Jansatta Editorial: अर्थव्यवस्था में सुधार के दावों के बावजूद लोगों को अपना घरेलू खर्च चलाना हुआ मुश्किल
किसी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत इस बात से भी आंकी जाती है कि उसकी राष्ट्रीय बचत किस स्थिति में है। भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से होड़ करती हुई आगे बढ़ रही है। मगर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि यहां राष्ट्रीय घरेलू बचत का रुख नीचे की तरफ बना हुआ है।
सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने अपने ताजा आंकड़े में बताया है कि पिछले तीन वर्षों में देश के परिवारों की शुद्ध बचत नौ लाख करोड़ रुपए से अधिक घट गई है। जारी आंकड़ों के मुताबिक वित्तवर्ष 2020-21 में परिवारों की शुद्ध बचत 23.29 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गई थी, जो 2022-23 में घट कर 14.16 लाख करोड़ रुपए रह गई। यह स्थिति तब है जब देश में विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ी है। विदेशों में रह रहे भारतीयों ने 2022 में एक सौ ग्यारह अरब डालर भारत भेजे। इस तरह हम दुनिया का पहला देश बन चुके हैं, जहां सौ अरब डालर या उससे अधिक विदेशों से भेजा गया धन प्राप्त हुआ है।
हालांकि समीक्ष्य अवधि में म्युचुअल फंड में निवेश बढ़ कर तीन गुना और शेयरों तथा डिबेंचर में परिवारों का निवेश बढ़ कर दोगुना हो गया है। मगर इसके बरक्स सच्चाई यह भी है कि पिछले तीन वर्षों में परिवारों पर कर्ज का बोझ बढ़ कर दोगुना हो चुका है। इसमें परिवारों द्वारा गैरवित्तीय बैंकों से लिया गया कर्ज चार गुना बढ़ा है।
यह अवधि कोरोनाकाल के दौरान और उसके बाद की है। उस दौरान भविष्य निधि खाते से निकाले गए धन में भी बेतहाशा बढ़ोतरी दर्ज हुई थी। यानी कोरोनाकाल के बाद जिस अर्थव्यवस्था के सुधरने के दावे किए जाते रहे हैं, उसमें लोगों का अपना घरेलू खर्च चलाना मुश्किल बना हुआ है। इससे रोजगार की स्थिति और प्रति व्यक्ति आय के स्तर का भी पता चलता है।
देश की तरक्की का तूमार चाहे जितना ऊंचा उठ जाए, पर वह टिकाऊ आम आदमी की हैसियत से ही बनती है। इसलिए यह अपेक्षा अपनी जगह बनी हुई है कि हकीकत से आंखें मिलाते हुए, विकास दर के बरक्स बुनियादी खामियों को दूर करने की कोशिश हो।