संपादकीय: जोखिम की इमारतें और आम लोगों का जीवन, तकनीकी से निर्माण में आई तेजी लेकिन टिकने का भरोसा नहीं
भवन, पुल, सड़कों आदि के निर्माण में तकनीकी उपयोग से तेजी तो आई है, ढांचे मनोहारी बनने लगे हैं, मगर उनकी मजबूती और टिकाऊपन को लेकर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। अब शायद ही कोई वर्ष बीतता हो, जब बरसात में पुलों, सड़कों, नवनिर्मित भवनों के धंसने, ढहने की खबरें न आती हों। ताजी घटना दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे के टर्मिनल-एक की है, जहां गाड़ियों के ठहराव वाली जगह की छत ढह गई, जिसमें कई गाड़ियों को नुकसान पहुंचा, एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई घायल हो गए। बताया जा रहा है कि बारिश की वजह से छत बैठ गई। यह तो इस मौसम की पहली बारिश थी, अभी पूरा मौसम बाकी है, इसलिए हवाई अड्डे की दूसरी छतों को लेकर भी लोगों में आशंका पैदा होना स्वाभाविक है।
दरअसल, हवाई अड्डे की छत लोहे के खंभे खड़े कर सिंथेटिक और लोहे की पतली चादरों से बनाई गई है। इस तरह जगह तो काफी खुली हो गई है और सुंदर भी दिखती है, मगर इसके टिकाऊपन को लेकर कोई दावा करना मुश्किल है। यह कोई पहली इमारत नहीं है, जिसमें इस निर्माण कला का उपयोग किया गया है। अब बहुत सारी सार्वजनिक जगहों पर जल्दी काम पूरा करने के मकसद से यही तकनीक इस्तेमाल होने लगी है।
दरअसल, भवन निर्माण में कांच, लोहे, सिंथेटिक चादरों वगैरह का इस्तेमाल काफी तेजी से बढ़ा है। इस तरह इमारतें जल्दी तैयार हो जाती हैं, मगर न तो यह भारतीय प्रकृति के अनुकूल है और न इन्हें लंबे समय तक टिकाऊ माना जा सकता है।
लोहे के खंभों को नट-बोल्ट से जोड़ कर बनाए गए ढांचे की समय-समय पर मरम्मत जरूरी होती है, जिसका प्राय: अभाव देखा जाता है। बहुत सारी इमारतें, सड़कें और पुल सरकार के दबाव में जल्दी तैयार कर दिए जाते हैं, इस वजह से भी इमारतें जोखिम भरी साबित होती हैं। दिल्ली हवाई अड्डे पर हुई घटना के कुछ घंटे पहले मध्यप्रदेश के जबलपुर में भी हवाई टर्मिनल की नई इमारत की छत का एक हिस्सा बारिश की वजह से एक गाड़ी पर गिर गया। बारिश शुरू होते ही बिहार में कई पुल ढह गए। पिछले कई वर्षों से मध्यप्रदेश, बिहार आदि में पुलों के बाढ़ में बह जाने, सड़कों के धंस या बह जाने की खबरें आती रही हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब इमारतें जल्दी तैयार करने की हड़बड़ी में उनकी जल निकासी, छतों की मजबूती आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया और बरसात शुरू होते ही उनकी पोल खुल गई। यह समझना मुश्किल है कि तकनीकी इस्तेमाल से जहां निर्माण कार्यों में मजबूती आनी चाहिए, वे इतने भुरभुरे क्यों साबित हो रहे हैं कि बारिश का हल्का दबाव भी झेल नहीं पा रहे। इसकी एक वजह तो साफ है कि निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार के कारण निर्माण सामग्री की गुणवत्ता से समझौता किया जाता है।
मगर यह सब ऐसी व्यवस्था में बढ़ रहा है, जो भ्रष्टाचार को कतई बर्दाश्त न करने के दावे करती है। आमतौर पर हवाई अड्डा और वहां के समूचे परिसर को सबसे सुरक्षित जगहों में शुमार किया जाता है, जहां हुए निर्माण से लेकर सुरक्षा व्यवस्था तक के मोर्चे को पूरी तरह चाक-चौबंद माना जाता है। मगर बारिश ने इस बात की कलई खोल कर रख दी है। इस तरह इमारतों, पुलों, सड़कों के बारिश में ढह या बह जाने से न केवल बड़े पैमाने पर सार्वजनिक धन भी बह जाता है, आम लोगों की परेशानियां और बढ़ जाती हैं, इससे जान-माल का नुकसान होता है, सो अलग।