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Hathras Stampede: बाबाओं के प्रति लोगों की क्यों और कैसे आसक्ति बढ़ जाती है?

Hathras Stempede: हादसे का दुख सभी को है, लेकिन एक सवाल जो बार-बार उठ रहा है- आखिर इन बाबाओं के प्रति लोगों की आसक्ति इतनी ज्यादा क्यों बढ़ जाती है?
Written by: Sudhanshu Maheshwari
नई दिल्ली | Updated: July 05, 2024 19:21 IST
बाबाओं के प्रति लोगों की बढ़ती आसक्ति का विश्लेषण
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भारत एक प्राचीन संस्कृति की विरासत साथ लेकर चलता है, ऋषि मुनियों के इस देश में आस्था के लिए अहम जगह है। आदमी परेशान हो, दुखी हो, लेकिन आस्था की शरण में जाकर वो सब भूल जाता है। वो खुद को भगवान के करीब महसूस करता है। अब इस प्रकार की भक्ति, इस प्रकार का विश्वास लोगों को आध्यात्म से जोड़ता है। लेकिन आध्यात्म और अंधविश्वास में एक पतली लकीर होती है जो समय के साथ धूमिल हो चुकी है। इसके धूमिल होने का सबसे बड़ा उदाहरण हाथरस हादसा जिसमें 121 लोगों की मौत हो गई। इस मौत का कारण भगदड़ है, लेकिन उसकी नींव एक अंधविश्वास में छिपी है। ऐसा अंधविश्वास जिसने लोगों की मन की आंखों पर पट्टी बांध दी थी।

धर्म नहीं देता अंधविश्वास को बढ़ावा

अब यह कहना कि लोगों को सत्संग में जाना छोड़ देना चाहिए, यह एकदम गलत है। लेकिन अपने विवेक का इस्तेमाल ना करना, सही-गलत की समझ खो बैठना जरूर चिंताजनक है। दिमाग खुला रखकर आध्यात्म की ओर बढ़ने वाले लोग सही मायनों धार्मिक कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके जीवन में हर चीज का बेहतरीन संतुलन देखने को मिलता है, लेकिन सिर्फ किसी की बातों में आकर किसी एक ही शख्स को भगवन का दर्जा दे देना, यह अंधविश्वास की श्रेणी में आता है और कोई भी धर्म इस तरह के अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देता है, उसे किसी भी कीमत पर सही नहीं मानता है।

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भक्तों को फंसाने वाली 'बाबा ट्रिक'

लेकिन इस सब के बावजूद भी कई ऐसे बाबा इस देश में मौजूद हैं जिन्होंने दावा किया है कि उनके पास ईश्वरी शक्तिया हैं, जो चमत्कार करने की बात करते हैं। इन्हीं बाबाओं और उनके आश्रम को लेकर कई बार रिपोर्ट सामने आई हैं जो साफ बताती हैं कि किस तरह से लोगों का ब्रेनवॉश किया जाता है। एक आश्रम को लेकर कहा गया कि लोगों को इतना ज्यादा बिजी कर दिया जाता है कि वे यह सोच ही ना पाए कि क्या गलत है और क्या सही। उनको सुबह जल्दी उठाने से लेकर पूरे दिन अलग-अलग कामों में व्यस्त रखा जाता है। लोगों के मन में धारणा बनती है कि आश्रम आए हैं इस वजह से इस प्रकार का रुटीन फॉलो हो रहा है। लेकिन जानकार मानते हैं कि ऐसे रुटीन को फॉलो करवा लोगों के मन को पूरी तरह थका दिया जाता है। उस थके मन में जो बातें डाली जाएंगी वो बिना सोचे उन्हें सही मान लेगा। देश के कई आश्रमों में कई बाबाओं द्वारा इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। सभी बाबाओं को गलत नहीं कह रहे, लेकिन कुछ गुमराह करने के लिए ऐसा करते जरूर दिख रहे हैं।

अब इन्हीं विवादित बाबाओं की दुनिया और उनके भक्तों के दिमाग को सही तरह से पढ़ने के लिए हमने कई मनोवैज्ञानिकों से बात की है। उनसे समझने की कोशिश की है कि आखिर कोई बाबा कैसे लोगों के मन को इतना प्रभावित कर सकता है, आखिर कैसे कोई किसी पर इतना विश्वास कर लेता है। इसके ऊपर समाज का वो कौन सा तबका जो सबसे ज्यादा इन बाबाओं से प्रभावित होता है, उनकी शरण में जाना पसंद करता है। इन्हीं सवालों पर हमे सभी डॉक्टरों से विस्तृत जवाब मिले हैं। बड़ी बात यह है कि यह सारे जवाब किसी की राय नहीं है, बल्कि मनोविज्ञान से जुड़े हुए हैं, तथ्य पर आधारित हैं।

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हर बाबा नहीं होता है संत!

