगार-प्रधान बनाना, रोजगार सृजन सेवाओं और कृषि पर उचित ध्यान देना, नौकरियों की गुणवत्ता में सुधार करना, श्रम बाजार की असमानताओं पर काबू पाना, विशेष रूप से महिलाओं के रोजगार को बढ़ावा देकर और एनईईटी से निपटने के लिए प्रभावी नीतियां बनाना, कौशल प्रशिक्षण और सक्रिय श्रम बाजार नीतियों को और अधिक प्रभावी बनाना, विशेष रूप से नौकरियों में आपूर्ति-मांग के अंतर को पाटना और निजी क्षेत्र की सक्रिय भागीदारी और विश्वसनीय आंकड़े तैयार करना, ताकि तेजी से तकनीकी परिवर्तन के कारण श्रम बाजार के बदलते रुझान की जटिलताओं को बेहतर ढंग से समझा जा सके।