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मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मुस्कुराइए, भ्रष्टाचार है

दुनिया के सामंती और आधुनिक युग की सीमा रेखा वहीं से शुरू होती है जब मानव सभ्यता जिसकी लाठी उसकी भैंस से कानून के राज में पहुंचती है।
Written by: मुकेश भारद्वाज | Edited By: Bishwa Nath Jha
नई दिल्ली | Updated: April 06, 2024 08:15 IST
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल  मुस्कुराइए  भ्रष्टाचार है
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पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन की रामलीला मैदान में हुई रैली को कोई भी सिर्फ इसलिए खारिज नहीं कर पाया क्योंकि वह शक्तिहीन दिखते विपक्ष की है। इसकी वजह यह थी कि विपक्ष ने चुनावी रैली में चुनाव आयोग व अन्य एजंसियों को इस तरह कठघरे में रखा जैसे वह सत्ता पक्ष को रखता है। चुनाव आयोग व अन्य एजंसियों से चुनाव के मैदान में समानता के अवसर की मांग ने संवैधानिक संस्थाओं को ‘असहज’ किया। असमानता के वो आंकड़े सामने आए जो लंबे समय से लगाए जा रहे उन आरोपों को और पुख्ता कर रहे हैं कि जांच एजंसियों का इस्तेमाल रणनीतिक रूप से विपक्ष को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है। 2014 के चुनाव मैदान में जो भ्रष्टाचार को मिटाने का नारा लगा रहे थे, आज उन पर आरोप है कि भ्रष्टाचार का इस्तेमाल विपक्ष पर अत्याचार के लिए कर रहे हैं। अगर भ्रष्टाचारी विपक्ष के वृत्त से निकल कर सत्ता के चौखटे में आ जाए तो फिर वह भ्रष्टाचारी नहीं रहता है। 2014 से 2024 के भ्रष्टाचार पर वार से लेकर मेरी तरफ हो तो स्वीकार है तक के सफर पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।

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न तो कानून काम आया था रांझे के जरा सा भी उसी को भैंस मिलती है हो जिस के हाथ में लाठी -अजीज फैसल

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दुनिया के सामंती और आधुनिक युग की सीमा रेखा वहीं से शुरू होती है जब मानव सभ्यता जिसकी लाठी उसकी भैंस से कानून के राज में पहुंचती है। सोच-समझ कर कानून की देवी की आंखों पर पट्टी बांध कर उसके हाथ में तराजू रखा गया है। पट्टी और तराजू इस बात का प्रतीक है कि कानून का इस्तेमाल किसी लाठी यानी हथियार की तरह नहीं होगा। इंसाफ के तराजू पर सभी बराबर रखे जाएंगे। निष्पक्षता और समानता की बुनियाद पर ही कानूनी संस्थाओं की अट्टालिका खड़ी हो सकती है।

लोकतंत्र, स्वतंत्र, निष्पक्ष, समान अवसर। विपक्ष के नेताओं ने रामलीला मैदान में चुनाव आयोग से समान अवसर की मांग की तो चुनाव आयोग को असहज होना पड़ा। सत्ता और विपक्ष के बीच असमानता की खाई इतनी चौड़ी दिखी कि भारत के चुनावी मैदान में अवसर की असमानता का आरोप अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया। जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता पक्ष 2014 से बढ़त ले रहा था, अब वह सत्ता पक्ष के अत्याचार की शक्ल में दिखने लगा। जो इंडिया गठबंधन अलग-अलग राजनीतिक स्वार्थ की वजह से क्षत-विक्षत हो चुका था, असमानता का साझा आरोप लगा कर भ्रष्टाचार के मुद्दे को अत्याचार का हथियार साबित करने में कामयाब होता दिख गया।

