अरविंंद केजरीवाल के लिए आप की भूख हड़ताल: 'नया भारत' में भी क्यों कम नहीं हो रहा विरोध का यह पुराना तरीका?
लोकसभा चुनाव 2024 का माहैल गरम है। स्वाभाविक है, नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी खूब चल रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोपों के बीच अनशन की राजनीति भी चल रही है। AAP के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के विरोध में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने रविवार को देशभर में सामूहिक उपवास किया। पार्टी के बड़े नेता दिल्ली के जंतर-मंतर पर उपवास करने बैठे। वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान अपने मंत्रियों के साथ शहीद भगतसिंह के गांव खटकड़कलां में उपवास पर बैठे।
आप का दावा है कि भारत के अलावा, अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नॉर्वे, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में रहने वाले भारतीय भी अरविंद केजरीवाल की जल्द रिहाई के लिए उपवास करेंगे। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या भूख हड़ताल को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है या इससे अरविंंद केजरीवाल की रिहाई का रास्ता खुलेगा।
अरविंंद केजरीवाल का जेल से बाहर आना कोर्ट के फैसले पर निर्भर है। लिहाजा आप नेताओं की भूख हड़ताल ज्यादा राजनीतिक ही मानी जाएगी। विडंबना है कि आप का जन्म ही भूख हड़ताल के द्वारा किए गए आंदोलन के ही गर्भ से हुआ है और जिस मांग को लेकर यह भूख हड़ताल की गई थी, वह मांग भी आज पूरी तरह पूरी नहीं हुई है।
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ महात्मा गांधी की भूख हड़ताल
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी ने उपवास को 'सत्याग्रह के शस्त्रागार में एक महान हथियार' बताया था। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कम से कम 20 बार विरोध का यह तरीका अपनाया। महात्मा गांधी ने सबसे लंबी भूख हड़ताल 1943 में की जब उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपनी हिरासत के खिलाफ 21 दिनों तक उपवास किया था।
स्वतंत्र भारत में पहला बड़ा आमरण अनशन
स्वतंत्र भारत में पहला बड़ा आमरण अनशन 1952 में हुआ जब पोट्टी श्रीरामुलु ने अलग आंध्र प्रदेश राज्य की मांग को लेकर खाना बंद कर दिया। 58 दिनों के बाद श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया और आखिरकार सरकार को 1953 में तत्कालीन मद्रास राज्य से आंध्र प्रदेश को अलग करना पड़ा।
इरोम शर्मिला ने 16 साल तक की हड़ताल
1969 में, सिख नेता दर्शन सिंह फेरुमन ने भी चंडीगढ़ सहित पंजाबी भाषी क्षेत्रों को नव निर्मित पंजाब राज्य में शामिल करने के लिए आमरण अनशन किया था। 74 दिनों के उपवास के बाद उनकी मृत्यु हो गई। नवंबर 2000 में जब मणिपुर में 8वीं असम राइफल्स द्वारा 10 नागरिकों को गोली मार दी गई थी तब इरोम शर्मिला ने हत्या के खिलाफ और बाद में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) के खिलाफ अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की थी।
अनशन शुरू करने के तीन दिन बाद, इरोम को आत्महत्या की कोशिश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और वह 16 साल तक पुलिस हिरासत में रहीं, जहां उन्होंने अपनी भूख हड़ताल जारी रखी। उन्होंने 2016 में अपना अनशन समाप्त कर दिया। उपवास के दौरान इरोम शर्मिला को एक ट्यूब के माध्यम से जबरदस्ती खाना खिलाया गया। 2021 में मद्रास हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि भूख हड़ताल को 'आत्महत्या का प्रयास' नहीं माना जाएगा।
क्या मानी गयी इरोम शर्मिला की मांग?
ये विरोध प्रदर्शन असम राइफल्स के खिलाफ और AFSPA के खिलाफ था। 16 सालों तक इसने न तो उन्हें मरने दिया और न ही सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को हटाने की उनकी मांग को स्वीकार किया। इस प्रदर्शन का असर ये हुआ कि असम राइफल्स को कांगला किला खाली करना पड़ा। साथ ही इंफाल के सात विधानसभा क्षेत्रों से AFSPA को हटा दिया गया। AFSPA को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर समेत कई हिस्सों में लागू किया गया था। हालांकि, बाद में समय-समय पर कई इलाकों से इसे हटा भी दिया गया। फिलहाल ये कानून जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में लागू है। त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय से इसे हटा दिया गया है।
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ममता बनर्जी की भूख हड़ताल
साल 2006 में, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने 'जबरन भूमि अधिग्रहण' के विरोध में भूख हड़ताल की। इस भूमि अधिग्रहण के माध्यम से पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार ने टाटा ग्रुप को उसके नैनो कारखाने के लिए जमीन आवंटित की थी। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अपील के बाद ममता बनर्जी ने अपनी 25 दिनों की भूख हड़ताल खत्म कर दी और टाटा ने आखिरकार राज्य में अपना कारख़ाना नहीं स्थापित किया। यह घटना बंगाल की राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई और पांच साल बाद 2011 के विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी सत्ता में पहुंच गईं।
साल 2009 में, तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने अलग राज्य की मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू किया। दबाव में कांग्रेस 10 दिनों के भीतर नरम पड़ गई और उसने तेलंगाना राज्य के निर्माण का वादा किया। लगभग साढ़े चार साल बाद 2014 में तेलंगाना अस्तित्व में आया और केसीआर इसके पहले मुख्यमंत्री बने।
