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Blog: मुनाफे की व्यवस्था और महंगाई मापने का पैमाना, सरकारी नजर में कम हुईं कीमतें, लेकिन जनता की दिक्कतें वहीं की वहीं

देश की दो-तिहाई आबादी, जिसमें लगभग 96-98 करोड़ लोग आते हैं, इन दिनों महंगाई को लेकर बेहद परेशान है और बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही है, लेकिन सरकार महंगाई को समस्या मानने को तैयार नहीं है। पढ़ें लखन चौधरी की रिपोर्ट।
Written by: जनसत्ता
नई दिल्ली | Updated: July 05, 2024 08:34 IST
सब्जियों के दाम बढ़े। (इमेज-एक्सप्रेस फोटो)
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भारत में मुद्रास्फीति यानी महंगाई अब सरकार के काबू में आती लग रही है। अब खुदरा कीमतें बारह महीने के निचले स्तर 4.75 फीसद पर आ गई हैं, जो मई-जून 2023 के बाद सबसे कम है। ‘कोर’ मुद्रास्फीति 3.2 फीसद से घट कर मई-जून 2024 में 3.1 फीसद हो गई है। हालांकि देश में खाद्य मुद्रास्फीति 8.69 फीसद पर स्थिर बनी हुई है। मगर आम लोगों से बात करें तो लगता है कि देश में महंगाई, इन सरकारी आंकड़ों के बरक्स कहीं अधिक है। दरअसल, इसकी मुख्य वजह है कि सरकार ने अब महंगाई मापने का मानदंड बदल दिया है।

कोरोना महामारी के बाद खानपान, उपभोग और जीवन शैली में आए व्यापक बदलावों के मद्देनजर मुद्रास्फीति मापने के मानदंड में परिवर्तन किया गया है। इसके लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अंतर्गत विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के भार को घरेलू खर्च के तौर-तरीकों में आए बदलावों के साथ समायोजित किया गया है। सरकार का तर्क है कि इस तरह के बदलाव दुनिया भर में किए गए हैं, और यह अद्यतन यूरोपीय अंतरराष्ट्रीय मूल्य सांख्यिकी मार्गदर्शन दृष्टिकोण के अनुरूप है।

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इसके तहत सरकार ने 2021, 2022 और 2023 के व्ययभार की तुलना में 2024 के व्ययभार में परिवर्तन किया है। इसके अंतर्गत महंगाई के सूचकांक की गणना में खाद्य वस्तुओं का व्ययभार कम हो गया है, जबकि स्वास्थ्य, मनोरंजन, संस्कृति, रेस्तरां और होटलों के खर्च सहित अन्य खर्चों के भार में बढ़ोतरी कर दी गई है। मुद्रास्फीति के सूचकांक की गणना में खाद्य वस्तुओं का व्ययभार कम होने से थोक महंगाई दर अधिक होने के बावजूद, खुदरा महंगाई दर पांच फीसद से न सिर्फ नीचे है, बल्कि पिछले एक वर्ष के मुकाबले भी कम बनी हुई है।

इधर, खासकर खाद्य महंगाई को लेकर देश के निम्न मध्यवर्ग, शहरी मध्यवर्ग और असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोग त्रस्त हैं। देश की दो-तिहाई आबादी, जिसमें लगभग 96-98 करोड़ लोग आते हैं, इन दिनों महंगाई को लेकर बेहद परेशान है और बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही हैं, लेकिन सरकार महंगाई को समस्या मानने को तैयार नहीं है। इस समय देश में खाद्य महंगाई, जिसमें खाने-पीने की प्रमुख चीजों जैसे दाल, चावल, आटा, सब्जियां, आलू, प्याज, टमाटर, तेल, दूध, फल आदि की कीमतें आम आदमी की पहुंच के बाहर होती जा रही हैं।

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अध्ययन बता रहे हैं कि भारत में विगत एक वर्ष में रोजमर्रा और जीवनयापन की जरूरी खाद्य वस्तुओं की कीमतें 65-70 फीसद तक बढ़ चुकी हैं। दालों और सब्जियों की कीमतें दोगुनी हो चुकी हैं। इस समय बाजार में कोई सब्जी 50-60 रुपए से कम नहीं है, और मुख्य सब्जियां तो 80-100 रुपए तक पहुंच गई हैं। मगर सरकार का दावा है कि थोक और खुदरा दोनों मुद्रास्फीति दर नियंत्रण में हैं। सरकार के मुताबिक महंगाई की मुख्य वजह गर्मी है, जो मानसून के आते-आते खत्म हो जाएगी। मगर हकीकत यह है कि खाद्य महंगाई के लिए सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं। वर्तमान खाद्य महंगाई के पीछे कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की अनदेखी, घोर उपेक्षा और गहरी अज्ञानता है।

