Blog: स्थानीय तपिश से बढ़ती दुश्वारियां, एक महीने से ज्यादा प्रचंड गर्मी ‘लोकल वार्मिंग’
धीरे-धीरे हो रहे ऋतुचक्र में बदलाव को वैज्ञानिक इंसानी मनमानी का परिणाम बता रहे हैं। उनके मुताबिक बेतरतीब तथाकथित विकास की वजह से जलवायु परिवर्तन की समस्या आई है। इससे देश दुनिया में अनेक नई समस्याएं आए दिन पैदा हो रही हैं। इससे ऋतुओं का स्वभाव ही नहीं, बहुत कुछ बदल गया है। इंसान के साथ वनस्पतियों, जीव-जंतुओं का स्वभाव भी बदलने लगा है। सबसे खतरनाक असर शहरों में लोगों की नींद पर पड़ रहा है। गर्मी का दौर लंबा चलने लगा है, तो विकट शीत भी कंपाने लगी है। इसी तरह बरसात की अति हो गई है। अब उन इलाकों में भी विकट बरसात होने लगी है, जो रेगिस्तान माने जाते थे। वैज्ञानिकों के मुताबिक इन बदलावों का असर स्थानीय तपिश यानी ‘लोकल वार्मिंग’ के रूप में देखा जा रहा है। दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में इस बार एक महीने से ज्यादा प्रचंड गर्मी या लू चलने की वजह ‘लोकल वार्मिंग’ बताया जा रहा है।
‘क्लाइमेट सेंट्रल’ की ‘स्लीपलेस नाइट्स’ की रपट के मुताबिक 2018-2023 के बीच दिल्ली के अलावा पंजाब, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के शहरों में वर्ष में करीब 50 से 80 ऐसी अतिरिक्त रातें दर्ज की गर्इं, जब तापमान 25 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया। यह जलवायु परिवर्तन का असर है, जो ‘लोकल वार्मिंग’ के रूप में देखा जा रहा है। ‘लोकल वार्मिंग’ का सबसे ज्यादा असर मुंबई में देखा जा रहा है, जहां पिछले वर्ष पैंसठ अतिरिक्त गर्म रातें दर्ज की गईं। आंकड़ों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल और असम पर जलवायु परिवर्तन का असर ‘लोकल वार्मिंग’ के रूप में देखा जा रहा है। इससे इन राज्यों के जलपाईगुड़ी, गुवाहाटी, सिलचर, डिब्रूगढ़ और सिलीगुड़ी की औसतन चालीस रातों का तापमान पिछले कई सालों से 25 डिग्री सेल्सियस के ऊपर दर्ज किया जा रहा है। रपट के मुताबिक गंगटोक, दार्जिलिंग, शिमला और मैसूर में भी इस साल की औसतन 35 रातों का तापमान सामान्य से ऊपर रहा।
इस वर्ष दिल्ली क्षेत्र में चालीस दिन बाद दिन का तापमान 40 डिग्री से नीचे आया। इसके पीछे वजह ‘ग्लोबल वार्मिंग’ नहीं, बल्कि ‘लोकल वार्मिंग’ है, जिसमें पश्चिमी विक्षोभ का अभाव, बरसात न होना और अलनीनो का असर तो है ही, ऊंची इमारतें और संकरी गलियां हैं, जिसकी वजह से रात के वक्त वायुमंडल की अतिरिक्त गर्मी निकल नहीं पाती है। ‘सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट’ (सीएसई) के दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता और मुंबई में किए गए अध्ययन के मुताबिक उक्त शहरों के ग्रामीण इलाकों का तापमान शहरों की अपेक्षा तीन डिग्री सेंटीग्रेड तक कम रहा। जबकि रात का तापमान बारह डिग्री तक कम दर्ज किया गया। इसकी वजह घरों की बनावट, उनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्री भी है। अगर गांवों की तरह शहरों के मकान भी एक मंजिला बनने लगें तो शहरों के तापमान में तीन डिग्री सेंटीग्रेड की कमी हो सकती है। बताया जा रहा है कि संकरी गलियां, बंद कमरे, वायुमंडल में कार्बन की ज्यादा मात्रा भी ‘लोकल वार्मिंग’ की वजह हो सकती है।
‘लोकल वार्मिंग’ के विपरीत असर की वजह शहरों में वन क्षेत्र का लगातार कम होते जाना है। दिल्ली में ही पिछले पंद्रह सालों में करीब 103.79 हेक्टेयर वन क्षेत्र का विकास हुआ, जो पर्यावरण के नजरिए से बेहद कम है। ‘इंडिया स्टेट आफ फारेस्ट रपट 2021’ के मुताबिक दिल्ली का वन क्षेत्र करीब 195 वर्ग किमी है। मगर सरकारी दस्तावेज में यह महज 103 वर्ग मीटर दर्ज है। शोध के मुताबिक दिल्ली में इतनी प्रचंड गर्मी पड़ने का दूसरा बड़ा कारण अरावली पहाड़ियों का उजाड़ना, पहाड़ी और हरित क्षेत्र का लगातार कम होते जाना है। पिछले चालीस वर्षों में अरावली और उसके आसपास बेतहाशा खनन हुआ। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद दिल्ली परिक्षेत्र को, जो प्राकृतिक संसाधनों से कभी भरा-पूरा था, खनन माफिया और राजनेताओं के गठजोड़ से उजाड़ दिया गया। इससे जैव विविधता का नाश, धरती और हवा असंतुलित हुए।
