पाकिस्तान की राजनीति पर क्यों हावी रहती है सेना? जानिए भारत को दोष देते हुए भी कांग्रेस की क्यों की जाती हैं तारीफ
ऋषिका सिंह
Pakistan Politics Explained: पाकिस्तान की जनता ने गुरुवार (8 फरवरी) को आम चुनाव में मतदान किया। अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि नवाज़ शरीफ़ फिर से प्रधानमंत्री होंगे। लेकिन जीत की यह भरोसा इसलिए नहीं है कि उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) को जनता का भारी समर्थन प्राप्त है। बल्कि उनकी जीत की भविष्यवाणी पाकिस्तानी सेना की बदौलत की जा रही है।
दूसरी तरफ इस चुनाव में नवाज़ शरीफ़ को इसलिए भी फायदा होगा क्योंकि फिलहाल पाकिस्तान की सबसे लोकप्रिय पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के नेता इमरान खान जेल में हैं और वह चुनाव भी नहीं लड़ सकते।
बता दें कि इमरान की तरह,नवाज़ भी जांच और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना कर चुके हैं। इसके कारण उन्होंने 2017 में पीएम पद से इस्तीफा दे दिया और बाद में देश भी छोड़ दिया था।
पाकिस्तान की राजनीतिक और सेना
1947 से ही पाकिस्तानी सेना ने अपने देश में सत्ता परिवर्तन को प्रभावित किया है। यह पाकिस्तानी सेना ही थी जिसने यह सुनिश्चित किया कि अब नवाज शरीफ सत्ता में आए और पहले यह तय किया था कि वह सत्ता से बाहर जाएंगे। यह सेना ही है जो इमरान खान के उत्थान और पतन दोनों का सूत्रधार बनी।
इस बात का श्रेय भी काफी हद तक पाकिस्तानी सेना को ही जाता है कि अब तक वहां का कोई भी प्रधानमंत्री पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। अब तक तीन तख्तापलट करने वाले पाकिस्तानी जनरल देश में सबसे शक्तिशाली राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो आइए विस्तार से जानते हैं पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका की कहानी।
1947 में पाकिस्तानी सेना
पूर्व पाकिस्तानी राजनयिक हुसैन हक्कानी ने अपनी किताब 'इंडिया वर्सेस पाकिस्तान: व्हाई कैन्ट वी जस्ट बी फ्रेंड्स?' में सेना के पास शुरू से ही मौजूद संसाधनों के बारे में लिखा है।
उन्होंने लिखा है, "विभाजन में पाकिस्तान के हिस्से में ब्रिटिश भारत की आबादी का 21 प्रतिशत और उसके राजस्व का 17 प्रतिशत शामिल था… विभाजन की शर्तों के तहत, पाकिस्तान को ब्रिटिश भारत की सेना का 30 प्रतिशत, नौसेना का 40 प्रतिशत और वायु सेना का 20 प्रतिशत प्राप्त हुआ।"
अंग्रेजी शासन ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के लिए कुछ समूहों को "मार्शल फोर्स" के रूप में पहचाना था। इनमें पश्तून और पंजाबी मुसलमान भी थे, जो अधिकतर उन क्षेत्रों से थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गये।
प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1948 में पहले बजट का 75% डिफेंस और जवानों के वेतन व रखरखाव की लागत को कवर करने के लिए आवंटित किया था। हक्कानी लिखते हैं, "इस तरह, पाकिस्तान अन्य देशों की तरह नहीं था जो अपने सामने आने वाले खतरों से निपटने के लिए सेना खड़ी करते हैं। इसे एक बड़ी सेना विरासत में मिली थी जिसे बनाए रखने के लिए खतरों की लगातार जरूरत थी।"
जिन्ना ने पाकिस्तानी सेना पर क्या कहा था?
पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने सेना की सर्वोच्चता की कल्पना नहीं की थी। 1948 में क्वेटा स्थित आर्मी स्टाफ कॉलेज में एक भाषण के दौरान जिन्ना ने कहा था, "यह मत भूलो कि सशस्त्र बल लोगों के सेवक हैं। आप राष्ट्रीय नीति नहीं बनाते; यह हम नागरिक हैं, जो इन मुद्दों को तय करते हैं और यह आपका कर्तव्य है कि इन कार्यों को पूरा करें जो आपको सौंपे गए हैं।"
पाकिस्तान की सेना ने ठीक इसका उलटा किया है। 2022 में पूर्व सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने स्पष्ट कहा था कि सेना ने "राजनीति में असंवैधानिक रूप से हस्तक्षेप किया है।"
सम्मानित पाकिस्तानी अखबार डॉन ने उस समय लिखा था कि, "पाकिस्तान की राजनीति में सेना का हस्तक्षेप व्यापक रहा है। तख्तापलट के माध्यम से जनता की चुनी सरकारों को हटाने से लेकर परोक्ष रूप से कमजोर व्यवस्थाओं को नियंत्रित करने तक में सेना का हाथ रहा गहै। राजनीतिक नेताओं ने भी बहुत आसानी से सेना को जगह दे दी है और उनकी कमजोरियों के कारण संस्थागत सीमाओं का उल्लंघन हो रहा है।"
पाकिस्तानी सेना को किस चीज ने हावी होने दिया?
अपनी पुस्तक 'द आर्मी एंड द डेमोक्रेसी' में पाकिस्तानी अकादमिक अकील शाह ने लिखा है कि सेना को राजनेताओं के प्रति अविश्वास ब्रिटिश भारतीय सेना से विरासत में मिला था।
शाह ने लिखा, "पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों (और सिविल सेवकों) ने राष्ट्रवादी राजनेताओं के लिए उसी दृष्टिकोण को आत्मसात कर लिया जो औपनिवेशिक अधिकारियों का था। अंग्रेज अधिकारी स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को निकम्मा आंदोलनकारी मानते थे, जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों के जाने के बाद भी पाकिस्तानी सेना ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के दृष्टिकोण को नहीं छोड़ा।"
लेकिन शाह यह भी मानते हैं कि यह भारत से कथित खतरा था जिसने पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य संबंधों को किसी भी अन्य कारक से अधिक आकार दिया। उन्होंने लिखा है, "इसने शुरुआती वर्षों में पाकिस्तान के भीतर सैन्यीकरण को बढ़ावा दिया और… वह स्थिति प्रदान किया जिसमें जनरल सेना की नौकरी करते हुए घरेलू राजनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में अपना प्रभाव बढ़ा सकते थे।"
'मिलिट्री, स्टेट एंड सोसाइटी इन पाकिस्तान' पुस्तक में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री हसन अस्करी रिज़वी ने तर्क दिया कि "अस्तित्व" की चिंताओं ने "अखंड राष्ट्रवाद" के आवेग को बढ़ावा दिया, जिसके कारण विकासशील लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद, सिविल सोसाइटी और मीडिया पर सेना को विशेषाधिकार प्राप्त हुआ।
दूसरी तरफ भारत में कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे रहने से लेकर एक लोकप्रिय राजनीतिक दल की भूमिका निभाने में सफलता हासिल की, मुस्लिम लीग ऐसा नहीं कर सकी।
रिज़वी ने लिखा, "जिन्ना (जिनकी 1948 में मृत्यु हो गई) और लियाकत (जिनकी 1951 में हत्या कर दी गई) के बाद पाकिस्तान में कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं बचा था, जो थे उनमें कल्पनाशक्ति की कमी थी और वे लोगों को प्रेरित करने में असमर्थ थे, कठिन राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से निपटने की बात तो दूर थी।"