डॉक्टर इंदिरा शर्मा जो खुद NATIONAL ACADEMY OF MEDICAL SCIECES और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में साइकेट्री की प्रोफेसर रह चुकी हैं, उन्होंने इस मुद्दे पर गहन रिसर्च भी कर रखी है और वे इन बाबाओं की दुनिया को बेहतरीन तरीके से समझती हैं। इस हाथरस हादसे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए डॉक्टर इंदिरा शर्मा ने कहा है कि हमारे देश में कई बाबा हैं, वो काफी पैसा भी कमा रहे हैं और उनकी लोकप्रियता भी चरम पर है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि सारे बाबा संत है, कई ऐसे भी हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं जिन्हें सभ्य समाज का हिस्सा नहीं मान सकते हैं। मैं तो कुछ ऐसे बाबाओं से मिली हूं जो असल में मानसिक रूप से ही बीमार होते हैं, उन्हें खुद पता नहीं होता कि उन्हें बीमारी है। इसके ऊपर कई बाबाओं पर अभी कोर्ट के केस चल रहे हैं। जो हाथरस में हादसा हुआ है और जिस बाबा ने वहां पर सत्संग रखा था, वो तो कुछ साल पहले ही सक्रिय हुआ है, अपनी नौकरी छोड़कर किस वजह से यह सब करने लगा, साफ नहीं।

समाज स्वीकार करे, इसलिए बन गए धार्मिक

अब क्योंकि डॉक्टर ने खुद कहा कि सभी बाबा संत नहीं होते, ऐसे में हमने सीधे पूछा फिर लोग क्यों उनकी अंधभक्ति करते हैं, आखिर किस कारण से वे लगातार उनके सत्संग में जाते, उन्हें फॉलो करना पसंद करते हैं। इस सवाल पर डॉ इंदिरा का कहना रहा कि आज कल के समाज में धार्मिक होने को लोगों ने अपने सम्मान के साथ जोड़ दिया है। उन्हें ऐसा लगता है कि अगर समाज में इज्जत, अगर प्रतिष्ठा चाहिए तो धार्मिक होना बहुत जरूरी है। अगर कहा जाए कि सिर्फ लोग धार्मिक हो गए हैं, इसलिए मंदिर जा रहे हैं तो ऐसा भी नहीं है। एक कॉपी कैट वाला कल्चर भी शुरू हो चुका है जहां पर हर कोई एक दूसरे को फॉलो कर रहा है। वो मंदिर जा रहा है, कलावा बांध रहा है, दूसरी गतिविधियों में सक्रिय हो रहा है, लेकिन वो सिर्फ धार्मिक होने के लिए यह सब नहीं कर रहा, बल्कि क्योंकि दूसरे भी ऐसा कर रहे हैं, इसलिए उसमें विश्वास दिखा रहा है।

बाबाओं में सत्संग में ज्यादा महिलाएं क्यों?

एक बात गौर करने वाली यह है कि इस प्रकार के सत्संग में ज्यादा महिलाएं देखने को मिलती हैं, जो हाथरस हादसा हुआ वहां भी ज्यातार महिलाओं ने भी जान गंवाई। अब इसका भी एक कारण हमे डॉक्टर इंदिरा से पता चला है। इस ट्रेंड के बारे में वे कहती हैं कि सत्संग में ज्यादा महिलाएं जाती है, उसका कारण यह है कि देश में आज भी ज्यादातर हाउसवाइफ है जिनके पास ज्यादा कुछ करने को नहीं होता, ऐसी रूढ़ीवाली सोच भी बना दी गई है कि महिलाओं को सिर्फ किचन में काम करना है और बच्चों को सभांलना है। ऐसे में उन्हें भी अपने जीवन में एक्साइटमेंट चाहिए होता है, वे भी खुद को दूसरे कामों में व्यस्त रखना चाहती हैं। इस वजह से भी महिलाएं सत्संग के प्रति ज्यादा आकर्षित रहती हैं। इसके ऊपर सत्संग ऐसी महिलाओं को सोशलाइज करने का भी मौका देता है। एक जाती है तो उन्हें देख दूसरी महिलाएं भी ऐसे सत्संग में शामिल हो जाती हैं। वैसे भी समाज में इज्जत भी बनती है, सत्संग में जाएंगे तो कोई आपको बुरा नहीं कहेगा, लेकिन अगर पिक्चर देखने चले गए तो चार तरह की बातें भी होंगी, आपके परिवार वाले नाराज हो जाएंगे।

