मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जवाबदेही का जनादेश
2024 के लोकसभा चुनाव में जनता विपक्ष लेकर आई। लेकिन, सत्ता पक्ष के शुरुआती तेवर देख कर लग रहा है कि वह मजबूत विपक्ष की हकीकत से आंखें मूंदें ही रहना चाहता है। जनादेश के संदेश को नजरअंदाज करते हुए अहम पदों पर पुराने मंत्रियों की बहाली जारी रही तो लोकसभा अध्यक्ष के पद पर भी उन्हीं की वापसी कराई जिनके नाम संसद में एकबारगी सबसे बड़े सामूहिक निलंबन का ‘कीर्तिमान’ बना। ध्यान रहे कि 17वीं लोकसभा में राजग सरकार ने लोकसभा उपाध्यक्ष के पद को खाली रखना बेहतर समझा। जो पद पिछली लोकसभा में खाली रहा, सरकार उसे भी विपक्ष को नहीं देना चाह रही है। सत्ता पक्ष ने नई परिपाटी शुरू करते हुए संसद परिसर में आपातकाल के खिलाफ प्रदर्शन किया। फिर वह विपक्ष के प्रदर्शन पर सवाल कैसे उठाएगी? सरकार के शुरुआती कदमों से यही लग रहा है कि उसे सिर्फ लगातार तीसरी बार वापसी की बात याद है, अपना कमजोर होकर आना भूल गई है। नई लोकसभा में सरकार के शुरुआती तेवर बनाम जवाबदेही के जनादेश पर बेबाक बोल।
अठारहवीं लोकसभा का सत्र शुरू होने के साथ ही सदन का बदला हुआ चेहरा दिखा। जब चुनाव प्रक्रिया चल रही थी और विपक्ष को ‘कुछ नहीं’ बताया जा रहा था, तब कहा गया कि इस बार जनता लड़ रही है। नतीजे में विपक्षी सांसदों की मजबूत संख्या संसद में पहुंची। दो बार प्रचंड बहुमत वाली सरकार जब अहंकार में विपक्ष को गैरजरूरी बता रही थी तो जनता ने संदेश दिया कि विपक्ष जरूरी है।
हर तरफ अहंकार का जनता ने दिया जवाब
जनता को विपक्ष जरूरी क्यों लगा? संसद से लेकर हर मंच तक ऐसा दिखा कि सरकार रूपी शरीर में ज्ञानेंद्रियों में सिर्फ जुबान हावी है और कान को छुट्टी पर भेज दिया है। सरकार से जुड़ा कोई भी पक्ष किसी और की सुनने को तैयार ही नहीं था। विदेशी मंचों पर भी विपक्ष को निशाना बनाने में सरकारी पक्ष अपनी तारीफ समझता था। विदेश में स्थित राजनयिक तक सरकार की जयकार करने के साथ विपक्ष पर वार करने लगे। जनता इस अहंकार को भी बर्दाश्त कर लेती अगर उसकी निजी जिंदगी में कुछ सुधार होता। लेकिन, महंगाई से लेकर बेरोजगारी तक शून्य बटा सन्नाटा देख वह पक्ष के अहंकार से खीझ गई और कहा कि विपक्ष के साथ मिलजुल कर काम करना सीखिए और आम लोगों की जिंदगी को थोड़ा आसान बनाइए।
सत्ता पक्ष जवाबदेह बनने को तैयार नहीं लगता
लेकिन, दो बार प्रचंड बहुमत के बाद इस बार गठबंधन वाली सरकार का शुरुआती शोर बता रहा है कि अभी तक इरादा शक्ति का हंगामा बरपाना है, विपक्ष को लेकर सूरत बदलने की नीयत नहीं है। विपक्ष के साथ सहमति बनाने में सरकार की जो पहली जांच परीक्षा थी उसमें वह उसी तरह नाकाम दिखी, जिस तरह पिछले लंबे समय से वह निष्पक्ष परीक्षाएं करवाने में नाकाम रही है। लोकसभा में अध्यक्ष पद को लेकर ‘ऐतिहासिक’ चुनाव हो गया। आजाद भारत के इतिहास में अभी तक लोकसभा अध्यक्ष को लेकर सिर्फ तीन बार चुनाव हुए थे।
स्पीकर नियुक्ति में भी रवायत की अनदेखी जारी