अन्ना हजारे की भूख हड़ताल और आप का जन्म
आम आदमी पार्टी की की जड़ें भी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ी हैं, जिसमें सीएम केजरीवाल भी शामिल थे। साल 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन ने भूख हड़ताल को फिर से चर्चा में ला दिया। उनके अनिश्चितकालीन अनशन शुरू करते ही चार दिन के अंदर सरकार उनकी मांगों पर सहमत हो गई और लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए एक समिति का गठन किया, जिसे 2013 में संसद द्वारा पारित किया गया।
आंध्र प्रदेश के पूर्व सीएम और तेलुगु देशम पार्टी के प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग को लेकर 2018 में भूख हड़ताल पर चले गए। इस विरोध के कारण नायडू ने तत्कालीन सहयोगी भाजपा से भी नाता तोड़ लिया। साल 2018 में ही कार्यकर्ता से नेता बने हार्दिक पटेल ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में पाटीदार युवाओं के लिए आरक्षण के साथ-साथ कृषि ऋण माफी की मांग को लेकर अनशन शुरू किया।
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अविरल गंगा के लिए प्राणों की आहुति
उत्तराखंड में पर्यावरणविद जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद ने गंगा की निर्मलता और अविरलता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। स्वामी सानंद ने 2009 में भागीरथी नदी पर बांध के निर्माण को रुकवाने के लिए अनशन किया था। यह अनशन सफल रहा और बांध निर्माण कार्य रोका गया। इसके बाद वह लगातार गंगा नदी को लेकर एक एक्ट बनाने की मांग करते रहे। जून 2018 में वह गंगा एक्ट को लागू करने की मांग को लेकर अनशन पर थे। 111 दिनों तक यह आंदोलन चला। इस दौरान स्वामी सानंद ने अन्न भी त्याग दिया था। जिसके बाद ऋषिकेश के एम्स में उन्होंने 11 अक्टूबर 2018 को अंतिम सांस ली थी।
साल 2020 के अंत में भाजपा सरकार द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के पारित होने के बाद किसानों ने देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू किया, जिसमें केंद्र पर कानूनों को रद्द करने के लिए दबाव बनाने के लिए भूख हड़ताल भी शामिल थी।
मराठा आरक्षण की मांग और भूख हड़ताल
हाल ही में कार्यकर्ता मनोज जारांगे पाटिल ने महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को लेकर अनशन किया था। मनोज जारांगे पाटिल ने 17 दिनों तक भूख हड़ताल की थी। जिसके बाद 10 फीसदी मराठा आरक्षण को मंजूरी दी गई। हालांकि, मनोज जारांगे पाटिल ने सरकार के इस फैसले का भी विरोध किया। उनका कहना है कि सरकार को अलग से 10 फीसदी आरक्षण देने की बजाय मराठा समुदाय को ओबीसी कोटा देना चाहिए।
क्या निकला नतीजा?
फरवरी 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाकर 10 फीसदी मराठा आरक्षण को मंजूरी दी गई। इसके तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण मिलना है।
लद्दाख में क्यों हड़ताल पर बैठे सोनम वांगचुक?
मार्च 2024 में क्लाइमेट एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक ने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों के साथ ही औद्योगिक और खनन लॉबी से इसके पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा की मांग के लिए 21 दिनों की भूख हड़ताल की थी। उन्होंने लेह से वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) तक 'पश्मीना मार्च' का भी आह्वान किया था लेकिन बाद में हिंसा की आशंका के कारण योजना वापस ले ली थी। हालांकि, वांगचुक ने 26 मार्च को अपनी भूख हड़ताल खत्म कर दी थी जिसके बाद अब लद्दाख की महिलाएं हड़ताल पर बैठ गई हैं। उनका कहना है कि अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो लद्दाख के युवा, बौद्ध भिक्षु और बुजुर्ग भी अलग-अलग चरण में इस भूख हड़ताल में शामिल होंगे।
क्या निकला वांगचुक की हड़ताल का नतीजा?
लद्दाख में विरोध प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की अगुवाई में 17 सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने दिसंबर 2023 में लेह और कारगिल के दो प्रमुख संगठनों के साथ पहली बैठक की थी, जहां उनकी मांगों पर चर्चा हुई। हालांकि, बैठक का कोई खास नतीजा नहीं निकला।
भूख हड़ताल का आधुनिक इतिहास
ऐसा माना जाता है कि आधुनिक इतिहास की पहली बड़ी भूख हड़ताल 19वीं सदी के अंत में रूस में हुई थी। न्यूयॉर्क के हैमिल्टन कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर केविन ग्रांट द्वारा लिखित एक स्टडी के अनुसार, एक भूख हड़ताल 1878 में दर्ज की गई थी, जब सेंट पीटर्सबर्ग में पीटर और पॉल किले में बंद राजनीतिक कैदियों ने जेल की अमानवीय स्थिति के विरोध में भोजन करने से इनकार कर दिया था।
साइबेरिया में महिला राजनीतिक कैदियों द्वारा कई भूख हड़तालें भी हुईं। इनमें से एक हड़ताल एक कैदी, येलिज़ावेता कोवल्स्काया के नेतृत्व में शुरू हुई, जिसे एक विजिटिंग अधिकारी का अपमान करने के बाद स्थानांतरित कर दिया गया था। यह प्रकरण, जिसके परिणामस्वरूप कई मौतें हुईं को "कारा त्रासदी" के रूप में जाना गया और इसके तुरंत बाद जेल को बंद कर दिया गया।
विरोध का यह तथाकथित 'रूसी तरीका', बाद में ब्रिटिश मताधिकारियों द्वारा इस्तेमाल किया गया था। सबसे पहले इसे 1909 में मैरियन वालेस डनलप ने अपनाया था। इस डर के कारण कि वह जेल में मर सकती है उन्हें 91 घंटों के बाद रिहा कर दिया गया। कई लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया और कुछ को जबरन खाना खिलाया गया।