भक्ति करना कभी गलत नहीं, सीमा पता होनी चाहिए

अब डॉक्टर की बात से साफ समझ आता है कि समाज में इज्ज्त बनाए रखने के लिए भी लोग ऐसे सत्संग में जाना पसंद करते हैं, शायद वे धार्मिक नहीं है, शायद उन्हें आध्यात्मिक वाला ज्ञान भी नहीं चाहिए, लेकिन क्योंकि समाज की स्वीकृति चाहिए, उस समाज के सामने खुद को सज्जन दिखाना है, उस वजह से भी ऐसे बाबाओं की शरण में जाना जरूरी बन गया है। वैसे कई लोग कहते हैं कि हमे क्योंकि भगवान की भक्ति में रमना है, इसलिए ऐसे सत्संगों में जाना पसंद करते हैं। उन्हें क्योंकि भगवान के दर्शन करने हैं, इसलिए वे उन बाबाओं की मदद लेते हैं। इस तरह की सोच को हमारे लिए फोर्टिस अस्पताल की वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर हेमिका अग्रवाल ने काफी बखूबी से डीकोड करने का काम किया है। उन्होंने जोर देकर कहा है कि भक्ति करना कभी गलत नहीं हो सकता है।

पूजा बनाए विनम्र, अहंकार मतलब भक्ति में कमी

डॉक्टर हेमिका कहती हैं कि हमारी साइकोलॉजी की किताबों में इस बात का जिक्र है कि जिस समाज में लोग धार्मिक होते हैं या जिनकी प्रवृति धार्मिक रहती है, वहां डिप्रेशन की शिकायत उतनी ही कम हो जाती है। लेकिन बात वही है कि हर चीज एक्सट्रीम में बुरी भी होती है। अंधविश्वास हो जाना, या फिर पूजा-पाठ करने की वजह से आपके अंदर ही घमंड आ जाए, आप खुद को दूसरे की तुलना में ज्यादा महान समझने लगे, तब तो आपकी पूजा का उदेश्य ही गलत हो जाता है। पूजा का काम तो विनम्र बनाना है, लेकिन अगर अहंकार आ रहा है तो मानकर चलिए कि आपकी भक्ति गलत डायरेक्शन में जा रही है।

भक्त क्यों नहीं मान पाते- बाबा गलत हो सकते हैं?

अब डॉक्टर हेमिका ने हमे असल भक्ति की परिभाषा तो बताई ही, इसके साथ-साथ उन्होंने उन बाबाओं की लोकप्रियता का जिक्र किया जिस वजह से लोग पूरी तरह उनके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। डॉक्टर के मुताबिक जो भी इंसान पब्लिक फिगर बन जाता है, उसका असर तो लाखों लोगों पर पड़ेगा ही है। उसने क्या गलत किया, उसके इतने साक्ष्य नहीं मिलते, लेकिन क्योंकि उसका असर ज्यादा लोगों पर रहता है, ऐसे में मुश्किल वक्त में वही लोग बड़ी तादाद में अपने बाबा के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। इस बारे में डॉक्टर हेमिका कहती हैं कि आप सलमान खान का उदाहरण लीजिए। हिट एंड रन का केस था, तब कितने सारे साक्ष्य थे, लेकिन फिर भी पूरा देश उनके समर्थन में खड़ा हो गया, क्या माना जाए कि पूरा देश वहां उस समय उस घटना के समय भी मौजूद था। नहीं ना, लेकिन क्योंकि वे पब्लिक फिगर हैं, ऐसे में लोगों पर उनका तगड़ा असर रहता है। बात चाहे फिल्म स्टार की हो या फिर किसी साधु की, जब लोगों के मन में किसी के लिए अटैचमेंट आ जाता है, तब सबकुछ बदल जाता है, उनके सोचने का नजरिया बदल जाता है।

