क्या इंदिरा की बराबरी कर पाएंगी प्रियंका? जानिए कब और कैसे शुरू हुआ था भारतीय राजनीति का 'इंदिरा युग'
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे कांग्रेस के लिए संजीवनी लेकर आए। पिछले चुनाव में 52 सीटें जीतने वाली पार्टी ने इस बार 99 सीटों पर कब्जा जमाया। इसके बाद प्रियंका गांधी ने भी चुनावी राजनीति में एंट्री का फैसला कर लिया। वह राहुल गांधी की खाली की गई वायनाड सीट से पहली बार चुनाव लड़ेंगी। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि यह कांग्रेस में प्रियंका युग की शुरुआत का संकेत है।
वैसे, प्रियंका की तुलना अक्सर उनकी दादी इंदिरा गांधी से भी होती रही है। फिलहाल तो यह तुलना उनके 'लुक' तक ही सीमित रही है। लेकिन, अब जब वह चुनावी राजनीति में उतर गई हैं तो उनकी राजनीति को लेकर भी तुलना हो सकती है। बहरहाल, आज हम बात करते हैं उस चुनाव की जिसके बाद भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी युग की शुरुआत हुई थी।
तीसरे (1962) और चौथे (1967) लोकसभा चुनावों के बीच के साल भारतीय राजनीति के लिए दर्दनाक थे। चीन के साथ एक महीने तक चले युद्ध में हार के बाद दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु हो गई। 27 मई, 1964 को जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई और दो साल से भी कम समय के बाद लाल बहादुर शास्त्री की भी मौत हो गयी।
इस बीच पाकिस्तान के साथ दूसरा युद्ध हुआ जो अगस्त-सितंबर 1965 में लगभग डेढ़ महीने तक चला। दोनों देश युद्धविराम के लिए संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर सहमत हुए। 10 जनवरी, 1966 को शास्त्री और पाकिस्तान के अयूब खान ने ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर किए लेकिन अगले ही दिन 11 जनवरी को भारतीय प्रधानमंत्री का उज़्बेक शहर में निधन हो गया।
गुलजारी लाल नंदा बने भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री
भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री होने की ज़िम्मेदारी गुलजारी लाल नंदा पर आई, जो नेहरू के निधन पर एक बार पहले ही यह भूमिका निभा चुके थे। इस बार वह 13 दिनों तक पद पर रहे। जिसके बाद नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने 24 जनवरी, 1966 को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
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चौथी लोकसभा के लिए मतदान 17 से 21 फरवरी, 1967 के बीच हुआ। इंदिरा ने कांग्रेस को जीत दिलाई लेकिन मोरारजी देसाई के साथ उनकी अनबन और गहरी हो गई। यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ हुआ आखिरी चुनाव था। 1967 में कई राज्यों में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकारें सत्ता में आईं।
चौथा लोकसभा चुनाव 520 सीटों के लिए हुआ
चौथा लोकसभा चुनाव 520 सीटों के लिए हुआ था। 77 सीटें एससी के लिए और 37 एसटी के लिए आरक्षित थीं। राज्य विधानसभाओं में 3,563 सीटों (1962 में 3,121 की तुलना में) के लिए वोट डाले गए, जिनमें से 503 एससी के लिए और 262 एसटी के लिए आरक्षित थीं।
1967 का भारत कुछ मायनों में अलग भी था। नागालैंड राज्य की स्थापना 1963 में हुई थी। 1966 में, हरियाणा एक अलग राज्य बन गया और चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) के रूप में नामित किया गया। 1967 तक देश के 10 केंद्र शासित प्रदेशों - हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, गोवा, दमन और दीव और पांडिचेरी में से कई में विधान सभाएं और मंत्रिपरिषदें थीं।
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कई कांग्रेस दिग्गज नेहरू से नाराज
प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल में नेहरू के सामने गंभीर सूखे की स्थिति थी। देश को खाद्यान्न संकट और उच्च मुद्रास्फीति दर का सामना करना पड़ा। 1963 में पीएम नेहरू ने कामराज योजना के तहत सभी कांग्रेस मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे स्वीकार कर लिए थे। हालाँकि, इस योजना ने कई कांग्रेसी दिग्गजों को नाराज कर दिया था जिन्हें अपने पद छोड़ने पड़े थे।
कांग्रेस और समाजवादियों के बीच राजनीतिक खींचतान