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प्रवर्तन निदेशालय पर सीधे-सीधे आरोप लगे कि उसका इस्तेमाल विपक्ष को नुकसान पहुंचाने के लिए रणनीतिक रूप से हो रहा है। तब तक इस आरोप को बेबुनियाद बताने के तर्क आ भी जाते थे। लग रहा था कि इस बार भी भ्रष्टाचार के भरोसे ही सत्ता पक्ष चुनावी माहौल को एकतरफा ले जाएगा। ‘भ्रष्टाचारी विपक्ष’ को एक तरफ खड़ा कर शर्मसार कर दिया जाएगा।

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इस मोड़ पर आ जाता है चुनावी बांड। इसी के साथ चुनावी चंदे और ईडी द्वारा जारी समन के रिश्तों को भी सामने लाया गया। अगर किसी आरोप के बाद देश की वित्त मंत्री को बयान देना पड़ जाता है कि चुनावी बांड और ईडी की जांच का कोई संबंध नहीं है तो समझा जा सकता है कि आरोप नजरअंदाज किए जाने जैसा तो कतई नहीं था। खास कर वैसी सरकार जवाब देने के लिए मजबूर होती है, जो विपक्ष के आरोपों को जवाब देने लायक समझती ही नहीं थी। भ्रष्टाचार के आरोप को देख रही जनता चुनावी चंदे में धन-वर्षा को देख कर इतनी हैरान थी कि धन के शोधन में रुचि खो बैठी।

चुनावी चंदे के हल्ले के बीच अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी कर ली जाती है। यह गिरफ्तारी चुनावी आचार संहिता लागू होने के बाद हुई, इसलिए इस पर सवाल उठना लाजिम था। अगर, अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी रणनीति का हिस्सा भी मान लिया जाए तो फिलहाल उलटी पड़ती दिख रही है। चुनावी बांड का मुद्दा सनसनीखेज तो था, लेकिन इसे जनता के बीच ले जाने और सत्ता के खिलाफ माहौल बनाने में विपक्ष को काफी मेहनत करनी पड़ती। इस मसले पर विपक्ष के पास समय और शक्ति दोनों की कमी थी।

चुनावी बांड के मुद्दे पर भी असक्रिय से दिख रहे विपक्ष में अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने जो सक्रियता भरी, उसने कम से कम भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो पासा पलट ही दिया। मजबूर भारतीय स्टेट बैंक के चुनावी चंदे के विवरण देने के बाद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने उस पक्षपात व असमानता के आरोप को सही साबित करने की कोशिश की जिसका आरोप विपक्ष लगा रहा था।

सत्ता पक्ष को लगा था कि केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खलबली मच जाएगी, उसका मनोबल टूट जाएगा। सत्ता पक्ष वाली पार्टी की सदस्यता लेने के लिए पार्टी मुख्यालय के बाहर विपक्षी नेताओं की कतार लग जाएगी। जनता के बीच विपक्ष की रही-सही छवि भी खत्म हो जाएगी। लेकिन, भ्रष्टाचार पर अत्याचार के निशान दिखते ही यह कवायद सत्ता पक्ष की स्वघोषित बेदाग छवि को नुकसान पहुंचा गई।

आम आदमी पार्टी की एक राज्य और एक केंद्रशासित प्रदेश में सरकार है। अपने हिस्से के प्रचारतंत्र पर भी उसका दखल है। अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। दिल्ली में किसी चीज का होना उसका राष्ट्रीय होना है। इसलिए आम आदमी पार्टी दिल्ली में सत्ता हासिल करने के बाद ही राष्ट्रीय स्वरूप की भाषा बोल रही थी। हेमंत सोरेन के बरक्स दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के जेल जाने को राष्ट्रीय मुद्दा बनना ही था।

दिल्ली का मीडिया इसे नजरअंदाज कर भी नहीं सकता था। मीडिया ने अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार को लेकर कितना भी तटस्थ और निष्पक्ष दिखने की कोशिश की, भ्रष्टाचार को सिर्फ भ्रष्टाचार बताया लेकिन आम जनता का झुकाव केजरीवाल की तरफ ही दिखा। आम लोगों के मुंह से भी भ्रष्टाचार के उलट अत्याचार निकलने लगा। अब विपक्ष भ्रष्टाचार के नाम पर इस अत्याचार के खिलाफ खुद को पीड़ित दिखाने में कामयाब है।