विपक्ष ने कहा था कि अगर सरकार लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को दे देती है तो वह अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवारी वापस कर देगा। लेकिन, दस सालों से संसद में वर्चस्व रखने वाली सत्ता अभी तक इसी खुशफहमी में है कि विपक्ष जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। लोकसभा अध्यक्ष के पद पर सहमति बनाने की रवायत को गैरजरूरी ही समझा और विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद मिलेगा या नहीं, अभी इस पर पूरी तरह चुप्पी है।
डिप्टी स्पीकर के लिए संवैधानिक प्रावधान भी नहीं स्वीकारा
ऐतिहासिक रूप से एक तथ्य यह भी है कि 17वीं लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद खाली रखा गया था। संवैधानिक प्रावधान लोकसभा उपाध्यक्ष के पद को जरूरी बताते हैं, लेकिन राजग सरकार को यह जरा भी जरूरी नहीं लगा। विडंबना है कि सत्ता पक्ष जिस पद को पांच साल तक उपेक्षित और खाली छोड़ सकता है उसे भी वह विपक्ष को नहीं देना चाह रहा है।
नई लोकसभा में विपक्षी नेताओं के तर्क अपनी जगह रहे कि इस सरकार ने विपक्ष को खारिज करने का ‘कीर्तिमान’ बनाया है इसलिए इनसे सौहार्दपूर्ण रवैए की कोई उम्मीद नहीं है। अखिलेश यादव से प्रश्न पूछते वक्त जब पत्रकार ने अध्यक्ष पद पर परंपरा (सरकार की पसंद) की बात की तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि कोई परंपरा आधी-अधूरी नहीं होती है। उनकी बात सही है कि सत्ता पक्ष अपने अधिकार के साथ विपक्ष के सम्मान के खंड को विलोपित नहीं कर सकता है।
विपक्ष को भय- चुप रहे तो पहले जैसे हालात फिर बनेंगे
लगातार दो चुनावों में विपक्ष की संख्या जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से कम की, लेकिन सत्ता पक्ष पर विपक्ष के साथ अलोकतांत्रिक व्यवहार के गंभीर आरोप लगे। देश की संसद में एक ही सत्र में सबसे ज्यादा विपक्षी सांसदों (146) का निलंबन हुआ। विपक्ष को भय है कि अगर अपनी आवाज बुलंद नहीं करेंगे तो हमारे साथ फिर वही सब होगा, आखिर लोकसभा अध्यक्ष भी तो वही हैं।
लोकसभा अध्यक्ष को सदन का अभिभावक कहा जाता है। लेकिन, पिछले अध्यक्ष इस भूमिका को लेकर विवादों में रहे। बहुत सारे बिल विपक्ष की गैरहाजिरी में पारित किए गए। विपक्ष ने बहुत सारे बिल को संसदीय समिति को भेजने की मांग की थी जिसे अनसुना कर दिया गया था। मजबूत सरकार का ध्वनि मत जल्द ही अहंकार के शोर में तब्दील होता दिखा।
विपक्ष के इस डर और अपनी अहंकारी छवि को मिटाने का जो पहला मौका था, सरकार ने उसे गंवा कर संदेश दे दिया कि इस मसले पर उसे सुधार की दरकार नहीं है। नई लोकसभा की शुरुआत भी विपक्ष पर वार और आपातकाल के जिक्र से हुई। इतना ही नहीं, नई परिपाटी शुरू करते हुए सत्ता पक्ष के सदस्यों ने आपातकाल के खिलाफ प्रदर्शन किया। आपातकाल पर प्रदर्शन के साथ सत्ता पक्ष को जनता का संदेश भी याद रखना चाहिए कि आपातकाल को काबू करना उसे आता है।