इस बीच कांग्रेस और समाजवादियों के बीच राजनीतिक खींचतान तेज हो गयी। गांधीवादी और समाजवादी जेबी कृपलानी ने 1962 के चुनाव से पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) छोड़ दी थी। 1963 में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया फर्रुखाबाद सीट पर उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे। अगले साल लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) का गठन किया और कांग्रेस से मुकाबला करने के लिए अन्य विपक्षी दलों के साथ गठबंधन बनाया।
अप्रैल 1964 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का जन्म हुआ। केरल कांग्रेस में भी उसी साल विभाजन हुआ। 1965 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया दो गुटों में विभाजित हो गईं। 1962 के चुनाव के तुरंत बाद शिरोमणि अकाली दल मास्टर तारा सिंह और संत फतेह सिंह के नेतृत्व में दो गुटों में विभाजित हो गया था।
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61 प्रतिशत लोगों ने किया मतदान
तीसरी लोकसभा का कार्यकाल 17 अप्रैल, 1967 को समाप्त होना था जबकि राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल उसी साल 11 मार्च से 5 अप्रैल के बीच समाप्त होना था। फरवरी में एक सप्ताह की अवधि में, लगभग 15.27 करोड़ लोगों (25.03 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से 61.33%) ने देश भर के 2.67 लाख मतदान केंद्रों पर मतदान किया। मतदान के उच्च प्रतिशत को कई लोगों ने उस समय की सरकार के प्रति लोगों के गुस्से की अभिव्यक्ति के रूप में देखा।
चौथी लोकसभा पहली बार 16 मार्च, 1967 को बैठी
लोकसभा के लिए कुल 2,369 उम्मीदवार और राज्य विधानसभाओं के लिए 16,501 उम्मीदवार मैदान में थे। तीन सीटों पर नतीजे 21 फरवरी को घोषित किए गए लेकिन आखिरी नतीजे 10 मार्च को घोषित किए गए। लोकसभा के लिए चुने गए 520 सदस्यों में से 30 महिलाएँ थीं। विधानसभाओं में 3,486 सदस्यों में से 98 महिलाएँ थीं। चौथी लोकसभा पहली बार 16 मार्च, 1967 को बैठी।
कांग्रेस ने लोकसभा में केवल 283 सीटें जीतीं
नतीजे कांग्रेस के लिए चौंकाने वाले थे। पार्टी ने लोकसभा में केवल 283 सीटें जीतीं। उस समय तक कांग्रेस ने इतनी कम सीटें कभी नहीं जीती थीं। हालांकि कांग्रेस का वोट शेयर 40% से ऊपर रहा था। 44 सीटों के साथ सी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। गुजरात, उड़ीसा और राजस्थान में स्वतंत्र पार्टी मुख्य विपक्ष थी।
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भारतीय जनसंघ (बीजेएस) ने 35 सीटें जीतीं और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) जो केवल मद्रास में लड़ी थी, ने 25 सीटें जीतीं। हालांकि, कांग्रेस 13 राज्यों की विधानसभाओं में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसे 5 राज्यों - बिहार, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में बहुमत नहीं मिला। मद्रास में, कांग्रेस को सीएन अन्नादुरई की द्रमुक ने हरा दिया।
कई गठबंधनों में एक दर्जन पार्टियां थीं
संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) की गठबंधन सरकारें पंजाब, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, मद्रास और केरल के साथ-साथ दिल्ली महानगर परिषद में भी बनीं। यूपी, हरियाणा और मध्य प्रदेश में दलबदलू चौधरी चरण सिंह, राव बीरेंद्र सिंह और गोविंद नारायण सिंह की मदद से गठबंधन सरकारें बनीं। इनमें से कुछ गठबंधनों में शायद एक दर्जन पार्टियां थीं, यूपी में लगभग 20 पार्टियां थीं।
रायबरेली से जीतीं थीं इंदिरा
इंदिरा गांधी ने रायबरेली में जीत हासिल की। इस सीट का प्रतिनिधित्व पहले उनके दिवंगत पति फिरोज गांधी करते थे। नेहरू की फूलपुर सीट पर नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित जीतीं। गुलजारी लाल नंदा हरियाणा के कैथल से जीते।
लोहिया और जॉर्ज फर्नांडिस ने कन्नौज और बॉम्बे साउथ से एसएसपी के टिकट पर जीत हासिल की। विजयाराजे सिंधिया स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर गुना से जीतीं और अटल बिहारी वाजपेयी (बीजेएस) ने बलरामपुर में जीत हासिल की। 1967 के बाद भारत के राजनीतिक इतिहास में एक नये युग की शुरुआत हुई, जिस पर इंदिरा गांधी का दबदबा था।