2014 में रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार को लेकर जो विमर्श उभरा था, राबर्ट वाड्रा से लेकर शीला दीक्षित को जेल भेजने के जो दावे हुए थे 2024 में उसी रामलीला मैदान में इसे अत्याचार की शक्ल में दिखाया गया। लोगों को शीला दीक्षित की भी याद आई और उनकी छवि पर हुए ‘अत्याचार’ को लेकर भी सहानुभूति उमड़ पड़ी। जहां से नेताओं को जेल भेजने का वादा किया गया था वहां नारा लग रहा था, जेल के ताले टूटेंगे।

2014 से 2024 के भ्रष्टाचार पर वार के सफर का हासिल यह है कि आज चुनाव लड़ने के सवाल पर राबर्ट वाड्रा दावा कर रहे हैं कि वे जहां से भी चुनाव लड़ेंगे वहां विकास होगा। इससे पहले वाड्रा यह भी कह चुके हैं कि सत्ता पक्ष जब हर तरफ से हताश हो जाता है तो वह मुझे घसीट लाता है। अगर दस साल बाद वाड्रा जेल के बजाय चुनाव मैदान में उतरने को तैयार दिख रहे हैं तो क्या यह माना जाए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ वार वाला सत्ता पक्ष का हथियार भोथरा हो चुका है? भ्रष्टाचार पर वार का नारा भी गरीबी हटाओ का हश्र हासिल कर गया?

विपक्ष के दागी नेताओं का स्वागत और भ्रष्टाचार पर वार का दावा दोनों साथ नहीं चल सकते हैं। सत्ता पक्ष का नारा तो अभी भी वही भ्रष्टाचार पर वार का है, लेकिन उस नारे के जवाब में जनता की तरफ से जय-जयकार नहीं है। जेल भेजे गए नेताओं को लेकर जनता की तरफ से कोई जश्न नहीं मनाया जा रहा है। हां, सत्ता पक्ष पर सवाल उठने जरूर शुरू हो गए हैं। विपक्ष के दागी भी सत्ता पक्ष में आते ही टिकट के पहले दावेदार हो जा रहे हैं और सत्ता पक्ष वालों की अंतिम कतार का अंतिम आदमी आगे देख भी नहीं पा रहा है।

चुनाव के पहले विपक्षी पार्टी को आयकर के पुराने मामले में जुर्माना और वसूली के नोटिस पर अदालत में एजंसी को कहना पड़ गया कि चुनाव खत्म होने तक जबरन/अवपीड़क कार्रवाई नहीं करेगी। एजंसियों की कार्रवाई न्यायिक प्रक्रिया के दायरे में ले जाई गई। 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, लेकिन मतदान के पहले भ्रष्टाचार का मुद्दा तो खारिज ही दिख रहा है। दिख रहा है तो पक्ष व विपक्ष के नेताओं पर जांच की असमानता के आंकड़े। इन आंकड़ों को देख कर संवैधानिक संस्थाओं की ‘असहजता’।

चुनावी बांड के हमाम ने जब ज्यादातर राजनीतिक दलों की असलियत सामने ला दी है तब लग रहा है कि भ्रष्टाचार को हटाने की 2014 की ‘गारंटी’ क्या झूठी थी? हालांकि, 2014 में ‘गारंटी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ था, लेकिन सदिच्छा ऐसी ही दिखी थी। अब 2024 में 2014 के भ्रष्टाचारी कह रहे-सत्ता के खेमे में आ गए हैं, स्वागत नहीं करेंगे हमारा? जनता क्या कह सकती-मुस्कुराइए, बस भ्रष्टाचार ही तो है।

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