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सरकार ग‍िरना अटल था, व‍िश्‍वास मत पर चर्चा रुकवा वाजपेयी ने अचानक बुला ली थी कैब‍िनेट की बैठक

सोमनाथ चटर्जी ने अपनी क‍िताब में दावा क‍िया है क‍ि 1996 में अटल ब‍िहारी वाजपेयी और पूरी भाजपा को पता था क‍ि सरकार नहीं बचेगी। फ‍िर भी, व‍िश्‍वास मत पर चर्चा के बीच अचानक लंच ब्रेक करा कर कैब‍िनेट की बैठक बुलाई गई थी।
Written by: shrutisrivastva
नई दिल्ली | June 14, 2024 19:16 IST
सरकार ग‍िरना अटल था  व‍िश्‍वास मत पर चर्चा रुकवा वाजपेयी ने अचानक बुला ली थी कैब‍िनेट की बैठक
सोमनाथ चटर्जी ने अपने संस्‍मरण Keeping The Faith Memoirs of a Parliamentarian में व‍िस्‍तार से अटल सरकार के वक्‍त के इस प्रकरण का ज‍िक्र क‍िया है।
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साल 1996 में जब पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्‍व में भाजपा ने अल्‍पमत की सरकार बनाई थी, तब एनरॉन कंपनी को अस्‍वाभाव‍िक रूप से फायदा पहुंचाया गया था। इसका ज‍िक्र लंबे समय तक सांसद और लोकसभा अध्‍यक्ष रहे, सीपीआई (एम) नेता सोमनाथ चटर्जी ने अपने संस्‍मरण Keeping The Faith- Memories of a Parliamentarian में व‍िस्‍तार से क‍िया है।

हार्पर कॉल‍िन्‍स से प्रकाश‍ित इस क‍िताब में सोमनाथ दा ने यह भी ल‍िखा है क‍ि भाजपा ने यह जानते हुए क‍ि वह बहुमत नहीं जुटा पाएगी, सरकार बना ल‍िया था। सोमनाथ दा पहली बार 1971 में सांसद बने थे और तब से 2009 तक लगभग हर बार (1984 के अपवाद को छोड़ कर) चुने गए थे। वह 2004-09 के बीच लोकसभा अध्‍यक्ष भी रहे थे।

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पूर्व लोकसभा अध्‍यक्ष ने अपनी क‍िताब में बताया है क‍ि जब अटल सरकार ने व‍िश्‍वास मत हास‍िल करने के ल‍िए सदन में चर्चा शुरू की तो सत्‍ता पक्ष की ओर से सदस्‍यों को सूच‍ित क‍िया गया क‍ि लंच ब्रेक के ब‍िना चर्चा जारी रहेगी। लेक‍िन, समय आने पर अचानक लंच ब्रेक हो गया और इस दौरान कैब‍िनेट की एक बैठक बुला ली गई। कैब‍िनेट की यह बैठक एनरॉन कंपनी को काउंटर गारंटी द‍िए जाने से संबंध‍ित मुद्दे को हरी झंडी देने के ल‍िए बुलाई गई थी।

सोमनाथ ल‍िखते हैं क‍ि सरकार को पता था क‍ि वह ब‍हुमत साब‍ित नहीं कर पाएगी। ऐसे में एक खास मकसद से कैब‍िनेट की बैठक बुलाना हर ल‍िहाज से गलत था।

सोमनाथ लिखते हैं, "1996 से 2004 के बीच का समय सांप्रदायिक ताकतों के उभार और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की स्थिर सरकार प्रदान करने में विफलता के कारण अच्छा नहीं रहा। नरसिम्हा राव की सरकार की अमीर-समर्थक नीतियों ने लोगों को काफी परेशान किया। अप्रैल-मई 1996 के आम चुनाव में कोई भी पार्टी स्पष्ट बहुमत हासिल करने में सक्षम नहीं थी। बीजेपी 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन बीजेपी अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी।" लेक‍िन, 15 मई, 1996 को राष्‍ट्रपत‍ि का न्‍योता म‍िला और 16 मई 1996 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आई। एक ऐसी पार्टी ने सरकार बनाई जिसके पास 30% से कम सीट और 20% से कम वोट शेयर था।

