न्यूक्लियर डील पर असहमति के चलते सीपीएम ने वापस ले लिया था समर्थन, गिरते-गिरते बची थी यूपीए की सरकार
18वीं लोकसभा के शुरू होते ही संसद के भीतर घमासान और वाद-विवाद के हालात बने। यह साफ तौर पर दिखाई दिया कि स्पीकर के चुनाव को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में कोई सहमति नहीं बन सकी और सत्ता पक्ष के बाद विपक्ष ने भी इस पद के लिए अपना उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतार दिया।
इसके बाद ओम बिरला को ध्वनिमत से सदन का स्पीकर चुन लिया गया। उनके सामने विपक्ष की ओर से इंडिया गठबंधन ने के. सुरेश को उम्मीदवार बनाया था। हालांकि चुनाव के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और रायबरेली से सांसद राहुल गांधी ने कहा कि विपक्ष सदन को बेहतर ढंग से चलाने में स्पीकर का सहयोग करेगा।
इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18वीं लोकसभा शुरू होने के मौके पर कहा था कि हम सभी को मिलकर काम करना है और मिलकर ही हम विकसित भारत के संकल्प को पूरा कर सकते हैं।
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने भी लोकतंत्र में विपक्ष की अहमियत पर जोर दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि चुनाव के दौरान मर्यादा का ध्यान नहीं रखा गया। उन्होंने कहा था कि दूसरा पक्ष विरोधी पक्ष नहीं, बल्कि प्रतिपक्ष है क्योंकि वह किसी मामले के दूसरे पहलू को सामने लाता है। भागवत का बयान भी सरकार और विपक्ष के बीच असहमति न होने और सहमति का माहौल बनाने की दिशा में ही था।
यूपीए सरकार पर आया था संकट
स्पीकर के चुनाव को लेकर जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच असहमति का मामला सामने आया है तो एक मामले में असहमति के ही चलते कुछ साल पहले यूपीए की सरकार गिरते-गिरते बची थी। इस बात का जिक्र लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपनी किताब कीपिंग द फेथ, मेमॉयर्स ऑफ़ ए पार्लियामेंटेरियन में किया है।
यह मामला भारत और अमेरिका के बीच न्यूक्लियर डील का था और वक्त 2008 का था। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। यूपीए की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सीपीएम अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील किए जाने के पूरी तरह खिलाफ थी लेकिन जब यूपीए सरकार इस मामले में आगे बढ़ी तो सीपीएम ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
सरकार से नाता तोड़ने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं था
सोमनाथ चटर्जी लिखते हैं कि यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने से पहले सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात उनसे मिलने उनके घर आए थे और कहा था कि उनसे किया गया वह वादा पूरा नहीं किया गया जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने कहा था कि न्यूक्लियर डील के मामले में कोई भी फैसला करने से पहले उनसे बातचीत जरूर की जाएगी। लेकिन उन्होंने अपना वादा नहीं निभाया इसलिए उनके पास यूपीए से नाता तोड़ने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं था।
2004 में सीपीएम ने जब यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देने का फैसला किया था तब सीपीएम ने यूपीए सरकार में शामिल होने का फैसला नहीं किया था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उसे सरकार के द्वारा की गई गलतियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए।
सीपीएम के सरकार से बाहर रहने पर जताई थी असहमति
सोमनाथ चटर्जी लिखते हैं कि जब सरकार में शामिल होने का फैसला सीपीएम की केंद्रीय कमेटी के पास आया तो उन्होंने सरकार से बाहर रहने के फैसले पर आपत्ति जताई क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा करने से पार्टी कार्यकर्ताओं, किसानों और आम लोगों के हितों या पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में चल रही सरकारों को कोई मदद नहीं मिलेगी। इस तरह सोमनाथ चटर्जी ने सीपीएम के यूपीए सरकार में शामिल न होने के फैसले को लेकर खुलकर अपनी असहमति व्यक्ति की थी।
2004 में जब यूपीए की सरकार बनी थी तो इस सरकार के लिए वाम दलों का समर्थन बेहद महत्वपूर्ण था और तब सभी वाम दल ‘सरकार के पीछे की ताकत’ वाली भूमिका निभाना चाहते थे। उस दौरान सरकार से जुड़े हर विधायी प्रस्तावों और महत्वपूर्ण कामों के लिए सरकार को प्रकाश करात और वाम दलों के अन्य नेताओं की राय लेनी होती थी।
उस दौरान प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार के मंत्री प्रकाश करात और वाम दलों के अन्य नेताओं से सरकार के द्वारा भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों पर बातचीत को लेकर लगातार मिलते-जुलते रहते थे।