अगर गर्मी के तीन महीनों का आकलन करें तो पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर पर्यावरण को खराब करने के लिए महज कल-कारखाने, वाहन और पराली का धुंआ नहीं, बल्कि खनन से उड़ने वाली धूल भी काफी हद तक जिम्मेदार रही है। हैरानी की बात है कि भू-माफिया और खनन माफिया का संरक्षण एनसीआर प्रशासन के जरिए होता रहा है, वरना क्या वजह है कि दिल्ली के अरावली क्षेत्र के दो सौ किमी में सक्रिय खनन माफिया के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की गई। आंकड़ों के मुताबिक अवैध खनन की वजह से अरावली पर्वत शृंखला में स्थित तीस पहाड़ गायब हो चुके हैं। इसलिए राजस्थान की तरफ से आने वाली गर्म हवा को रोकना कठिन हो गया है। अरावली पर शोध करने वाले शोधार्थियों के मुताबिक, अगर अरावली में खनन पर रोक नहीं लगाई गई, तो आने वाले वक्त में रेगिस्तान दिल्ली तक पहुंच सकता है।
अरावली दिल्ली-एनसीआर के लिए जीवनदायनी है। मगर शासन यह बात मानने और समझने को तैयार नहीं है। इसलिए आने वाले वक्त में गर्मी और लू का दौर और भयंकर या प्रलयंकर हो सकता है। दिल्ली की सीमा राजस्थान और हरियाणा से सटी होने की वजह से पश्चिमी हवा सबसे पहले दिल्ली की सीमा से सटे गांवों पर असर डालती है। आजादी के बाद दिल्ली क्षेत्र में इंसानी बसावट को बेतरतीब तरीके से बढ़ाया गया। भवन निर्माण को लगातार बढ़ावा दिया जाता रहा है। इससे जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ती गई। गौरतलब है कि पिछले चार दशक में दिल्ली-एनसीआर में ‘लोकल वार्मिंग’ की समस्या और उससे होने वाली दुश्वारियां तेजी से बढ़ी हैं। इससे हजारों लोग रक्तचाप और मधुमेह जैसी खतरनाक बीमारियों के चपेट में आ रहे हैं। मांसपेशियों की संरचना पर असर पड़ने लगा है। इससे बच्चे और बूढ़े लोगों में मौत का जोखिम बढ़ गया है। मगर शासन को जैव विविधता के हो रहे विनाश की फिक्र नहीं है। दिल्ली सहित देश के तमाम शहरों में प्राकृतिक क्षेत्रों को बढ़ाने की अपेक्षा इन्हें उजाड़ने का काम चलता ही रहता है।
एक अध्ययन के मुताबिक, दिल्ली परिक्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की एक वजह बेतरतीब कालोनियों का बनना है। वहीं, कूड़े के पहाड़ों, लोहे और प्लास्टिक का हजारों टन कचरा जो इधर-उधर बिखरा रहता है, उससे भी जलवायु का असंतुलन बढ़ रहा है। स्थानीय स्तर पर पर्यावरण को बेहतर तरीके से संतुलित रखना बेहद जरूरी है। सवाल है कि बेतहाशा विकास के दौर में जब हम अपने कोटरों में ही कैद होकर रह गए हैं, क्या ‘लोकल वार्मिंग’ से बढ़ रही दुश्वारियों को कम करने में अपना फर्ज निभाने के लिए आगे आएंगे? जल, जंगल, जमीन और जानवर के प्रति संरक्षण की भूमिका में खुद को ला पाएंगे? उन सरकारी नियमों और निर्देशों का पालन करने की समझदारी निभाएंगे, जो गर्मी को न बढ़ने देने के लिए बनाए गए हैं?
सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट’ (सीएसई) के दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता और मुंबई में किए गए अध्ययन के मुताबिक उक्त शहरों के ग्रामीण इलाकों का तापमान शहरों की अपेक्षा तीन डिग्री सेंटीग्रेड तक कम रहा। जबकि रात का तापमान बारह डिग्री तक कम दर्ज किया गया। इसकी वजह घरों की बनावट, उनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्री भी है। अगर गांवों की तरह शहरों के मकान भी एक मंजिला बनने लगें तो शहरों के तापमान में तीन डिग्री सेंटीग्रेड की कमी हो सकती है। बताया जा रहा है कि संकरी गलियां, बंद कमरे, वायुमंडल में कार्बन की ज्यादा मात्रा भी ‘लोकल वार्मिंग’ की वजह हो सकती है।