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राष्ट्रपति के निर्देशानुसार, सरकार को 27-28 मई 1996 तक बहुमत साबित करना था। पूरी कोश‍िश के बाद भी भाजपा केवल 194 सांसदों के समर्थन का जुगाड़ कर सकी।

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बकौल सोमनाथ चटर्जी, विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान अपने वक्‍तव्‍यों से वाजपेयी आरएसएस के कार्यकर्ता ज्यादा और भारत के प्रधानमंत्री कम लग रहे थे।

विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान क्या हुआ?

सोमनाथ लिखते हैं, "27 मई 1996 को प्रधानमंत्री द्वारा पेश किए गए विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू होने से पहले, सदस्यों को सरकारी बेंच द्वारा बताया गया था कि दोपहर के भोजन के लिए कोई ब्रेक नहीं होगा और प्रस्ताव पर बहस तब तक जारी रहेगी जब तक कि यह पूरा न हो जाए। लेकिन बहस के दौरान अचानक लगभग एक बजे, हमें सूचित किया गया कि लंच ब्रेक होगा और उसके बाद बहस फिर से शुरू होगी।"

"ब्रेक के दौरान सदन उठने के बाद हमें पता चला कि दाभोल पावर प्रोजेक्ट के संबंध में एनरॉन के पक्ष में दी जाने वाली काउंटर-गारंटी को मंजूरी देने के लिए तत्काल कैबिनेट बैठक आयोजित की जा रही थी। गौरतलब है कि उस समय तक सदन की कार्यवाही से यह स्पष्ट हो गया था कि सरकार निश्चित रूप से गिर जाएगी क्योंकि वह पूरी तरह अल्पमत में थी।"

क्या था एनरॉन मुद्दा?

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि एनरॉन मुद्दे में क्या शामिल था। अमेरिकी ऊर्जा कंपनी एनरॉन महाराष्ट्र के दाभोल में एक विशाल बिजली संयंत्र स्थापित कर रही थी। यह परियोजना शुरू में सरकारी कंपनी, नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) द्वारा विकसित की गई थी, और यह देश में तटीय गैस-आधारित बिजली संयंत्रों में से पहला था। यह परियोजना 1992 में एनटीपीसी द्वारा शुरू की गई थी लेकिन अंततः एनरॉन दाभोल परियोजना का प्रमुख मालिक बन गया जिसमें महाराष्ट्र राज्य विद्युत बोर्ड (एमएसईबी) की 15 प्रतिशत हिस्सेदारी थी और बाकी का स्वामित्व शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास था।

तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए भारत में बिजली क्षेत्र को निजी विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया गया था। एनरॉन ने परियोजना को एक संयुक्त उद्यम परियोजना के रूप में स्थापित करने के लिए एमएसईबी के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया।

दाभोल पावर कंपनी और एमएसईबी ने दिसंबर 1993 में एक पावर परचेस अग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए थे। एनरॉन ने भारत सरकार के साथ-साथ परियोजना के लिए वित्तीय सहायता के लिए अमेरिकी सरकार और विश्व बैंक जैसे अन्य वित्तीय संस्थान से पैरवी की।

हालांकि, वर्ल्ड बैंक ने इस परियोजना को आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं पाया और इसलिए इसे फंडिंग नहीं की क्योंकि बिजली उत्पादन की लागत बहुत अधिक होगी। परियोजना के कई अन्य नकारात्मक पहलुओं को भी विश्व बैंक ने उजागर किया और यह अत्यधिक विवादास्पद हो गया।