रिज़वी स्थिति को अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, "कई लोगों की पृष्ठभूमि सामंती या अर्ध-सामंती थी और वे मुख्य रूप से अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और संकीर्ण विचारों से प्रेरित थे।"
पाकिस्तानी सेना तीन बार सीधे संभाल चुकी है सत्ता
पहला तख्तापलट (1958): शाह ने लिखा है, "शीत युद्ध के दौरान एशियाई और लैटिन अमेरिकी सेनाओं की तरह, पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व का मानना था कि सेंट्रलाइज अथॉरिटी राष्ट्र निर्माण की कुंजी है। सेना लोगों की जातीय भावनाओं का शोषण नहीं करेगी, जैसा कि राजनेताओं करते हैं।"
इस प्रकार, 1958 में आर्थिक और राजनीतिक संकट के बीच जनरल मोहम्मद अयूब खान ने सरकार को अलग-थलग कर दिया और राजनीतिक गतिविधियों को निलंबित कर दिया। लोगों में सेना के प्रति समर्थन की भावना थी, जिसने तख्तापलट को वैध बना दिया।
दूसरा तख्तापलट (1977): भारत से अपमानजनक हार और 1971 में देश के टुकड़े-टुकड़े होने से एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान की मनोदशा खराब हो गई। 1977 के चुनावों के नतीजों पर विपक्षी पाकिस्तान नेशनल अलायंस (पीएनए) ने जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के खिलाफ धांधली के आरोप लगाए।
भुट्टो द्वारा मार्शल लॉ लागू करने के बाद जनरल जिया-उल हक ने 1977 में तख्तापलट करके सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। भुट्टो को 1979 में फांसी दे दी गई।
तीसरा तख्तापलट (1999): इस वर्ष प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के अधीन सत्ता के मजबूत होने के डर से, सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट किया। कश्मीर पर कब्जा करने के लिए मुशर्रफ भारत के साथ युद्ध करना चाहते थे और इसके लिए प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर दबाव बना रहे थे।
भारत ने कारगिल में मुशर्रफ के दुस्साहस के लिए पाकिस्तान को दंडित किया। पाक की बुरी हार हुई। इसके बाद जनरल देश में तख्तापलट कर दिया।
पाकिस्तानी जनता और सेना के संबंध में क्या बदलाव आया है?
शाह ने लिखा: "लोकतंत्र में सेना (या अन्य राज्य संस्थाएं) कानून के शासन से ऊपर नहीं हो सकतीं। हालांकि, पाकिस्तानी सेना नागरिक कानूनी प्रणाली के दायरे से बाहर सजा से मुक्त होकर काम करती है क्योंकि वह खुद को कानून से ऊपर मानती है…"
समय के साथ सेना की भूमिका बड़ी हुई है। शाह ने लिखा, "2007-2008 में विरोधी प्रदर्शनों के कारण सेना ने खुद को सत्ता से बाहर कर लिया… 2008 के बाद से जनरलों ने राजनीतिक लोकतंत्र को सहन किया है क्योंकि प्रत्यक्ष सैन्य शासन को सेना की छवि और हितों के विपरीत देखा गया है। …ऐसा प्रतीत होता है कि पेंडुलम की तरह, सेना गवर्नरशिप से वापस संरक्षकता में चली गई है।"
2018 में सेना ने नवाज की जगह इमरान को चुना। लेकिन जब व्यापक जनसमर्थन से लैस इमरान सेना के आलोचक बन गए, तो उन पर कई आरोप लगाए गए, जिसके कारण अंततः 9 मई, 2023 को उनकी गिरफ्तारी हुई। उनके क्रोधित समर्थकों ने रावलपिंडी में सेना मुख्यालय सहित 20 से अधिक सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला किया।
अब, नवाज़ फिर से सत्ता प्रतिष्ठान की पसंद हैं। पाकिस्तान के जटिल नागरिक-सैन्य संबंध निकट भविष्य में इसकी राजनीति को निर्धारित करते रहेंगे।