इंदिरा गांधी को संविधान को परे रख आपातकाल लाने की सजा जनता ने दी थी और उसी जनता ने उन्हें माफी देते हुए फिर से संविधान की शपथ लेने के लिए संसद भेजा। संवैधानिक अधिकारों का निलंबन करने वालों को भी यही संविधान सदन वापसी का अधिकार देता है। सत्ता पक्ष शायद यह भूल रहा है कि संविधान की असली अभिभावक देश की जनता है। संविधान ने जिन चार खंभों को अपने लिए जवाबदेह बनाया है, उसकी बुनियाद में वही लोक है जो हर खंभे के तंत्र पर अपनी नजर रखता है।
कांग्रेस का लाया आपातकाल इतिहास का वह हिस्सा है जो इस लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक है। गौर किया जाए कि जनता ने घोषित आपातकाल को इस देश की राजनीति का सबसे बड़ा सबक बना दिया। कम से कम अब कोई दल इस देश में घोषणा कर आपातकाल नहीं लाएगा। हां, अगर कोई अघोषित जैसा भी कुछ करना चाहेगा तो जनता उसकी पहचान कर उसके स्वर्णिम काल को भूत बना कर उसके वर्तमान और भविष्य के लिए आपात स्थिति की आहट ला सकती है।
18वीं लोकसभा की शुरुआत के साथ सत्ता से नम्र निवेदन है कि वह अपनी प्रतिक्रियावादी छवि को छोड़े और जवाबदेह दिखने की ओर बढ़े। कुछ तथ्यों पर गौर करें, वाईएसआर कांग्रेस ने कहा है कि अब वह संसद में राजग सरकार का सोच-समझ कर समर्थन करेगी। बीजू जनता दल ने तो साफ कह दिया है कि अब वह राज्यसभा में भाजपा का साथ नहीं देगी। बीजद के राज्यसभा में 9 और वाईएसआर के 11 सांसद हैं जो अब आंखें मूंदे रहने को तैयार नहीं हैं। आपके वर्चस्ववाद ने हर किसी को आंखें खोलने और सतर्क रहने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे हालात में आप एक देश एक चुनाव की तरफ कैसे बढ़ेंगे जब जनता ने संसद के लिए एक से ज्यादा पक्ष का चुनाव कर लिया है।
लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह का ध्रुवीकरण हुआ था, वह नई संसद में भी दिखा। कोई ‘जय फिलीस्तीन’ तो कोई ‘जय हिंदू राष्ट्र’ के नारे लगा रहा था। विपक्ष की कमजोरी का जितना मजाक बनाया गया था अब वह भी ‘जैसे को तैसा’ करना चाह रहा है। अगर सहमति का रास्ता नहीं बनाया गया तो सदन के अंदर यह ध्रुवीकरण और तेज होने की आंशका है।
विपक्ष को लेकर आप अपना अहंकारी तेवर तब दिखा रहे हैं जब देश में परीक्षाओं पर आपात स्थिति आ गई। आप एक बड़ी परीक्षा निष्पक्ष तरीके से करवाने में नाकाम रहे तो परीक्षाओं के रद्द करने का सिलसिला शुरू हो गया। परीक्षाओं को लेकर युवाओं ने ऐसा अभूतपूर्व संकट नहीं झेला था और आप अभी भी भूतपूर्व सरकारों पर वार कर रहे हैं।
दस साल का प्रचंड बहुमत वाला आपका मधु-काल खत्म हो चुका है। जनता ने आपको हराया नहीं है बल्कि विपक्ष के बराबर में बैठाया है ताकि आप जवाबदेह बनें। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर काम करें। जब पर्यावरण संकट आम लोगों की जिंदगी पर सीधा दखल दे चुका है तब ध्रुवीकरण के इस राजनीतिक संकट को खत्म करें। हर मौसम आम आदमी की जिंदगी पर भारी पड़ रहा तो अब चुनावी मौसम से निकलें। आपको अभी भी जनता ने सम्मानित संख्या दी है तो जवाबदेही के इस जनादेश का सम्मान करें।