विवादित किस्सा: नेहरू की एक गलती और भारत नहीं पाकिस्तान के पास चला गया ग्वादर!
पाकिस्तान के बंदरगाह शहर के नाम से मशहूर ग्वादर मछुआरों और व्यापारियों का एक छोटा सा शहर था। जब तक चीन ने इसपर नजर नहीं डाली, तब तक यह ऐसा ही थी। लेकिन यह मछली पकड़ने वाला गांव अब पाकिस्तान तीसरा सबसे बड़े बंदरगाह केंद्र है। हालांकि, ग्वादर हमेशा पाकिस्तान के साथ नहीं था। यह 1950 के दशक तक लगभग 200 वर्षों तक ओमानी शासन के पास था।
1958 में ग्वादर आया पाकिस्तान के कब्जे में
1958 में ग्वादर पाकिस्तान के कब्जे में आया। हालांकि इसे भारत को देने की पेशकश की गई थी, जिसे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अस्वीकार कर दिया था। ग्वादर 1783 से ओमान के सुल्तान के कब्जे में था। ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (सेवानिवृत्त) ने 2016 में लिखे अपने लेख 'भारत की ऐतिहासिक भूल जिसके बारे में कोई बात नहीं करता' में लिखा था, "ओमान के सुल्तान से अमूल्य उपहार को स्वीकार न करना एक बहुत बड़ी भूल थी। ये स्वतंत्रता के बाद की रणनीतिक भूलों की लंबी सूची के बराबर थी।"
अब सवाल उठता है कि एक छोटा सा मछली पकड़ने वाला शहर ओमान की संकरी खाड़ी के पार ओमानी सुल्तान के पास कैसे पहुंच गया? जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने बंदरगाह शहर को स्वीकार करने से क्यों मना कर दिया? अगर भारत ने 1956 में ग्वादर पर कब्ज़ा कर लिया होता तो क्या होता? ये बड़े सवाल हैं।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के मकरान तट पर स्थित ग्वादर पहली बार 1783 में ओमानी कब्जे में आया था। कलात के खान मीर नूरी नसीर खान बलूच ने इस क्षेत्र को मस्कट के राजकुमार सुल्तान बिन अहमद को उपहार में दिया था। यूरेशिया समूह के दक्षिण एशिया प्रमुख प्रमित पाल चौधरी ने India Today को बताया, "राजकुमार सुल्तान और कलात के खान दोनों के बीच यह समझौता था कि अगर राजकुमार ओमान की गद्दी पर बैठते हैं, तो वे ग्वादर को वापस कर देंगे।"
सुल्तान के कदम से विवाद पैदा हुआ
पाकिस्तानी तट पर ग्वादर से सटे दो अन्य मछली पकड़ने वाले गांव पेशुकन और सुर बांदर भी ओमानी कब्जे में थे। सुल्तान बिन अहमद ने 1792 तक अरब के तट पर छापे मारने के लिए ग्वादर को अपना आधार बनाया, जब तक कि उन्हें मस्कट की गद्दी नहीं मिल गई, जिस पर उनकी नज़र थी। लेकिन ग्वादर को वापस नहीं किया गया, जिससे दोनों (ओमान-बलूचिस्तान) के बीच विवाद की स्थिति पैदा हो गई।
मार्टिन वुडवर्ड के लेख 'ग्वादर: द सुल्तान्स पॉजेशन' के अनुसार 1895 और 1904 के बीच कलात के खान और (ब्रिटिश) भारत सरकार दोनों ने ओमानियों से ग्वादर खरीदने के लिए प्रस्ताव रखे, लेकिन कोई निर्णय नहीं लिया गया।1763 से ग्वादर ब्रिटिश के एजेंट द्वारा शासित किया जाता था। इस बीच ओमान के सुल्तान ने विद्रोहियों के खिलाफ सैन्य और वित्तीय मदद के बदले में संभावित हस्तांतरण के बारे में अंग्रेजों के साथ बातचीत जारी रखी।
1952 तक पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर था ग्वादर