डॉक्टर हेमिका के मुताबिक सोशल साइकोलॉजी इस प्रकार की अटैचमेंट को सही तरह से समझाती है। उनका मानना है कई बार हम कुछ लोगों को अपना आदर्श मानने लग जाते हैं, हममे जो कमिया होती हैं, हम उन लोगों को देखकर उन्हें दूर करने की कोशिश करते हैं। सोशल साइकोलॉजी कहती है जिन्हें हम अपना आदर्श मानने लग जाते हैं, उनके प्रति हमारी आसक्ति भी बढ़ जाती है, ऐसे में उनके खिलाफ कुछ भी सुनना बर्दाश्त नहीं किया जाता है। फिर चाहे यह लोग बाबा हों, एथलीट हों या फिर कोई फिल्म स्टार।

हमारी परवरिश करती सबकुछ तय

वैसे कुछ लोग अगर ऐसे भक्तों के लिए ब्रेनवॉश जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जब हमने सीनियर कंसलटेंट डॉक्टर कल्पना उपमन्यु से बात की तो उन्होंने एक अलग ही नजरिया सामने रख दिया। उन्होंने बाबाओं वाले कल्चर को लोगों के संस्कारों से जोड़ दिया, उनकी नजर में कैसे परिवार में आप पले-बढ़े हैं, उसका असर भी आपकी सोच, आपके फैसलों पर पड़ता है। वे कहती हैं कि अपने देश में धर्म की जड़ें बहुत मजबूत हैं। जितनी जड़ें मजबूत होती हैं, हम उतना ही आध्यात्म की ओर अग्रसर हो जाते हैं। मैं समझती हूं कि यह सारा विश्वास का खेल है, बचपन से आप सुनते आ रहे हैं, उसका बहुत असर पड़ता है। हमे कहा जाता है कि बड़ों का आशीर्वाद मिल जाए, पंडितों का आशीर्वाद मिल जाए, तो अच्छा रहेगा। अब यह सारे वो संस्कार हैं जो हम साथ लेकर चलते हैं, ऐसे में किसी को भी इस आधार पर जज नहीं किया जा सकता कि वो सही कर रहे हैं या गलत।

अंधविश्वास कहना गलत, लोगों के अनुभव समझना जरूरी

डॉक्टर कल्पना तो यह मानने को भी तैयार नहीं है कि हम इस प्रकार की भक्ति को अंधविश्वास कहें। उन्होंने जोर देकर कहा है कि आपके जीवन में जैसी घटनाएं होती हैं, उसी आधार पर आपके अलग-अलग विश्वास बनते हैं। वे बताती हैं कि लोग कहते हैं कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया, इसलिए अशुभ हुआ। अब ऐसा इसिलए कहा जा रहा है क्योंकि उनके साथ लगातार ऐसा कुछ हुआ है। मान लीजिए कि बिल्ली ने रास्ता काटा और उनकी गाड़ी पंचर हो जाए, फिर दोबारा सेम चीज उनके साथ हो, तो उनके मन में तो धारणा सेट हो जाएगी कि बिल्ली ने रास्ता काटा है तो अशुभ होगा। इसी तरह से अगर लाइफ में कोई भी इवेंट बार-बार होता है, तो उस वजह से उन चीजों को लेकर जड़ें मजबूत हो जाती हैं।

बुजुर्गों का ज्ञान बनाम बाबा का प्रवचन

डॉ कल्पना ने हमसे बात करते हुए इस बात पर भी जोर दिया कि वो लोग बाबाओं के पास ज्यादा जाते हैं जो अपने जीवन में अकेलापन महसूस करते हैं या फिर जिन्हें अपने परिवार में किसी का सहारा नहीं मिलता है। उनका कहना है कि ज्यादातर लोग वो बाबा के पास जाते हैं जिनके पास परिवार में कोई समझाने वाला नहीं होता, ऐसे लोग भेड़ चाल की वजह से उन बाबाओं से जुड़ जाते हैं। जिनके घर में बुजुर्ग होते हैं तब तो अनुभव के जरिए ऐसा ज्ञान मिलता है जिसमें लॉजिक भी होता है और वो ज्यादा रिलेटेबल भी लगता है। लेकिन कभी भी छोटे परिवारों में लोग किसी के बहकावे में आ जाते हैं, लोग अंधे ज्ञान की ओर भाग जाते हैं।