राजस्व वृद्धि के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर भारी उत्पाद शुल्क की वसूली जारी है। मुफ्त राशन मुहैया कराने के नाम पर सरकारी खजाने को भरने के लिए आम जनता पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह के करों का बोझ बढ़ता जा रहा है। दरअसल, आवश्यक वस्तुओं-सेवाओं पर जीएसटी-परोक्ष करों की भारी दरें महंगाई की बड़ी वजह है। सड़क परिवहन को टोल-टैक्स की भारी दरों ने और महंगा बना दिया है, क्योंकि लगभग तीन चौथाई से अधिक जरूरी खाद्य वस्तुओं का परिवहन सड़कों के माध्यम से होता है। नतीजा साफ है कि खाने-पीने से लेकर घर बनाने, सैर-सपाटे, रोजमर्रा के कामों के लिए परिवहन तक तमाम जरूरी खर्चों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है।

महंगाई अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है। महंगाई की वजह से मध्यवर्गीय परिवारों का बजट बिगड़ता है, जो अर्थव्यवस्था का आधार होते हैं। महंगाई इसलिए चुनौतीपूर्ण है कि महंगाई से विकास योजनाओं की लागतें बढ़ जाती हैं। महंगाई से विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और देखरेख के खर्चे बढ़ जाते हैं। महंगाई से विकास नीतियों की दशा और दिशा प्रभावित होती है। महंगाई सबसे अधिक मध्यवर्गीय जीवन शैली को प्रभावित करती, असंगठित क्षेत्र के लोगों पर असर डालती है।

दरअसल, महंगाई का एक अलग अर्थशास्त्र है, जो बताता और समझाता है कि इससे उत्पादकों, व्यापारियों, कारोबारियों, उद्योगपतियों, उद्यमियों, कार्पोरेट घरानों और सरकारों को असामान्य मुनाफा या लाभ होता है, जिसकी वजह से इसको रोकने या नियंत्रित करने के लिए कोई गंभीरता नहीं दिखाई जाती है। इसका तात्पर्य है कि महंगाई से आम उपभोक्ताओं को छोड़कर शेष सबको फायदा ही होता है, लिहाजा इस पर लगाम लगाने की बातें केवल कपोल-कल्पित सिद्ध होती रहती हैं। मुद्रास्फीति से बाजार में बिकने वाली वस्तुएं और सेवाएं महंगी हो जाती हैं, इससे सरकार का कर राजस्व लगातार बढ़ता रहता है। मगर महंगाई का खमियाजा आम आदमी को ही भुगतना या भोगना पड़ता है।

इस समय देश में महंगाई की मुख्य वजह देश के बमुश्किल एक-तिहाई लोगों की आर्थिक उन्नति और संवृद्धि है। इन एक-तिहाई लोगों की आमदनी में लगातार इजाफा हो रहा है। जीडीपी में वृद्धि का सारा फायदा इन्हीं एक-तिहाई लोगों की झोली में जा रहा है। देश की इस विशाल आबादी में इन एक-तिहाई लोगों में कारपोरेट घराने, उद्योगपति, बड़े कारोबारी, बड़े व्यापारी, राजनेता, खेल, मनोरंजन जगत से जुड़े सेलिब्रिटी समूह, नौकरशाह, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े अधिकारी, कारपोरेट और कंपनियों के बड़े हिस्सेदार या बड़े अधिकारी आदि होते हैं। बाजार इन्हीं के दम पर चलते हैं, और सरकार को लगता है कि सब कुछ ठीकठाक है। बाजार में मांग है, खपत है, बाजार वस्तुओं से अटे पड़े हैं, उनमें वस्तुओं की बिक्री भी खूब हो रही है, फिर महंगाई का रोना क्यों?

देश के तीन-चौथाई संसाधनों पर इन्हीं एक-तिहाई लोगों का कब्जा है। देश की तमाम आर्थिक नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के निर्धारण में इसी वर्ग की बड़ी भूमिका होती है। बाजार की ताकतों ने सामानों की खरीदी-बिक्री के बाजार को बढ़ाने के लिए खेल, फिल्म एवं मनोरंजन जगत से जुड़े मशहूर लोगों को अनुबंध आधार पर ले रखा है। बाजारों की चकाचौंध रोशनी और तड़क-भड़क से आम मध्यवर्गीय की आंखें चौंधिया चुकी हैं, और कर्ज लेकर गैर-जरूरी चीजों से घरों को भरा जा रहा है। ऐसे में किसी को महंगाई को लेकर चिंता और चिंतन करने की जरूरत कहां है? बाजार और सरकार इस पर क्यों चिंता करें, जब त्रस्त लोग खुद ही निश्चिंत हैं? जब महंगाई के विरुद्ध आवाज उठाने वाली 82-85 करोड़ जनता मुफ्त के राशन के भरोसे हो, तो फिर ऐसे हालात में महंगाई पर सरकार गंभीर भी क्यों हो?

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