प्रमित पाल चौधरी ने बताया, "बलूचिस्तान का अधिकांश हिस्सा 1948 में पाकिस्तान द्वारा कब्जा कर लिया गया था, लेकिन ग्वादर के आसपास की तटीय पट्टी (जिसे मकरान कहा जाता है) को 1952 तक शामिल नहीं किया गया।" यानी ग्वादर अभी भी पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर था। इसी समय ओमान ने भारत को ग्वादर बेचने की पेशकश की। अगर यह सौदा हो जाता तो दक्षिण एशियाई का भौगोलिक इतिहास बदल सकता था।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य प्रमित पाल चौधरी ने इंडिया टुडे को बताया, "रिकॉर्ड से परिचित दो भारतीय राजनयिकों के साथ निजी बातचीत के अनुसार, ओमान के सुल्तान ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ग्वादर बेचने की पेशकश की थी।" ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (सेवानिवृत्त) ने 2016 में अपने लेख में लिखा था, "राजनयिक समुदाय की अफवाहों के अनुसार आजादी के बाद ग्वादर पर शासन ओमान के सुल्तान की ओर से भारत द्वारा किया जाता था, क्योंकि दोनों देशों के बीच बहुत अच्छे संबंध थे।"
भारत को ग्वादर खरीदने के लिए 1956 में मिला प्रस्ताव
प्रमित पाल चौधरी कहते हैं, "मेरा मानना है कि यह प्रस्ताव 1956 में आया था। जवाहरलाल नेहरू ने इसे ठुकरा दिया और 1958 में ओमान ने ग्वादर को 3 मिलियन पाउंड में पाकिस्तान को बेच दिया। राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास ग्वादर विवाद पर दस्तावेज़ और कुछ अख़बारों के लेख हैं, लेकिन भारतीय अधिकारियों के विचारों को संपादित किया गया है।" ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (सेवानिवृत्त) के अनुसार यह प्रस्ताव संभवतः मौखिक रूप से दिया गया था।
जैन समुदाय ग्वादर खरीदना चाहता था
दरअसल भारत का जैन समुदाय ओमान से ग्वादर खरीदने में दिलचस्पी रखता था। अज़हर अहमद ने अपने शोधपत्र 'ग्वादर: ए हिस्टोरिकल केलिडोस्कोप' में लिखा है, "ब्रिटिश सरकार द्वारा सार्वजनिक किए गए दस्तावेज़ों से पता चलता है कि भारत में जैन समुदाय ने भी ग्वादर को खरीदने की पेशकश की थी। जैन समुदाय के पास बहुत धन था और वे अच्छी कीमत दे सकते थे। 1958 में, यह जानने के बाद कि भारतीय भी ग्वादर को खरीदने की कोशिश कर रहे हैं, पाकिस्तान सरकार ने अपने प्रयास तेज़ कर दिए और ब्रिटिश सरकार के साथ एक समझौता करने में सफल रही।" उन्होंने यह बात पाकिस्तान के पूर्व विदेश महासचिव अकरम ज़की के साथ 2016 में हुई बातचीत के आधार पर कही। ज़की चीन और अमेरिका में राजदूत रह चुके हैं।
ग्वादर को ओमान से ब्रिटिश नियंत्रण में दे दिया गया, जो बाद में पाकिस्तान के पास चला गया। भले ही अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों को छोड़ दिया, लेकिन सोवियतों का मुकाबला करने के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखी। हालांकि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अकेले ही ग्वादर के ओमानी प्रस्ताव को अस्वीकार करने के निर्णय पर नहीं पहुंचे थे। ओमानी प्रस्ताव को अस्वीकार करने का निर्णय परिस्थितियों के कारण भी लिया गया था। राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ प्रमित पाल चौधरी ने बताया, "तत्कालीन विदेश सचिव सुबिमल दत्त और संभवतः भारतीय खुफिया ब्यूरो के प्रमुख बी एन मलिक ने सुल्तान के प्रस्ताव को स्वीकार न करने की सिफारिश की थी।"
नेहरू ने क्यों प्रस्ताव किया अस्वीकार?
अगर नेहरू ने ग्वादर को स्वीकार कर लिया होता और खरीद लिया होता, तो यह पाकिस्तान में एक भारतीय क्षेत्र होता, जहां कोई ज़मीनी पहुंच नहीं होती। स्थिति वैसी ही होती जैसी पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के साथ सैन्य-संबंधों के मामले में झेलनी पड़ी थी। प्रमित पाल चौधरी बताते हैं, "तर्क यह था कि ग्वादर पाकिस्तान के किसी भी हमले से अछूता था। चूंकि नेहरू अभी भी पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की उम्मीद कर रहे थे, इसलिए ग्वादर जैसे क्षेत्र को शायद एक उकसावे के रूप में देखा गया।"