1995 में महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन

लेखक लिखते हैं, "चुनाव के बाद 1995 में महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन हुआ और बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन हुआ. नई सरकार ने परियोजना की समीक्षा के लिए एक समिति नियुक्त की, जिसे मुंडे समिति के नाम से जाना जाता है। अपनी रिपोर्ट में समिति ने न केवल उस प्रक्रिया की आलोचना की जिसके माध्यम से परियोजना विकसित की गई थी बल्कि सौदे की शर्तों को भी सही नहीं माना। साथ ही यह निष्कर्ष निकाला कि इसमें पारदर्शिता की कमी थी और एनरॉन को अनुचित लाभ और रियायतें दी गई थीं।

इस मूल्यांकन के आधार पर अगस्त 1995 में, महाराष्ट्र सरकार ने निर्माण को रोकने और परियोजना को रद्द करने का फैसला किया और इस आधार पर समझौते को रद्द करने के लिए कानूनी कार्यवाही शुरू की। जिसके बाद नवंबर 1995 में एनरॉन इंटरनेशनल की चेयरपर्सन रेबेका मार्क ने शिव सेना के नेता के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक की, जिसके परिणामस्वरूप एनरॉन और राज्य सरकार के बीच बातचीत फिर से शुरू हुई। 8 जनवरी 1996 को महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की कि वह एक संशोधित समझौते को स्वीकार करती है, जिसकी शर्तों को 23 फरवरी 1996 को अंतिम रूप दिया गया था।

राष्ट्रीय हित के खिलाफ था एनरॉन समझौता

इसके बाद, महाराष्ट्र सरकार द्वारा शुरू की गई कानूनी कार्यवाही वापस ले ली गई। दाभोल परियोजना बेहद विवादास्पद रही और परियोजना से परिचित देश के लगभग सभी लोगों ने महसूस किया कि मूल समझौता और 23 फरवरी 1996 का संशोधित समझौता दोनों राष्ट्रीय हित के खिलाफ थे।

एमएसईबी संयंत्र के उत्पादन का 90 प्रतिशत खरीदने के लिए प्रतिबद्ध था। प्रस्तावित समझौते ने मुद्रा में उतार-चढ़ाव के जोखिम को कवर करने के साथ-साथ राज्य के लिए वित्तीय जोखिम भी बढ़ा दिया। यह परियोजना विवादास्पद बनी रही और स्वयं महाराष्ट्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय हित और राज्य के हित के विपरीत माना, शायद इसीलिए उन्होंने अपने रुख में संशोधन किया और इसे आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया।

लंच ब्रेक में सरकार ने किया खेल

सोमनाथ लिखते हैं, "लंच ब्रेक के बाद लोकसभा ने प्रस्ताव पर चर्चा फिर से शुरू की। यह जानते हुए कि सरकार गिरने वाली थी और उसके पास कोई भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं था। सरकार ने ब्रेक देने का निर्णय केवल इसलिए लिया था ताकि वह इस दौरान गुप्त रूप से कैबिनेट बैठक आयोजित कर सके और एनरॉन को दी जाने वाली विवादास्पद प्रति-गारंटी की पुष्टि कर सके। सरकार के पास इस तरह का निर्णय लेने का न तो अधिकार था और न ही कोई औचित्य, पर संसद को पूरी तरह से अंधेरे में रखते हुए एनरॉन के पक्ष में काउंटर-गारंटी की पुष्टि करने की अपनी प्रस्तावित कार्रवाई छल से की, जो पूरी तरह से हितों के खिलाफ था।

अटल बिहारी वाजपेयी की अल्पमत सरकार ने यह फैसला लिया जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वे अस्थायी रूप से सत्ता में होने का लाभ उठाने की कोशिश करके महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित के खिलाफ कार्य करने के लिए भी तैयार थे। एनरॉन के पक्ष में प्रति-गारंटी के अनुसमर्थन का पूरा प्रकरण एक घोटाले के अलावा और कुछ नहीं था जहां लोगों के प्रतिनिधियों को जानबूझकर अंधेरे में रखा गया था।

वाजपेयी को पूरा यकीन था क‍ि सरकार नहीं बचेगी। उन्‍होंने इस्‍तीफा देने का फैसला क‍िया और व‍िश्‍वास मत के प्रस्‍ताव पर मतदान तक नहीं करवाया था।

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