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Jansatta Editorial: राजनीतिक दलों को आपराधिक छवि के लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करने की जरूरत

बृजभूषण शरण सिंह पर बेशक अभी आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं, मगर जिस तरह महिला पहलवानों ने उनके खिलाफ साक्ष्य प्रस्तुत किए और जांचों से भी उनके खिलाफ तथ्य सामने आए, उससे उन्हें फिलहाल निरपराध नहीं कहा जा सकता।
Written by: जनसत्ता | Edited By: Bishwa Nath Jha
नई दिल्ली | Updated: May 04, 2024 08:06 IST
jansatta editorial  राजनीतिक दलों को आपराधिक छवि के लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करने की जरूरत
बृजभूषण शरण सिंह। फोटो -(इंडियन एक्सप्रेस)।
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अब यह उजागर है कि प्रत्याशी के चुनाव में राजनीतिक दलों से साफ-सुथरी छवि का ध्यान रखने की चाहे जितनी अपेक्षा और मांग की जाए, पर उनका मकसद एक ही होता है। वे उसी को उम्मीदवार बनाते हैं, जिसके जीतने की संभावना अधिक होती है, चाहे वह आपराधिक छवि का ही क्यों न हो। माना जा रहा था कि भारतीय जनता पार्टी बृजभूषण शरण सिंह को चुनाव मैदान में नहीं उतारेगी।

इसे लेकर उसमें ऊहापोह भी देखी जा रही थी। मगर लंबी जद्दोजहद के बाद आखिरकार उसने उनकी जगह उनके बेटे करण भूषण सिंह को टिकट दे दिया। बृजभूषण शरण सिंह महिला पहलवानों के यौन शोषण के आरोप में अदालत की सुनवाइयों का सामना कर रहे हैं। उनकी वजह से भाजपा को खासी किरकिरी झेलनी पड़ी। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय कुश्ती संघ ने भी बृजभूषण शरण सिंह पर अंगुली उठाई थी, जिसके चलते उन्हें कुश्ती महासंघ के चुनाव से अलग रहना पड़ा।

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मगर उन्होंने कुश्ती महासंघ पर अपना दबदबा कायम रखने की नीयत से अपने एक करीबी को अध्यक्ष का चुनाव लड़ाया और उसे ही विजय भी मिली। उस पर भी अंगुलियां उठनी शुरू हुईं, तो खेल मंत्रालय को आखिरकार बृजभूषण शरण सिंह के करीबी को अध्यक्ष पद से हटाना पड़ा।

यह समझना मुश्किल है कि भाजपा के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी, जो उसने बृजभूषण शरण सिंह से अपना पल्ला छुड़ाना उचित नहीं समझा। उनकी जगह उनके बेटे को टिकट दे दिया। इससे बृजभूषण शरण सिंह को लेकर उठ रहे सवाल शांत नहीं हो जाएंगे। इसके पीछे एक वजह तो यह बताई जाती है कि उत्तर प्रदेश में राजपूत समाज लगातार भाजपा पर आरोप लगा रहा था कि वह राजपूत समाज के प्रत्याशियों का टिकट काट रही है।

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दूसरा कारण यह हो सकता है कि बृजभूषण का टिकट कटने से उनके बगावत करने और उस सीट से भाजपा के हारने की आशंका हो सकती थी। मगर इस तरह समझौता करके भाजपा अगर अपनी एक सीट बचा भी ले, तो इससे उसके सिद्धांतों पर सवाल तो उठेंगे ही। लंबे समय से मांग की जा रही है कि राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते हुए उनकी छवि का ध्यान रखें।

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निर्वाचन आयोग ने भी कहा था कि राजनीतिक दल आपराधिक छवि के लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करें। अगर वे किसी ऐसे प्रत्याशी को टिकट देती हैं, तो उन्हें इसका स्पष्टीकरण देना होगा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्या उसकी जगह कोई और प्रत्याशी नहीं मिला। बृजभूषण शरण सिंह की जगह उनके बेटे को टिकट देकर बेशक भाजपा इस जवाबदेही से बच गई है, पर यह तो जाहिर है कि वह चुनाव उनका बेटा नहीं, एक तरह से वे खुद लड़ेंगे।

बृजभूषण शरण सिंह पर बेशक अभी आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं, मगर जिस तरह महिला पहलवानों ने उनके खिलाफ साक्ष्य प्रस्तुत किए और जांचों से भी उनके खिलाफ तथ्य सामने आए, उससे उन्हें फिलहाल निरपराध नहीं कहा जा सकता। यह भी छिपी बात नहीं है कि उनके खिलाफ आंदोलन पर उतरी महिला खिलाड़ियों को किस तरह दमन के जरिए आंदोलन से हटाया गया।

इन सबको लेकर लगातार सरकार के रवैये पर सवाल उठते रहे हैं। इसके बावजूद उनकी जगह उनके बेटे को टिकट देकर भाजपा ने एक तरह से एक नए विवाद को गले लगा लिया है। इसे लेकर विपक्षी दलों और महिला खिलाड़ियों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है।

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