यानी कि ऐसे बाबाओं की टारगेट ऑडियंस में तीन तरह के लोग होते हैं- पहले वो जो छोटे परिवारों में रहते हैं, दूसरे वो जो अपने जीवन में दुखी होते हैं और तीसरी वो महिलाएं जो जरूरत से ज्यादा धार्मिक रहती हैं। इसके ऊपर बाबाओं के पास जाने वाले लोग यह नहीं सोचते कि उनके ऊपर कोई क्रिमिनल केस है या नहीं। उनके लिए उनका विश्वास ही सबकुछ रहता है, वो हर उस दावे को नकार जाते हैं जो उनके उस विश्वास को चोट पहुंचाने का काम करे। इस बारे में डॉक्टर इंदिरा शर्मा ने काफी बड़ी बात बोली है। वे कहती हैं कि जो लोग बाबाओं के पास जा रहे हैं, वो कोई उनके करेक्टर की समीक्षा नहीं कर रहे हैं, वो तो बस इतना सोचते हैं कि इस बाबा का बहुत नाम है, अगर हम मिलेंगे तो हमारे साथ भी अच्छा होगा। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाबा पर कितने आरोप हैं, उसकी क्राइम कुंडली क्या है।

पढ़े-लिखे लोग बाबाओं के पास क्यों जाते?

डॉक्टर इंदिरा एक दिलचस्प बात यह भी बताती हैं कि सिर्फ कम पढ़े लिखे या गरीब तबके के लोग ही इन बाबाओं के पास नहीं जाते हैं। उन्होंने कहा कि जो बहुत ज्यादा पढ़े लिखे होते हैं, जिनके पास तमाम डिग्रियां होती हैं, वो तक ऐसे बाबाओं में विश्वास करते हैं। घर में कोई बीमार हो जाए तो डॉक्टरी इलाज तो करवाएंगे, लेकिन मंदिर जरूर जाएंगे। अब डॉक्टर इंदिरा के मुताबिक हम इस प्रकार के ट्रेंड को साइकोलॉजी में Over Valued Ideas कहते हैं, आप इन्हें ना सही कह सकते हैं और ना ही गलत। यह तो कई सालों से चला आ रहा है, एक विश्वास है बस। पढ़े लिखे को भी पता है कि जो बाबा करते हैं उसके पीछे कोई साइंस नहीं है, लेकिन फिर भी मानते हैं।

धर्म करता आजाद, अंधविश्वास में नहीं बांधता

अब इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर हेमिका ने यहां तक कहा है कि अंधविश्वास का शिकार हुए लोग इस देश के धर्म को इसके लिए दोष नहीं दे सकते हैं। वे मानती हैं कि हिंदू धर्म उल्टा लोगों को अंधविश्वास से दूर करता है। यह धर्म लोगों को विनम्र बनाता है, उन्हें और अच्छा इंसान बनने पर प्रेरित करता है। डॉ हेमिका ने कहा कि हिंदू धर्म में तो हर भगवान की भी कमी दिखाई गई है, हमारा धर्म तो इतना फ्रीडम देता है कि हम भगवान की कमी भी देखें। गीता में तो बताया गया कैसे कृष्णी जी की कमी की वजह से उनके खुद के वंश में दिक्कत आई। ऐसे में कोई इंसान परफेक्ट नहीं है और धर्म कभी भी अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देता है। हाथरस में भगदड़ हुई, अगर सही मायनों में लोग धर्म को मानते हैं तो धैर्य रखते, हर धर्म यही तो सिखाता है। अगर पहले बुजुर्गों को जाने देते, फिर एक-एक कर निकलते तो यह दिक्कत ही नहीं आती।

आखिर में सभी एक्सपर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अगर लोगों को और ज्यादा शिक्षित किया जाए तो इस प्रकार से अंधविश्वास में पड़ना खत्म हो जाएगा। सभी का यह भी मानना रहा कि धर्म कोई गलत चीज नहीं है, किसी में आस्था रखना भी गलत नहीं है, बस विवेक का इस्तेमाल करते रहना चाहिए।

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